आसान नहीं है मस्तिष्क की थाह पाना

Last Updated 23 Oct 2014 04:16:09 AM IST

विज्ञान के सामने इंसानी दिमाग को समझना एक बड़ी चुनौती है.


मस्तिष्क की थाह पाना आसान नहीं (फाइल फोटो)

वैज्ञानिकों के लिए यह सवाल जटिल गुत्थी की तरह है कि मनुष्य के अंदर जन्मजात रूप से जो ज्ञान मौजूद होता है, दुनिया के कंप्यूटर उसकी बराबरी क्यों नहीं कर पाते हैं. पर इन सवालों के हल अब मिलते लग रहे हैं. खास तौर से इस वर्ष चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार जिन वैज्ञानिकों को दिया गया है, उनके प्रयोगों से इस दिशा में बड़ी कामयाबी की उम्मीद जगी है.

ब्रिटश-अमेरिकी साइंटिस्ट जॉन ओ. कीफ और नॉर्वे के वैज्ञानिक दंपत्ति एडवर्ड मेजर व उनकी पत्नी मे-ब्रिट मेजर को यह नोबेल दिमाग में मौजूद उस जगह की खोज के लिए मिला है जो ग्लोबल पॉजिशिंनिग सिस्टम (जीपीएस) की तरह किसी स्थान का नक्शा तैयार कर उसकी पहचान सुनिश्चित करने में मदद करता है. इन्होंने चूहों के दिमाग के खास हिस्से में मौजूद एक नई कोशिका का पता लगाया है जो अपनी सक्रियता से जगहों के नक्शे बनाती चलती है और जरूरत पड़ने पर जीपीएस की तरह काम करते हुए जगहों की पहचान सुनिश्चित करती है. यह खोज अल्झाइमर जैसे दिमागी रोगों के इलाज में मददगार साबित हो सकती है.

इंसानी दिमाग को पढ़ने-समझने की यह अकेली कोशिश नहीं है. कृत्रिम दिमाग को हमारे विज्ञान जगत ने बड़ी चुनौती के रूप में स्वीकार किया है. पिछले साल ऐसी एक पहल अमेरिका में हुई थी. राष्ट्रपति बराक ओबामा ने दस करोड़ डॉलर का जो ब्रेन मैपिंग प्रोजेक्ट लॉन्च किया था उसका मूल उद्देश्य मानव मस्तिष्क की अंदरूनी संरचनाओं को समझना और दिमागी जटिलताओं को दूर करने के उपाय खोजना है. हालांकि प्रोजेक्ट लॉन्च करते समय ओबामा ने अलग तरह की बात भी कही थी. ब्रेन रिसर्च थ्रू अडवांसिंग इनोवेटिव न्यूरोटेक्नोलॉजीज के जरिये दिमाग को पढ़ने की इस कोशिश का एक कारण उन्होंने रोजगारों पर भारतीय और चीनियों का दबदबा खत्म करना बताया था. उन्होंने कहा था कि जब पूरी दुनिया में अवसरों को लेकर होड़ मची हो, तो अमेरिकियों के हित में यही होगा कि वे मौके हाथ से निकलने न दें. लेकिन उनका मूल आशय इस ओर था कि रोजगार पैदा करने वाली खोजें अमेरिका में हों न कि भारत, चीन या जर्मनी में.

बहरहाल, ओबामा ने बेशक इस पहल को रोजगार सृजन के संदर्भ देखा है पर साइंटिस्टों के लिए बड़ी चुनौती यह गुत्थी सुलझाना है कि इंसानी दिमाग कैसे काम करता है और हम कैसे सोचते हैं! हम नई-नई बातें कैसे सीखते हैं और चीजों को कैसे याद रख पाते हैं, ये ऐसे सवाल हैं जिन्हें बूझा जाना है. यही वजह है कि विज्ञान जगत में मानव मस्तिष्क को खंगालने के अनेक प्रयास चल रहे हैं. जैसे, पिछले साल फरवरी में ऑस्ट्रिया और ब्रिटेन के साइंटिस्टों की टीम ने मैसाच्युसेट्स में अमेरिकन एसोसिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ साइंस की बैठक में मानव मस्तिष्क का नक्शे जारी किये. इनके माध्यम से यह समझने की कोशिश की गई है कि आखिर क्यों कुछ लोग अधिक वैज्ञानिक सोच वाले, संगीत के रसिक या कलाप्रेमी होते हैं. ये थ्री-डी नक्शे करीब 50 बुद्धिमान लोगों के मस्तिष्क की स्कैनिंग करके दिमाग की बारीक नसों में मौजूद तरल का पीछा करते हुए तैयार किए गए थे.

परियोजना से जुड़े मुख्य वैज्ञानिकों में से एक प्रो. वैन वीडीन ने दिमाग के स्कैन चित्रों के आधार पर आकलन का प्रयास किया कि मनुष्य का दिमाग कैसे काम करता है और तब क्या होता है जब लोगों के सोचने-समझने की क्षमता में गड़बड़ी हो जाती है. गड़बड़ी से आशय ढेरों मनोचिकित्सकीय समस्याओं से है. प्रो. वीडीन के अनुसार यह आश्चर्य का विषय है कि ये मनोचिकित्सकीय समस्याएं सदियों से इंसान के सामने मौजूद हैं लेकिन उन्हें समझने के हमारे तौर-तरीके सौ साल से वहीं के वहीं हैं. प्रो. वीडीन के मुताबिक, जिस तरह दिल की स्कैनिंग कर डॉक्टर बता देते हैं कि मरीज के दिल में कहां और क्या समस्या है व उसका निदान क्या है, उसी तरह दिमाग की थ्री-डी तस्वीरों के आधार पर डॉक्टर सलाह दे सकेंगे कि किसे क्या करना है!

विज्ञानियों के अनुसार मनुष्य के दिमाग की वायरिंग का डायग्राम इलेक्ट्रॉनिक यंत्रों की वायरिंग से अलग होता है. इसकी वजह यह है कि मनुष्य के हर अनुभव के साथ इसकी संरचना बदल जाती है. यह संरचना एक तरह से इस चीज का तैयार नक्शा होती है कि उस मनुष्य ने क्या और कैसे किया है, जिसके दिमाग की वह संरचना है. इस तरह की परियोजनाओं के बारे में ऑक्सफोर्ड विविद्यालय के डॉ. टीम बेन्हंस का मत है कि इनसे यह स्पष्ट हो सकेगा कि क्या वाकई अलग-अलग तरह के मनुष्यों के दिमाग भी अलग-अलग तरह के होते हैं. हालांकि यह बात साइंटिस्ट पहले से जानते हैं कि मनुष्य के दिमाग के हिस्सों के आपस में कनेक्शन अलग-अलग तरह के मनुष्यों में अलग-अलग होते हैं. अगर इन्हें समझा जा सका, तो उससे पता चल जाएगा कि क्यों कुछ लोग जान-बूझकर कोई मुसीबत मोल ले लेते हैं जबकि कुछ विपरीत हालात में भी संभल कर चलना जानते हैं. इसी तरह यह भी पता चल सकेगा कि क्यों कुछ लोग घोर निराशावादी होते हैं जबकि कुछ बेहद निराशा में भी आशावाद की लौ जलाए रखना जानते हैं.

समाज और विज्ञान, दोनों के नजरिये से मानव मस्तिष्क की थाह लेने और दिमागी संरचनाओं को समझ लेने वाली इन कोशिशों के बड़े अर्थ हैं. अब तक साइंस की ज्यादातर तरक्की मशीनों के रूप में हुई है. मशीन और इंसान में मौलिक अंतर यह है कि अगर मशीन हमारी तरह विचार-क्षमता से लैस होतीं, तो इंसानों को अपना दास बना चुकी होतीं, जैसा हॉलीवुड की कई फिल्मों में दिखाया जा चुका है. ध्यान रहे कि तमाम वैज्ञानिक प्रगति मानव मस्तिष्क की ही एक देन है. इंसानी दिमाग हर वक्त सूचनाएं बटोरता रहता है, उनकी पड़ताल करता है, स्टोर करता है और चुपचाप हमारे लिए चेतना और यथार्थ का संसार रचता जाता है.

साइंटिस्ट तो यह भी कहते हैं कि हमारे 10 खरब ब्रेन सेल्स जिस काम में लगे रहते हैं, उनके 90 फीसद हिस्से की सक्रियता तो अवचेतन में होती है इसीलिए हमारे सचेत मन को इसका पता नहीं होता, उससे बाकी दिमाग सलाह लेता ही नहीं है. पर कई बार अवचेतन में जमा यही जानकारियां दिमाग के खेल को एक झटके से नया मोड़ दे देती हैं. शायद इसीलिए कहा जाता रहा है कि मानव सभ्यता के लिए सदियों से जो रहस्य अनसुलझे रहे हैं, उनमें से एक से उसका सबसे करीबी रिश्ता है. वह है इंसान का अपना दिमाग, जिसके कोनों में असंख्य गुत्थियां अनसुलझी पड़ी हैं. यह अपने आप में एक करिश्मा ही है कि जो काम आज के ताकतवर कंप्यूटर नहीं कर पाते हैं, वह सब इंसानी दिमाग कुछ पलों में कर डालते हैं. ऐसे में जब मानव मस्तिष्क को कायदे से पढ़ और समझ लिया जाएगा, तो हम कह सकते हैं कि खुद इंसान के सारे रहस्यों को बूझ लिया जाएगा.

अभिषेक कुमार सिंह
लेखक


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