नदियों में शव प्रवाह रोकना ही होगा

Last Updated 25 Jan 2015 12:13:18 AM IST

नदियां बहती हैं, यों ही. निरुद्देश्य गतिशील. नाद करते हुए. नदी नाद का सुख अप्रतिम.


नदियों में शव प्रवाह रोकना ही होगा

अथर्ववेद के ऋषि ने गाया है- सरिताओं आप नाद करते हुए बहती हैं, इसीलिए आपका नाम नदी पड़ा. नदियां भारत के मन की सरगम हैं अपनी गति लय में. वे पवित्र हैं, पवित्र करती भी हैं. बहती हैं धरती पर लेकिन भारत के मन और प्रज्ञा को भी सींचती रहती हैं. गंगा ऐसी ही नदी हैं. गंगा ऋग्वेद में हैं. पुराण कथाओं में हैं. रामायण और महाभारत में हैं. काव्य, गीत, संगीत सहित सभी ललित फलित कलाओं में हैं. गंगा वैदिक काल की नदी है. वे समूचे भारतीय इतिहास में उपास्य और माता हैं. महाभारत काल के नायक भीष्म गंगा पुत्र कहलाए. गंगा अर्पण, तर्पण और श्रद्धा समर्पण का सांस्कृतिक प्रवाह हैं.

861404 वर्ग किमी में विस्तृत गंगा क्षेत्र-बेसिन भारत की सभी नदियों के क्षेत्र से बड़ा है और दुनिया की नदियों में चौथा. गंगा जैसी ख्यातिनामा नदी विश्व में दूसरी नहीं. वे धरती पर बहती हैं, आकाश की धवल नक्षत्रावलि भी आकाश गंगा कही जाती हैं. वे हमेशा चर्चा में रहती हैं. कभी सूख जाने की आशंका में, तो प्राय: अविरल निर्मल गंगा की भारतीय अभीप्सा में. बीते सप्ताह यही गंगा उप्र के उन्नाव में 100 से ऊपर शव ढोकर ले आई. हड़कंप मचा. शासन और देश सन्न हैं. गंगा तमाम बांधों, तटवर्ती नगरों के सीवेज और औद्योगिक कचरे व शवों को ढोने के कारण मरणासन्न है.

श्रद्धालुओं ने गंगा जल की पवित्रता नष्ट की है. गंगा में शव डाले जाते हैं. अधजले शव और पूरे के पूरे भी. नदियों में शव डालने की परंपरा प्राचीन नहीं है. वैदिक ऋषि नदियों को मां जानते थे. ऋग्वेद में शव के अग्निदाह का स्पष्ट उल्लेख है. स्तुति है कि हे अग्नि, इस आत्मा को कष्ट दिए बिना संस्कार संपन्न करें. इसकी देह को भस्मीभूत करें और इसे पितरों के पास भेज दें. शरीर अनेक मूलभूत तत्वों से बनता है. आगे भावप्रवण स्तुति है कि आंखें सूर्य से मिलें और प्राण मिले वायु से. दाह संस्कार से पृथ्वी स्थल दग्ध होता है. वनस्पतियां क्षतिग्रस्त होती हैं. अग्नि से प्रार्थना है कि आपने जिस भू-स्थल को दग्ध किया है उसे तापरहित बनाएं. यहां फिर से घास उगे. पृथ्वी पहले जैसी हो जाए. जान पड़ता है कि शव के अग्निदाह की परंपरा ऋग्वेद से पुरानी है. 

शव का जल प्रवाह वैदिक परंपरा नहीं है. लेकिन भूमि में शव को गाड़ने के संकेत ऋग्वेद में हैं. यहां मृतक से प्रार्थना है कि आप सर्वव्यापिनी पृथ्वी माता की गोद में विराजमान हों. फिर पृथ्वी से स्तुति है कि आप कोमल वस्त्रों के स्पर्श वाली हैं. जिस तरह माता पुत्र को आंचल से ढकती है उसी तरह इसे आप सब ओर से आच्छादित करें. यहां मृतक को पृथ्वी माता की गोद में सौंपा गया है. स्तुति है, शव को आच्छादित करने वाली धरती माता हजारों रज-कण इसके ऊपर अर्पित करें. अथर्ववेद में भी अग्निदाह के साथ शव को धरती में गाड़ने के संकेत हैं. हमारे पूर्वजों का जल के साथ रागात्मक नेह रहा है. वे धरती पर प्रवाहित जल को जीवन जानते रहे हैं. वे भूगर्भ जल के प्रति सचेत रहे हैं. मेघों पर उनकी स्नेह दृष्टि रही है. अविरल जल प्रवाह वैदिक समाज की अभीप्सा रही है. पूर्वज नदी में शव प्रवाह करने की बात सोच भी नहीं सकते थे.

भारत के प्राचीन दर्शन, ज्ञान और विज्ञान आकषर्क रहे हैं. यहां की जीवनशैली में त्याग, प्रीति और संयम मर्यादा की गंध रही है. 21वीं सदी के भारत को विज्ञानसम्मत परंपरावादी होना चाहिए. पवित्र नदी गंगा में सौ से ज्यादा सड़ते, बहते शवों की ताजा घटना विचारोत्तेजक है. ऐसी ही घटनाएं इतिहास की धारा मोड़ती हैं. यह असामान्य घटना है. इस घटना ने आत्मचिंतन की नई सामग्री दी है. अब आस्था से पुनर्सवाद जरूरी है और परंपरा का पुनरीक्षण भी. गंगा सहित सभी नदियों को पुनर्नवा नवयौवन देना जनगणमन की गहन आकांक्षा है. साधु-संत और धर्माचार्य आगे आएं. गंगा-यमुना सहित सभी नदियों में शव सहित सभी प्रदूषणकारी वस्तुओं को डालने की प्रथा के विरुद्ध अभियान चलाएं. गंगा में शव डालना निर्ममता है. हम अपने प्रियजन परिजन के शव को जलीय जीव जंतुओं के हवाले कैसे कर सकते हैं! हम अपनी प्रणम्य नदियों में सड़ते-बहते शव कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं! सलिए इस पर रोक अपरिहार्य है.

हृदयनारायण दीक्षित
लेखक


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