पेशावर में मनुष्यता का पतन

Last Updated 21 Dec 2014 12:58:46 AM IST

पेशावर की घटना भुलाए भी नहीं भूलती. हंसते, खिलते, खिलखिलाते बच्चे. मत, पंथ और मजहब से निर्भार उन्मुक्त, निर्दोष शिशु. जो जोर से बोलने या डाटने पर ही उदास हो जाते हों, उनकी कोमल काया पर तड़तड़ गोलियां चलीं.


पेशावर में मनुष्यता का पतन

वे नहीं जानते थे कि वे पाकिस्तान में हैं या किसी अन्य मुल्क में. सरहदों से बच्चों का क्या लेना-देना! मजहब और पंथ से उनका क्या मतलब! बच्चे हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई या वामपंथी, जिहादी, तालिबानी नहीं होते. वे बस होते हैं, प्रकृति में खिलते हैं अहैतुक. वे चरम संभावना होते हैं, भविष्य के मनुष्य होने की. लेकिन जो मनुष्य नहीं हैं और पशु भी नहीं, उन आतंकियों ने रक्तपात किया. मार डाला उनको. आतंकी भी मनुष्य होते हैं संभवत:. उनकी बुद्धि का कुछ प्रतिशत भाग तो मनुष्य होता ही होगा शायद. पशु और विषधर सांप-कीट भी शिशुओं के प्रति संवेदनशील देखे गए हैं, लेकिन आतंकी बच्चों को मार रहे हैं निर्मम होकर. आधुनिक विश्व में मनुष्यता का ऐसा अध:पतन आश्चर्यजनक है.

ईश्वर आस्थालु इस टिप्पणी पर गुस्साएंगे, लेकिन इस रक्तचरित्र ने ईश्वर के होने पर प्रश्नवाचक चिह्न लगाया है. क्या अब भी कहा जा सकता है कि ईश्वर ही सर्वोच्च शासक है? बच्चे क्यों मारे गए, किस दैवी न्याय की युक्ति में ईवर विश्वासी इस घटना का औचित्य सिद्ध करेंगे! शक्तिशाली के बचने और कमजोर के खत्म हो जाने का विकासवादी सिद्धांत भी यहां लागू नहीं होता. बच्चे क्यों नहीं जी सकते! वे विश्व परिवार का ही विस्तार हैं. हमारा भविष्य, हमारा स्वप्न, हमारी अपूर्ण अभिलाषा के वाहक. हमारा यथार्थ और हमारी फैंटेसी. जिन्ना स्वर्ग में होंगे. हमारा हिंदूमन कहता है, वे कहीं न कहीं तो जरूर होंगे. रक्तरंजित शिशु-चीत्कार की आवाज उन तक पहुंची ही होगी. तड़तड़ाती क्लाशिनिकोव राइफलों की गूंज भी उन्होंने सुनी ही होगी. जिन्ना पछता रहे होंगे पाकिस्तान बनाकर. उनके सपनों के मुल्क में निर्दोषों के हत्यारों की पलटने गोलियां बरसा रही हैं. भारतीय संस्कृति और परस्पर सद्भाव वाली परंपरा छोड़कर उनका अलग बनाया मुल्क शिशुओं के रक्तपात से आहत है.

विज्ञान सृष्टि रचना का आदि तत्व/मूल तत्व या गॉड पार्टीकल खोज रहा है. समूचे ब्रह्मांड को एक इकाई जान लिया गया है. विज्ञान पंख फैलाकर उड़ा है. सृष्टि का परस्परावलंबन देख लिया गया है. मनुष्य की उम्र बढ़ाने के शोध अपने अंतिम चरण में बताए जा रहे हैं. लेकिन इस धरती का एक वर्ग, एक समूह बच्चों के रक्तपात को पौरुष पराक्रम और वीरता का प्रतिमान समझ रहा है. विश्व विज्ञान के सामने ऐसे मनोरोग को खोजने की चुनौती है. वैसे सभी नशे खतरनाक हैं. सब विक्षिप्त करते हैं- तंबाकू, शराब, एलएसडी या ऐसे ही अन्य रासायनिक तत्व, लेकिन अंधविश्वास का नशा शरीर में गहन रासायनिक परिवर्तन लाता है. वे बच्चों को मारकर मजहब मजबूत करते हैं. वे वृद्धों, असहायों, बाजार में खड़े निर्दोषों पर बम फोड़ते हैं. उन पर, जिनसे उनका कोई झगड़ा नहीं. वे स्वयं को मार देते हैं. किसी अज्ञात सुख की लालसा में. क्या वे अपराधी ही हैं? बेशक कानून की दृष्टि में वे अपराधी हैं और दंडनीय हैं, लेकिन क्या उन्हें मिलने वाला दंड पर्याप्त होता है? नहीं. बिल्कुल नहीं.

दुनिया की किसी भी विधायी संस्था ने निर्दोष बच्चों को गोलियों से भूनने वाले अपराध पर पृथक विचार नहीं किया. विचार हो भी नहीं सकता था. ऐसे जघन्य अपराध के बारे में कोई खांटी और पेशेवर अपराधी भी नहीं सोच सकता. लेकिन ऐसा हुआ. 21वीं सदी में हुआ. पाकिस्तान में एक सरकार और सैन्यबलों की मौजूदगी के बावजूद हुआ. संयुक्त राष्ट्र जैसी विश्व संस्थाओं के बावजूद हुआ. हजारों धर्मोपदेशकों, मौलवियों और पादरियों के उपदेशों के बावजूद हुआ. क्या धर्म, मत, पंथ या मजहब मनुष्यता को आच्छादित नहीं करते? क्या विधि व्यवस्था की संस्थाएं रूग्ण हैं? क्या हाब्स, लाक या रूसो के सामाजिक अनुबंध सिद्धांत असफल हो गए हैं? क्या किसी नई सामाजिक व्यवस्था की जरूरत है? क्या पाक सरकार अपना काम ठीक से कर सकती है? मन प्रश्नाकुल है. बेचैनी बड़ी है. आखिरकार आतंकवाद से मुक्ति का ठोस उपाय क्या है?

हृदयनारायण दीक्षित
लेखक


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