नई पीढ़ी के सामने रामानुजन की प्रेरणा

Last Updated 22 Dec 2014 04:37:38 AM IST

आज पूरे विश्व में जब भी गणित की या गणित में योगदान की बात की जाती है तो श्रीनिवास रामानुजन का नाम प्रमुखता से लिया जाता है.


भारतीय गणितिज्ञ श्रीनिवास रामानुजन (फाइल फोटो)

विश्व स्तर पर गणित के क्षेत्र में उनका योगदान अतुलनीय है. गरीबी, सीमित संसाधनों और सरकारी लालफीताशाही के बावजूद उन्होंने अपनी विलक्षण प्रतिभा से दुनिया को चमत्कृत कर दिया. उन्होंने गणित के क्षेत्र में जो कार्य किए है, वे देश के युवाओं के लिए सदा प्रेरणा के रूप में मौजूद रहेंगे. प्राचीन समय से भारत गणितज्ञों की सरजमीं रही है. भारत में आर्यभट्ट, भास्कर, भास्कर-द्वितीय और माधव सहित दुनिया के कई मशहूर गणितज्ञ पैदा हुए.


19वीं शताब्दी और उसके बाद के कालखंड में श्रीनिवास रामानुजन, चंद्रशेखर सुब्रमण्यम और हरीश चंद्र जैसे गणितज्ञ विश्व पटल पर उभरकर सामने आए. भारत के आर्यभट्ट ने ही दुनिया को दशमलव का महत्व समझाया, लेकिन मौजूदा समय में विश्व स्तर पर गणित के मामलों में भारत काफी निचले पायदान पर पहुंच गया है. श्रीनिवास रामानुजन के जीवन चरित्र से हमारी शिक्षा व्यवस्था का खोखलापन भी उजागर होता है. 13 वर्ष की अल्पायु में रामानुजन ने अपनी गणितीय विश्लेषण की असाधारण प्रतिभा से अपने संपर्क के लोगों को चमत्कृत कर दिया, मगर भारतीय शिक्षा व्यवस्था ने उन्हें असफल घोषित कर बाहर का रास्ता दिखा दिया था.

रामानुजन की पारिवारिक पृष्ठभूमि गणित की नहीं थी. परिवार में कोई उनका मददगार भी नहीं था. ऐसे में अपनी क्षमता को दुनिया के सामने लाने हेतु रामानुजन को अत्यधिक परिश्रम करना पड़ा था. गणित के क्षेत्र में सितारे की तरह चमकने वाले श्रीनिवास रामानुजन का जन्म 22 दिसम्बर 1887 को तमिलनाडु के इरोड में हुआ था. वह पारंपरिक ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे. सन् 1897 में रामानुजन ने प्राथमिक परीक्षा में जिले में अव्वल स्थान हासिल किया. इसके बाद अपर प्राइमरी की परीक्षा में अंकगणित में सर्वोच्च अंक प्राप्त कर उन्होंने अपने अध्यापकों को चौंका दिया. सन् 1903 में रामानुजन ने दसवीं की परीक्षा पास की. इसी साल उन्होंने घन (क्यूब) और चतुर्घात समीकरण (बायाडरेटिक इक्वेशन) हल करने का सूत्र खोज निकाला. वह अपने समय का उपयोग गणित के जटिल प्रश्नों को हल करने में किया करते थे.

समय के साथ-साथ रामानुजन का गणित के प्रति रुझान बढ़ता ही गया. फलस्वरूप 12वीं की परीक्षा में गणित को छोड़कर वह अन्य सभी विषयों में फेल हो गए. दिसम्बर 1906 में रामानुजन ने स्वतंत्र परीक्षार्थी के रूप में 12वीं की परीक्षा पास करने की कोशिश की, लेकिन वे कामयाब न हो सके. इसके बाद रामानुजन ने पढ़ाई छोड़ दी. बिना डिग्री लिए ही रामानुजन को औपचारिक अध्ययन छोड़ना पड़ा. अपने अध्ययन के बल पर रामानुजन कभी भी डिग्री प्राप्त नहीं कर सके. लेकिन उनके कार्यों और योग्यता को देखते हुए ब्रिटेन ने उन्हें बीए की मानद उपाधि दी और बाद में उन्हें पीएचडी की भी उपाधि दी. यहां पर एक सवाल उठता है कि क्या यह भारत में संभव था या है, क्योंकि हमारी शिक्षा व्यवस्था ने तो रामानुजन को हर तरह से नकार ही दिया था. वह तो सिर्फ अपनी विलक्षण प्रतिभा और प्रोफेसर हार्डी जैसे मित्रों की वजह से ही विश्व पटल पर आ पाए.  

सन् 1911 में रामानुजन का \'सम प्रोपर्टीज ऑफ बारनालीज नंबर्स\' शीषर्क से प्रथम शोध पत्र जनरल ऑफ मैथमेटिक्स सोसायटी में प्रकाशित हुआ. मद्रास के इंजीनियरिंग कॉलेज के प्रोफेसर सीएलओ ग्रिफिक्स ने रामानुजन के शोध पत्र गणित विद्वानों को भिजवाए. प्रो. ग्रिफिक्स की सलाह पर रामानुजन ने 1913 में तत्कालीन विख्यात गणितज्ञ एवं ट्रिनिटी कॉलेज के फैलो प्रोफेसर हार्डी को पत्र लिखा, जिसमें 120 प्रमेय और सूत्र शामिल थे.

प्रोफेसर हार्डी इस पत्र से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने रामानुजन को कैंब्रिज आने का न्योता दे डाला. मार्च 1914 को जब रामानुजन लंदन पहुंचे तो प्रोफेसर नाबिला ने उनका स्वागत किया. जल्द ही उन्हें ट्रिनिटी कॉलेज में प्रवेश मिल गया. यहां वे प्रोफेसर लिटिलवुड के साथ मिलकर शोध कार्य में लग गए. रामानुजन ने इंग्लैंड में रहकर बहुत थोड़े ही समय में अपनी धाक जमा दी. उन्होंने प्रोफेसर हार्डी के निर्देशन में अध्ययन करते हुए गणित संबंधी अनेक स्थापनाएं दीं, जो 1914 से 1916 के मध्य विभिन्न शोध पत्रों में प्रकाशित हुई. उनके इन शोध कार्यों से सारे संसार में हलचल मच गई. उनकी योग्यता को दृष्टिगत रखते हुए 28 फरवरी 1918 को रॉयल सोसायटी ने उन्हें अपना सदस्य बना कर सम्मानित किया. इस घटना के कुछ ही समय बाद ट्रिनिटी कॉलेज ने भी उन्हें अपना फैलो चुनकर सम्मानित किया. \'हाइली कंपोजिट नंबर\' शीषर्क के अनुसंधान कार्य के आधार पर 1916 में रामानुजन को बीए की उपाधि प्रदान की गई. प्रोफेसर हार्डी की इस सदाशयता ने रामानुजन के जीवन की एक बड़ी कमी को दूर कर दिया. यह उपाधि वह चाबी थी जिसने आगे की सफलता के सभी द्वार खोल दिए थे. बाद में उसी उपाधि को पीएचडी में बदल दिया गया था. रामानुजन के शोध प्रबंध का सार जरनल ऑफ लंदन मेथेमेटीकल सोसाइटी में 50 पृष्ठ के विस्तार से छपा था. प्रोफेसर हार्डी के अनुसार तब तक किसी अन्य का ऐसा विद्वतापूर्ण पत्र उस जरनल में नहीं छपा था.

एक तो रामानुजन का दुबला-पतला शरीर, दूसरे लंदन का बेहद ठंडा मौसम, उस पर खानपान की उचित व्यवस्था का अभाव. ऐसे में रामानुजन को क्षय रोग ने घेर लिया. उस समय तक क्षय रोग का कारगर इलाज उपलब्ध नहीं था. सिर्फ आराम और समुचित डॉक्टरी देखरेख ही उन्हें बचा सकती थी. लेकिन रामानुजन की गणित की दीवानगी ने उन्हें चैन से नहीं बैठने दिया. इससे उनकी तबियत बिगड़ती गई और 27 फरवरी 1919 को उन्हें भारत लौटना पड़ा. तब तक रामानुजन का स्वास्थ्य बहुत बिगड़ चुका था. डॉक्टरों ने उन्हें पूर्ण आराम की सलाह दी. लेकिन रामानुजन भला गणित को छोड़ कर कैसे रह पाते! नतीजतन उनकी बीमारी बढ़ती चली गई और 26 अप्रैल 1920 को कावेरी नदी के तट पर स्थित कोडुमंडी गांव में 33 वर्ष की अल्पायु में उनका निधन हो गया. रामानुजन सन् 1903 से 1914 के बीच, कैंब्रिज जाने से पहले, गणित के 3542 प्रमेय लिख चुके थे. उनकी तमाम नोटबुकों को बाद में \'टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च बांबे\' (मुंबई) ने प्रकाशित किया. इन नोट्स पर इलिनाय विश्वविद्यालय के गणितज्ञ प्रोफेसर बर्ना ने 20 वर्षो तक शोध किया और अपने शोध पत्र को पांच खंडों में प्रकाशित कराया. रामानुजन की गणितीय प्रतिभा का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके निधन के लगभग 93 वर्ष व्यतीत होने जाने के बाद भी उनकी बहुत-सी प्रमेय अनसुलझी बनी हुई हैं.

वर्तमान में उच्चस्तरीय गणित के अध्ययन में छात्र बहुत कम रुचि दिखाते हैं, जबकि आज देश को बड़ी संख्या में गणितज्ञों की जरूरत है. हमें विश्वविद्यालयों में शैक्षणिक और मूल्यांकन पद्धति में सुधार लाना होगा, मेधावी छात्रों को प्रोत्साहित करना होगा, उन्हें संसाधन उपलब्ध कराने होंगे ताकि उन्हें रामानुजन जैसी कठिनाइयों का सामना न करना पड़े और वे शोध में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकें. देश एक बार फिर से गणित के क्षेत्र में दुनिया का सिरमौर बने, यही रामानुजन को सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

 

शशांक द्विवेदी
लेखक


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