खुशखबरी है बाघों की बढ़ती संख्या
देश में बाघों की संख्या बढ़ रही है, यह अच्छी खबर है. वरना 2006 के आसपास तो हालात बहुत चिंतनीय हो गए थे.
खुशखबरी है बाघों की बढ़ती संख्या |
सारिस्का और पन्ना क्षेत्रों में एक भी बाघ नहीं रह गया था. प्रत्येक चार साल में बाघों की गिनती होती है. दो बार से यह गणना खुश-खबरी दे रही है. 2006 और 2010 के बीच जो गिनती हुई, उसके अनुसार बाघ 1411 से बढ़कर 1706 हुए और फिर 2010 से 2014 के गिनती के परिणामों ने बाघों की संख्या 2226 तक पहुंचा दी. चार सालों में बाघों की वृद्धि में 30 प्रतिशत की आश्चर्यजनक वृद्धि दर्ज की गई है. हालांकि यह गिनती भी अभी संपूर्ण और विश्वसनीय नहीं है, क्योंकि एक तो इसमें पूर्वोत्तर के राज्यों और मध्यप्रदेश के सतपुड़ा बाघ आरक्षित वनों की गिनती दर्ज नहीं है.
दरअसल यह गिनती अभी की ही नहीं की गई है. दूसरे, नक्सल प्रभावित राज्य ओडीसा और झारखंड की गिनती भरोसे लायक नहीं है, क्योंकि इन क्षेत्रों के बाघ रहवास वाले सभी वन-खंडों में न तो कैमरे लगाए जा सके हैं और न वन-कर्मचारी दुर्गम इलाकों में नक्सलियों के भय के चलते पहुंच पा रहे हैं. जाहिर है, यदि जारी की गई गिनती सटीक है तो बाघों की संख्या इस गिनती से कहीं और ज्यादा हे सकती है?
वन एवं पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने बाघों की गणना के जारी आंकड़ों पर खुशी जाहिर करते हुए कहा कि दुनियाभर में बाघों की संख्या घट रही है, जबकि भारत में बढ़ रही है. यह हमारी बाघ सरंक्षण की दिशा में सफलता की कहानी है. इस पर हम गर्व कर सकते हैं. इस बार कर्नाटक, उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, तमिलनाडु और केरल में बाघों की संख्या बढ़ी है. सबसे ज्यादा 406 बाघ कर्नाटक में गिने गये हैं. उसके बाद उत्तराखंड में 346, मध्यप्रदेश में 308 और तमिलनाडु में 229 बाघ हो गए हैं.
इन राज्यों में क्रमष: 35.33, 52.42, 44.43 और 40.49 फीसद की बढ़त दर्ज की गई है. लेकिन ओडीसा और झारखंड में बाघ घटे हैं. बाघों की गिनती बेहद जटिल और जोखिम भरा काम है. बाघों का आवासीय क्षेत्रफल 3 लाख 78 हजार वर्ग किमी में फैला है. हालांकि इस बार की गिनती के नतीजे बाघ आरक्षित राज्यों के वन-प्रांतरों में लगे 9,735 कैमरों से खींचे गए चित्रों के आधार पर आए हैं. राष्ट्रीय बाघ सरंक्षण प्राधिकरण का दावा है कि भारत के पास 80 प्रतिशत बाघों की विलक्षण तस्वीरें हैं. दुनिया में कहीं भी इतने स्वचालित कैमरे लगा बाघों की गिनती कर पाना संभव नहीं हुआ है.
फिलहाल नक्सल प्रभावित ओडीसा व झारखंड में बाघों की पूरी गिनती नहीं हो पाई है. 2010 की गणना में ओडीसा में 32 और झारखंड में दस बाघ थे. जबकि 2014 के मुताबिक यह संख्या ओडीसा में 28 और झारखंड में 3 रह गई है. 2010 की गिनती इन क्षेत्रों में पंरपरागत पद्धतियों से की गई थी. तब 2006 की तुलना में नक्सली क्षेत्रों में बाघों की संख्या में बढ़त दर्ज की गई थी. लेकिन तब इस गिनती पर सवाल भी उठा था कि जब दुर्गम जंगलों में नक्सलियों के भय से वनकर्मी प्रवेश ही नहीं कर पा रहे हैं तो गिनती कैसे संभव हुई? इसलिए गिनती अनुमान आधारित कही गई. हालांकि नक्सली भय से इन इलाकों में शिकारियों का ज्यादा भय नहीं है, इसलिए वास्तविक गणना में बाघों की आशातीत वंशवृद्धि दिख सकती है.
पूर्वोत्तर के राज्यों में भी गिनती नहीं हो पाई है. जबकि अकेले सुदंरवन में 80 बाघों का अनुमान है.
सुदंरवन का बड़ा इलाका दलदली और उथला क्षेत्र होने के कारण यहां मोटर वोट नहीं चल पाती हैं, पतवार वाली छोटी नावों से ही चलना संभव हो पाता है. इस इलाके के मूल निवासियों की आजीविका इसी दलदली पानी से मछली बटोर कर चलती है. ऐसे में बाघ इन्हें भी आसानी से शिकार बना लेते हैं. यही वजह है कि नरभक्षी बाघ सुदंरवन में ही सबसे ज्यादा हैं और यहां कभी भी बाघों की गणना विश्वसनीय नहीं रही.
मध्यप्रदेश में नौकरशाही की मनमानी के चलते सतपुड़ा बाघ सरंक्षण क्षेत्र में बाघों की गिनती का काम ही शुरू नहीं हो पाया है. होशंगाबाद, छिंदवाड़ा व बैतूल जिलों के 2200 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में यह अभयारण्य फैला है. अनुमानत: इस क्षेत्र में 50 बाघ हो सकते हैं. बाघों के आवास, आहार व प्रजनन के लिए वनखंड को एनटीसीए ने देश के 10 प्रमुख बाघ संरक्षित राष्ट्रीय उद्यानों में तीसरे स्थान का दर्जा दिया है.
इसके पहले बाघों की गणना और सर्वक्षणों से जुड़े जो प्रतिवेदन आते रहे हैं, उन्हें प्रामाणिक मानें तो 90 प्रतिशत बाघ आरक्षित बाघ अभयारण्यों के बाहर रहते हैं. इनके संरक्षण में न वनकर्मियों का योगदान होता है और न बाघों के लिए मुहैया कराई गई धनराशि बाघ सरंक्षण के उपायों में खर्च होती है. इस तथ्य की पुष्टि 2010 की बाघ गणना जारी करते हुए तत्कालीन वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने भी की थी. उन्होंने कहा था कि नक्सल प्रभावित जंगलों में, जहां वन अमले की पहुंच मुमकिन नहीं हैं, और ऐसे अन्य जंगलों में बाघों की संख्या में गुणात्मक वृद्धि हुई है लेकिन ज्यादातर क्षेत्रों में गिनती संभव नहीं हो सकी है.
यह हकीकत इसलिए भी उचित लगती है क्योंकि कि श्योपूर के कूनो-पालपूरअभयारण्य, शिवपुरी के माधव राष्ट्रीय उद्यान और मुरैना के जंगलों में हर साल बाघ की आमद दर्ज की जाती है किंतु गिनती में इस क्षेत्र के बाघों को शामिल नहीं किया जाता. दरअसल एक बार गिनती में आने के बाद जंगलों में स्वच्छंद विचरण कर रहे बाघ पर नजर रखना मुश्किल है, इसीलिए वनाधिकारी अपने कार्यक्षेत्रों में बाघ की उपस्थिति टालते हैं.
2010 की बाघ गणना का सबसे शर्मनाक पहलू यह था कि सरिस्का और पन्ना में एक भी बाघ की आमद दर्ज नहीं की गई थी. इसके उलट 2006 से 2010 के बीच सारिस्का में 24 बाघों के मारे जाने और पन्ना में 16 से 32 के अवैघ शिकार की खबरें आई थीं. इनकी पुलिस रिपोर्ट भी हुई थी. किंतु अब इन दोनों उद्यानों में बाघ की आमद दर्ज कर ली गई है. इससे उम्मीद जगी है कि कालांतर में मध्यप्रदेश का ‘टाइगर स्टेट’ का दर्जा बहाल हो जाएगा. फिलहाल कर्नाटक ने यह दर्जा मध्यप्रदेश से हासिल कर लिया है.
बाघों की भविष्य में संख्या इसलिए और बढ़ सकती है, क्योंकि बाघ सरंक्षण की दिशा में न्यायालय, स्वंय सेवी संस्थाएं और आरटीआई कार्यकर्ता बहुत सजग हुए हैं. पारदी जैसी जनजातियों ने भी कानून के भय से अपना धंधा जड़ी-बूटियों तक सीमित कर लिया है. बावजूद इसके 2013 में 63 और 2014 में 66 बाघ मारे गए. इनमें से 10 फीसद ही आपसी झगड़े अथवा स्वाभाविक मौत मरे हैं, बाकी शिकारियों के हत्थे ही चढ़े हैं.
पर्यटन के लिए अभयारण्य क्षेत्रों में होटल, मोटल, रिजॉर्ट व मनोरंजन पार्क बनाए जाने के विस्तार पर प्रतिबंध जनहित याचिकाओं के माध्यम से ही लगा है. इसी तर्ज पर इन अभयारण्यों में चल रही खनन परियोजनाओं को नियंत्रित किया गया है. केंद्र व राज्य सरकारें यदि पर्यटन से होने वाली आय को थोड़ा सीमित कर लें और बाघ के अंदरूनी अवास स्थलों तक पर्यटकों की पहुंच प्रतिबंधित कर दें तो अगली बाघ गणना में यह संख्या और बढ़ सकती है.
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