नदियों को जोड़ना नहीं कारगर समाधान

Last Updated 29 Nov 2014 04:06:22 AM IST

सन 2015-16 जल संरक्षण वर्ष होगा. इस वर्ष के दौरान 'हमारा जिला: हमारा जल' नारे को लेकर जल संसाधन, नदी विकास एवम गंगा सरंक्षण मंत्रालय, हर जिले में पहुंचेगा.


नदियों को जोड़ना नहीं कारगर समाधान (फाइल फोटो)

प्रत्येक जिले में पानी की दृष्टि से संकटग्रस्त एक गांव को \'जलग्राम\' के रूप में चुनकर जल संकट से मुक्त किया जायेगा. भारत जल सप्ताह के सालाना आयोजन की अगली तारीखें 13 से 17 जनवरी, 2015 तय की गयी हैं. इन तारीखों तक मंत्रालय जलग्राम की सूची तैयार कर लेगा. प्रत्येक जिले की जल संरचनाओं को चिह्नित करने का काम भी तब तक पूरा हो जायेगा. मंत्रालय चाहता है कि देश का कोई प्रखंड ऐसा न छूट जाए, जिसके बारे में ज्ञात न हो कि उसमें कितनी जल संरचनाएं, कहां और किस स्थिति में हैं. इस समूची तैयारी के लिए सरकार बहुत रफ्तार में काम कर रही है केन्द्रीय जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्री उमा भारती ने \'जल मंथन\' कार्यक्रम के दौरान ये घोषणाएं की. उक्त घोषणाएं बेशक उम्मीद जगाने वाली थीं किंतु उन्होंने जिन गैर सरकारी संगठनों से \'नदी जोड़ परियोजना\' पर न सहमति ली और न उन्हें \'जल मंथन\' के दूसरे दिन आयोजित चर्चा में शामिल करना जरूरी समझा, उनसे तीसरे दिन ऐसी अपेक्षा थी गोया गैर सरकारी संगठन \'नदी जोड़ परियोजना\' की पीआर एजेंसी हों.

सच पूछें, तो नदी जोड़ पर असल चर्चा सिर्फ और सिर्फ केन्द्र और राज्यों के संबंधित अधिकारियों और मंत्रियों के बीच ही हुई. चर्चा का असल उद्देश्य भी नदी जोड़ परियोजनाओं को लेकर केन्द्र और राज्य सरकारों में सहमति बनाना ही था. बकौल उमा भारती, राज्यों द्वारा कुछ आंशकायें जताई गईं हैं. उनके निराकरण तथा कुछ सावधानियों के मंत्रालयी आासन के बाद दो-एक राज्यों को छोड़कर सभी नदी जोड़ने हेतु सहमत हैं. हो सकता है, यह सच हो किंतु प्रश्न यह है कि क्या वे किसान और ग्रामीण सहमत हैं, जिनके खेतों को सींचने और पेयजल मुहैया कराने की ओट में इस कृत्य को अंजाम देने की कोशिश की जा रही है?

सवाल है कि नदी जोड़ परियोजना आगे बढ़ाने से पहले भाजपानीत सरकार को क्या किसानों से नहीं पूछना नहीं चाहिए कि वे इस परियोजना के पक्ष में हैं अथवा नहीं? क्या यह जानने की कोशिश नहीं होनी चाहिए कि भारतीय कृषि नहरी सिंचाई के पक्ष में है या भूजल सिंचाई के? भारत, व्यापक भू सांस्कृतिक विविधता वाला देश है. यहां हर इलाके में सिंचाई और पेयजल उपलब्धता सुनिश्चित करने हेतु एक जैसी तकनीक अथवा माध्यम अनुकूल नहीं कहे जा सकते. ऐसे देश में हर इलाके के किसान व खेती के जवाब भिन्न हो सकते हैं. जन सहमति बनाये बगैर नदी जोड़ परियोजना को आगे बढ़ाना, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में तंत्र द्वारा लोक की अनदेखी नहीं तो और क्या मानी जाए? उस पर विरोधाभास यह कि जल संसाधन मंत्री ने उन प्रयासों की तारीफ की, जिनसे सूखी नदियां पानीदार हुईं हैं.

गौरतलब है कि जल संसाधन मंत्री ने उत्तराखंड के जगतसिंह जंगली, सच्चिदानंद भारती और गुजरात के मनसुख भाई पटेल के काम को सराहा. राजस्थान की सूखी नदी के सदानीरा होने का भी एक पंक्ति में जिक्र किया. मनसुख भाई पटेल का काम, खारे पानी के इलाके में मीठे पानी के इंतजाम की स्वयंसेवी व स्वावलंबी काम की दास्तान है. जगतसिंह \'जंगली\' ने छोटे से पहाड़ को अकेले जुनून के दम पर हरा-भरा कर दिखाया है. जंगल लगाने के जुनून ने ही उन्हें \'जंगली\' उपनाम दिया है. पौड़ी गढ़वाल के उफैरखाल इलाके में सच्चिदानंद भारती का काम गवाह है कि यदि समाज चाहे तो, अपने पानी का इंतजाम खुद कर सकता है. यह प्रयास इसका भी गवाह है कि छोटी-छोटी जलसंचनाओं का संजाल, सूख गई नदी को जिंदा कर सकता है. पंजाब में बाबा बलबीर सिंह सींचवाल द्वारा कालीबेंई नदी की प्रदूषण मुक्ति का प्रयास, कारसेवा के करिश्मे को सिद्व करता है. राजस्थान के अलवर, जयपुर और करौली जिले में तरुण भारत संघ के साथ मिलकर ग्रामीणों द्वारा किए गये संगठित प्रयास, सात छोटी-छोटी नदियों के सदानीरा बनने की कहानी कहते हैं. एक ओर स्थानीय प्रयास से नदियों के पुनर्जीवन के प्रयासों की तारीफ करना और यह मानना कि जल संरक्षण के स्थानीय प्रयासों से देश के कम वर्षा वाले भूभाग में भी नदियों को पुनर्जीवित किया जा सकता है, वहीं कम पानी की उपलब्धता वाले इलाके में विकल्प के रूप में दूसरे इलाके की नदियों को खींचकर लाने की योजना विरोधाभासी स्थिति है.

सैद्धांतिक प्रश्न यह है कि यदि जल संरक्षण के छोटे-छोटे काम करके नदियों को पानीदार बनाना संभव है और सरकार को ये प्रयास प्रेरक और दोहराये जाने लायक लगते हैं, तो नदियों को जोङ़ने की जरूरत ही कहां रहती है? पिछले एक दशक के दौरान कई वैज्ञानिक अध्ययनों से सिद्ध हो चुका है कि नदी जोड़ परियोजना बड़े पैमाने पर कर्ज और भौगोलिक बिगाड़ वाली साबित होगी. इसके व्यावहारिक अनुभवों को देखते हुए ही दुनिया के कई देशों ने इससे तौबा की है. भारत सरकार अब तक ऐसा एक भी अध्ययन नहीं पेश कर सकी है, जो कहता हो कि \'नदी जोड़ परियोजना\' लाभ की तुलना में कम नुकसानदेह सिद्ध होगी. हकीकत में यह परियोजना लाभ की तुलना में कई गुना नुकसान करेगी और उसकी भरपाई कई पीढ़िया भी नहीं कर सकेंगी.

\'जल मंथन\' के दौरान जल संसाधन मंत्री ने कहा कि जो संस्तुतियां आप देंगे, मंत्रालय भारत जल सप्ताह-2015 से उन पर अमल शुरू कर देगा. गंगा मंथन के दौरान भी नदी जोड़, बांध और बैराजों को लेकर नीति तय करने की मांग उठी थी. इलाहाबाद से हल्दिया तक जल परिवहन के लिए गंगा में प्रस्तावित बैराजों को लेकर बिहार के गैर सरकारी संगठनों और राज्य के मुख्यमंत्री ने सरकार को अलग से आगाह किया है. \'जल मंथन\' के दौरान नदी पुनर्जीवन से जुड़े समूह की रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए आशीष गौतम ने स्पष्ट संकेत दिया कि जल प्रवाहों को मर्जी के मुताबिक ढोकर ले जाना भारतीय संस्कृति नहीं है. क्या मंत्रालय ऐसी राय मानेगा अथवा जिन संस्तुतियों को अपने अनुकूल समझेगा, उन्हे ही दर्ज करेगा?  हालांकि, नदियां किसी एक धर्म या वर्ग का विषय नहीं है. नदियों के साथ मर्यादित व्यवहार का दायित्व प्रत्येक प्राणी का कर्त्तव्य है. अत: सरकार को निर्णय लेना होगा कि वह मुनाफाखोर निवेशकों के पक्ष में कार्य करेगी अथवा मातृ सरीखी नदियों के पक्ष में? सरकार नदी किनारे निवेश बढ़ाने का काम करना चाहती है अथवा नदी में प्रवाह बढ़ाने का कार्य? वह पानी का बाजार बढ़ाना चाहती हैं अथवा भू-भंडार? इन सवालों का जवाब तलाशने में यदि देरी अथवा कोताही बरती गई, तो तय मानिए \'जलग्राम\' जैसे अच्छे विचारों और कार्यों की कीर्ति भी एक दिन नष्ट हो जाएगी.

 

अरुण तिवारी
लेखक


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