अपने ही हथियार से लहूलुहान पाक

Last Updated 18 Dec 2014 04:51:11 AM IST

पेशावर के एक स्कूल पर तालिबानी हमले में 132 मासूम बच्चों की निर्मम हत्या ने दुनिया को दहला दिया है.


अपने ही हथियार से लहूलुहान पाक

कुछ बरस पहले चेचेन्या में एक स्कूल के बच्चों को बंधक बना दहशतगर्दों ने सुर्खियों में जगह पाने की कोशिश की थी. दुर्भाग्य यह है कि सदमे से संभलने के बाद कुछ ही दिनों में यह दर्दनाक वारदात धुंधलाने लगेगी और मजहबी कट्टरपंथ का कोई दूसरा ‘पाशविक’ उदाहरण चर्चा का विषय बन चुका होगा. हमारे लिए यह कहना आसान है कि पाकिस्तान ने जो जहरीली फसल बोई है उसी को वह इस वक्त काटने को मजबूर है, पर हकीकत यह है कि यह मुद्दा सिर्फ  पड़ोसी के मातम में साझेदारी का, संवेदना-सहानुभूति प्रकट करने का नहीं. यह खतरनाक लावा बह कर सरहद पार आता रहा है या यों कहिए भेजा जाता रहा है और इस ‘रणनीति’ में निकट भविष्य में कोई बदलाव आने की उम्मीद नहीं. अत: भारत में हमारे लिए यह समझना बेहद जरूरी है कि तालिबानी संकट सिर्फ  पाकिस्तान का सिरदर्द नहीं है.

यह कहने का कोई तुक नहीं कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, यह मानवता के खिलाफ जघन्य अपराध है और इसके विरुद्ध पूरे वि को एकजुट होकर लड़ने की जरूरत है, इसके बिना काम नहीं चल सकता वगैरह. इस घटना के एक-दो दिन पहले ही सिडनी वाली वारदात निबटाई गई थी. इसका सामना ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने जैसे किया, उससे कुछ सबक सीखने की जरूरत है. हर देश और सरकार अपने तरीके से जिहादी-जुनूनी हमलों का मुकाबला करता है और करता रहेगा. संयुक्त मोर्चाबंदी की बात बेकार है. और तो और खुफिया सूचनाओं का आदान-प्रदान भी फिलहाल दुष्कर-दुर्लभ है. ऑस्ट्रेलिया का प्रयास यह रहा है कि इस वारदात को किसी संप्रदाय-मजहब के साथ न जोड़कर एक सिरफिरे सीरियल अपराधी की मानसिक विकृति का नतीजा पेश किया जा सके. इन्हीं दिनों भारत में एक नौजवान ‘टेकी’ को इंटरनेट के जरिए इस्लामी सल्तनत के पक्ष में ट्वीट करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है.

यह भी न भूलें कि हाल में इराक-सीरिया के इस्लामी कट्टरपंथियों के कब्जे वाले भू-भाग में गोरे अमेरिकी तथा बर्तानवी बंधकों के सिर काटने की खबरें मिलती रही हैं. जिन देशों के नागरिक हलाक हुए हैं, वे इस बात से चिंतित हैं कि हत्यारे जल्लाद भले ही नकाबपोश दिखलाई दिए हैं, लेकिन उनकी भाषा-बोली से यह संकेत मिले हैं कि वे खुद अमेरिकी या अंग्रेज हैं. अर्थात यह सुझाना निर्थक है कि इंटरनेट पर किसी जिहादी विचारधारा के (महज!) प्रचार या इसके प्रति सहानुभूति की अपने विचारों की अभिव्यक्ति को निर्दोष समझा जा सकता है. मध्य-पूर्व में जिस तरह की सांप्रदायिक हिंसा को पश्चिमी देश अपने संकीर्ण सामरिक हितों के मद्देनजर अनदेखा करते रहे हैं, यह उसी का नतीजा है कि मासूम बच्चे तक आज अवध्य नहीं समझे जाते.

पेशावर के इस हत्याकांड पर टिप्पणी करते जनरल मसूद ने कबूल किया कि तालिबान रक्तबीज राक्षसों के जन्मदाता अमेरिकी हैं- उन्होंने पहले अफगानिस्तान से सोवियत साम्यवादियों को खदेड़ने के लिए और बाद में इस मोर्चे पर अपने पैर पसारने के लिए पाकिस्तान को पौधशाला बनाया. पर जिस सवाल का सामना करने से यह जनरल और तमाम पाकिस्तानी कतराते हैं वह यह है कि क्यों इस बात का पता चलने के बाद भी पाकिस्तानी फौज और जनता द्वारा निर्वाचित नागरिक सरकारें उग्रवादी इस्लामी तत्वों पर अंकुश लगाने में असमर्थ रहे हैं? जाहिर है कि सभी का लालच ‘जियो और जीने दो’ वाला आसान रास्ता अपनाने का रहा है. जनरल जिया के शासनकाल में पाकिस्तानी समाज का जिस तरह दकियानूसी इस्लामीकरण हुआ, उसके प्रति आंखें नहीं मूंदी जा सकतीं. ठीकरा अकेले अमेरिका के सिर फोड़ना भी गलत है.

पंजाबी-पठान तबके द्वारा सिंधियों, बलूचों, कबाइलियों का उत्पीड़न भी नई बात नहीं है. निरंतर यह दोहराने का कोई तुक नहीं कि यह विभाजन औपनिवेशिक राज की विरासत है. पेशावर के हमले को अंजाम देने वाले तहरीके तालिबान का कहना है कि यह करतूत प्रतिशोध की कार्रवाई है. पाकिस्तानी फौज ने उत्तरी वजीरिस्तान में जिस तरह निर्दोष नागरिकों को निशाना बनाया है, उसी के जवाब में अब पाकिस्तानी परिवारों को संतान गंवाने का दुख-दंड दिया जा रहा है!

हम इस घड़ी यहां शोक-संतप्त पाकिस्तान की गलतियों-दोहरे मानदंडों का जिक्र नहीं करना चाहते. कुछ समय बाद यह सब विस्तार से किया जा सकता है. पर जो अमेरिका और पश्चिमी मीडिया मानवाधिकारों के नाम पर कोहराम मचाए रखता है, वजीरिस्तान या बलूचिस्तान में पाकिस्तानी फौज की कार्रवाई के बारे में उसकी चुप्पी नाकाबिले बर्दाश्त ही कही जानी चाहिए. एक बात और. इन्हीं दिनों यह समाचार भी पढ़ने-सुनने को मिला है कि सीआईए द्वारा हिरासत में लिए जिहादी दहशतगर्दों को पूछताछ के दौरान दी जाने वाली यंतण्रा को बहुसंख्यक अमेरिकी जायज और जरूरी समझते हैं. दूसरे शब्दों में ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ वाला शात सत्य बारंबार सामने आ रहा है.

दुनिया भर में पाशविक दहशतगर्दी की वारदातों की बाढ़ धर्मनिरपेक्ष नहीं है. वहाबी इस्लाम के अति उग्र हिंसक और आक्रामक अवतार के संक्रमण से ये अनिवार्यत: जुड़ी हैं. मानसिक रूप से असंतुलित हों या ‘अबोध’ किशोर, इनको आत्मघाती दस्तों का रंगरूट बनाने वाली मुहिम को धूर्तता से अंजाम देने वाले तत्वों को संरक्षण प्रदान करने वाली मानवाधिकारी ढाल यूरोपीय समुदाय की वैधानिक व्यवस्था करती है, तो कहीं हमारी अपनी छद्म धर्मनिरपेक्षता गले में फांसी का फंदा बनती है. फिलिस्तीनी क्षेत्र में आत्मरक्षा के नाम पर किए गये निर्मम इस्रइली हमलों में कितने मासूम बच्चे अब तक हलाक हुए हैं, इसकी गिनती किसने कब की है? हां, फिलिस्तीनी दहशतगर्दों ने जिन निरपराध यहूदी किशोरों को बंधक बनाने के बाद मारा है, उनके बारे में तमाम जानकारी पश्चिमी मीडिया देता रहता है- ‘ताकि सनद रहे’ वाले अंदाज में!

बहरहाल, पेशावर के इस हमले के बाद इमरान खान के लिए तालिबान की हिमायत-हमदर्दी गले की फांस बन जाएगी. न ही नवाज शरीफ के लिए यह कहना काफी होगा कि इस तरह के कायराना हमले का मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा. पाकिस्तान की फौज की लाचारी की यह एक और शर्मनाक मिसाल है. पाकिस्तानी संप्रभुता की रक्षा करने में पूरी तरह असमर्थ रही यह परजीवी सेना सिर्फ  सरहद पार के दुश्मन भारत की तरफ उंगली उठा दांत पीस सकती है.

अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए वह किसी भी दुस्साहसिक हरकत को अंजाम दे सकती है. परस्पर भरोसा बढ़ाने वाले एकतरफा संवाद का वक्त अभी दूर है. समझदारी इसी में है कि हम हाफिज सईद या दाऊद इब्राहिम में ही ना उलझें रहें. बुरी तरह असफल राज्य पाकिस्तान की तरफ से हर तरह के हमले -प्रत्यक्ष या परोक्ष- के प्रति सतर्क रहें. पेशावर का दोहराव दुनिया भर में कहीं भी और कभी भी हो सकता है.
(लेखक अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं)

पुष्पेश पंत
लेखक


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