हंसी की कमी

Last Updated 23 Nov 2014 04:21:40 AM IST

टीवी पत्रकारों ने मुलायम सिंह यादव के जन्मदिन समारोह की चकाचौंध को देखकर जब आजम खान साहब से पूछा कि इतना खर्चा किया गया है.


हंसी की कमी

यह पैसा कहां से आया, तो आजम खान ने व्यंग्य में जवाब दिया कि तालिबान से आया है, कुछ दाऊद से आया है, कुछ अबू सलेम ने दिया है!
एक को छोड़ अन्य किसी पत्रकार ने इस व्यंग्य और उसके मर्म को नहीं समझा. जिसने समझा वह समझकर भी उस तंज पर नहीं हंसा. वह कहने लगा कि आप व्यंग्य में कह रहे हैं! यानी उसने भी इस व्यंग्य का मजा नहीं लिया. अगर पत्रकार आजम खान की टिप्पणी पर हंस पड़ते तो क्या अनर्थ हो जाता! क्या खबर बिगड़ जाती! शायद नहीं. लेकिन कई पत्रकार इसका मजा न ले सके. वे वही खोजते रहे जिसे सोच के वे निकले होंगे. यानी कि इस कदर साजसज्जा है, चकाचौंध है, एक समाजवादी नेताजी बग्घी में बैठे हैं, यही अपने आप में उपहास की बात है, इसी से समाजवादी पार्टी के विचार और व्यवहार के बीच का अंतर्विरोध प्रकट होता है! इसलिए खबर यही बननी है कि यह कैसी ‘विडंबना’ है कि बात गरीबों की करते हैं, जबकि जन्मदिन पर करोड़ों खर्च करते हैं!

कहने की जरूरत नहीं कि मीडिया की बहसें इस ‘विडंबना’ से आगे ही नहीं बढ़ीं. और यही मुद्दा मीडिया में प्रमुखता से उभारा गया कि समाजवादी इतने खर्चीले, इतने दिखावापसंद क्यों हो गए हैं, इतना पैसा कहां से आया, दाल में जरूर कुछ काला होगा! और आजम खान ने इसे शक-शुबहे की राजनीति को बीच में ही पंक्चर कर दिया जब उन्होंने कह दिया कि कुछ तालिबान से आया है, कुछ दाऊद ने दिया है, कुछ अबू सलेम ने दिया है. सच यह है कि इसे सुनने के बाद पत्रकारों के पास पूछने को कुछ रह भी नहीं गया.

लेकिन उनसे इस पर हंसा भी नहीं गया! यह उनके ठस्स होते जाने को बताता है. इससे मीडिया ‘ठस्स पन’ का शिकार होता है. इसका कारण है कि मीडिया का अपना कामकाजी वातावरण और राजनीति की खबर बनाने का  वातावरण स्वस्थ नहीं है. जाहिर है कि पत्रकार अपनी बोर परिस्थतियों के शिकार हो रहे हैं कि हंसी के सहज प्रसंगों पर हंसने की क्षमता तक खोते जा रहे हैं. वे आजम खान की व्यंग्यात्मक गुगली को नहीं समझ सके. उन्होंने उन आरोपों को पहले ही पकड़कर उनका जवाब दे दिया जो बार-बार पूछे जा सकते थे. इस व्यंग्य में जबर्दस्त ताकत थी. पत्रकारों के ऐसे ठस्स पन के कई कारण कहे जा सकते हैं.

पहला कारण शायद यही है कि पत्रकार जिस माहौल में काम करते हैं उसमें हंसी-मजाक की जगह शायद बची नहीं है. हर आदमी तनाव में रहता है. शायद काम की बदहवासी उसे हंसने का अवकाश नहीं देती. उनके काम करने की जगह में हंसना शायद मना है. उनकी ट्रेनिंग में तो हंसना होता ही नहीं है. उन्हें अपने कामकाज में हंसने की फुर्सत नहीं मिलती है. कामकाज की जगह में अतिरिक्त तनाव है, कंपटीशन से ज्यादा बदलाखोरी, एक-दूसरे की टांग खिचाई है और बॉस का डंडा है. अपनी खीझ को निकालने की जगह ही नहीं बची है. ऐसे में जब हंसने की बात होगी तो हंसा न जा सकेगा.

इसका कारण शायद यह भी है कि हमारी राजनीति ने अपना चेहरा व्यर्थ में अति गंभीर बना रखा है. सत्ताजन्य बदहवासी ने राजनेता को रौब-रुतबेदार, कटखना और डरावना बना रखा है. ताकत का ऐसा मद है कि आदमी की आखें तक हंसना भूल गई हैं. उन्हें देख-देखकर उनकी सोहबत में पत्रकार की आंखें भी हंसना भूल गई हैं. हर बात को इस कदर गंभीरता और सनसनीखेज तरीके से लिया-दिया जाता है कि उसका तुच्छ भाव छिप जाता है.

इसे हम पोल-खोलू खबरों से समझ सकते हैं कि पोल खोली जाती है और पोल पर बहस की जाती है, लेकिन पोल पर हंसा नहीं जाता. जिसकी पोल खुली है उसकी मूर्खता पर हंसा नहीं जाता. अगर अपराधी पर हंसा जाए तो अपराधी कहीं मुंह तक दिखाने लायक न रहे. कई चैनल मोदी के बाद के समय की राजनीति और नेताओं को लेकर कुछ काटरून बनाकर दिखाते हैं. वे भी हास्य उत्पन्न नहीं करते बल्कि उनके कच्चेपन पर हंसी आने लगती है.

हमारी राजनीति में से हंसी किस कदर बाहर हो गई है इसका एक उदाहरण राहुल गांधी का वह नया वक्तव्य है जिसमें राहुल ने पहली बार एक सच बोला, लेकिन जिस तरह से बोला वह उल्टी मार करने वाला बन गया और उसमें इतना अधिक कच्चापन रहा कि आप राहुल पर ही हंस सकते थे. राहुल ने कहा कि आजकल नाराज लोग देश को चला रहे है. लेकिन राहुल जी को नमन कि नाराजी की निंदा करने वाले इस वाक्य को राहुल उतने ही नाराज सुर में बोले. नाराजी की बराबरी करके नाराजी को खत्म नहीं किया जा सकता. 

हंसी की भाषा अलग होती है. वह पत्रकारिता में नहीं सिखाई जाती. जिसके पास हंसी की भाषा ही नहीं वह उसे पहचाने कैसे! अंग्रेजी की हंसी हिंदी की हंसी से अलग होती है, इसलिए हिंदी में कहे वाक्य का हास्य अंग्रेजी में समझा भी कैसे जा सकता है. एक बार अटलजी ने पत्रकारों से कहा कि ‘घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या’. अंग्रेजी वाले इस मुहावरे को समझ नहीं सके और जब अनुवाद किया तो उसका मजा ही खत्म हो गया.

हंसी की कमी का एक कारण शायद हमारे राजनीतिक विमर्श की बदलाखोर भाषा है जो हल्के-फुल्के क्षणों को बनने ही नहीं देती. हमारी भाषा सपाट, कड़वी और कटखनी बन चली है. नेताजी की बग्घी की सवारी अपने आप में एक चुटकुले की तरह बन रही थी, उसमें पैसा कहां से आया जैसा खल्वाट सवाल पत्रकारिता की कल्पनाहीनता का नमूना था. इसीलिए आजम खान का तंज पत्रकारिता पर भारी पड़ा.

सुधीश पचौरी
लेखक


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