शक्ति पर्व की सार्थकता पर खड़े सवाल

Last Updated 02 Oct 2014 12:42:17 AM IST

दुर्गापूजा का पर्व स्त्री के सम्मान, सामर्थ्य और स्वाभिमान की सार्वजनिक स्वीकृति का पर्व है.


शक्ति पर्व की सार्थकता पर खड़े सवाल

ऐसे में घरेलू हिंसा के बढ़ते मामले हमें हमारी ही देहरी के भीतर झांकने को विवश करते हैं. ये आंकड़े बताते हैं कि बड़े-बड़े पंडालों में मातृ और सृजन शक्ति के रूप में उपासित स्त्री को अपने ही घर पीड़ा मिल रही  है. हर दिन उनके आत्मसम्मान को ठेस  पहुंचाई जा रही है.  यूं भी दुनिया में हरेक इंसान को सम्मान के साथ जीने का हक है. ऐसे में यह बहुत ही अफसोसजनक है कि हमारे समाज में घर के बाहर तो महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान एक बड़ा सवाल है ही, दहलीज के भीतर भी हालात कुछ अच्छे नहीं हैं. घरेलू हिंसा यानी डोमेस्टिक वॉयलेंस का दंश इसी का उदाहरण है. 2013 में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा किये गए एक अध्ययन के मुताबिक दुनिया भर में सत्तर फीसद महिलाएं अपने ही करीबी साथी द्वारा की गई हिंसा का शिकार बनती हैं.

यूनाइटेड नेशन्स की एक रिपार्ट के मुताबिक भारत में दो तिहाई महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार हैं.  इतना ही नहीं, 2009 में जारी राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के मुताबिक देश में 40 फीसद महिलाएं रोज किसी न किसी बहाने पति की मारपीट का शिकार होती हैं. भारत  में तकरीबन 31 प्रतिशत विवाहित महिलाएं किसी न किसी रूप में शारीरिक हिंसा झेलती हैं. आज जहां हर क्षेत्र में महिलाएं अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहीं हैं, वहीं ऐसे आंकड़े हमें यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि बाहर ही नहीं, घर में भी औरतों को लेकर हमारी मानसिकता में कुछ खास बदलाव नहीं आया है.

मौजूदा दौर में घर के कामकाज के साथ-साथ औरतों को बाहर की जिम्मेदारी तो मिल गई पर उसके आत्मसम्मान और अस्तित्व का मोल आज भी कुछ नहीं आंका जाता. पत्नी पर हाथ उठाना या तानेबाजी करना कई पुरुष अपना हक समझते हैं. कभी दहेज के नाम पर तो कभी बेटी को जन्म देने के उलाहने के नाम पर कई महिलाओं को ससुराल वालों और पति के ताने सुनने पड़ते हैं. कई बार तो इस हद तक मारपीट की जाती है कि महिला की जान तक चली जाती है.

एक गैर सरकारी संस्था के मुताबिक भारत में लगभग पांच करोड़ महिलाओं को अपने ही घर में हिंसा का सामना करना पड़ता है. इनमे से केवल 0.1 प्रतिशत ही ऐसी हिंसा के खिलाफ मामला दर्ज करवाने के लिए आगे आती हैं. घरेलू हिंसा से जुड़ा एक पक्ष यह भी है कि यह समाज के हर वर्ग में देखने को मिल रही है. घर में महिलाओं के साथ हिंसात्मक व्यवहार करने वाले शिक्षित और अशिक्षित हर तबके के लोग हैं.

कई बार देखने में आता है कि संभ्रांत परिवारों के उच्च शिक्षित और ऊंचे ओहदों पर कार्यरत पुरुष भी पत्नी के साथ हाथापाई करते हैं. 2008 में घरेलू हिंसा के खिलाफ भारत में जारी बेल बजाओ अभियान जारी करने वाली संस्था ब्रेकथ्रू से जुड़ी मल्लिका दत्त का मानना है कि हमारे समाज में दहलीज के भीतर महिलाओं के साथ होने वाली मारपीट मानवाधिकार का संवेदनशील मुद्दा है. मल्लिका यह भी मानती है ‘आमतौर पर घरेलू हिंसा को व्यक्तिगत मुद्दा माना जाता है और लोग उस महिला की मदद करने आगे नहीं आते जो अपने पति की ज्यादतियों का शिकार होती है.’ राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-3 की रिपोर्ट के मुताबिक 46 प्रतिशत महिलाओं ने खुलकर स्वीकार किया कि उनके साथ उनके पति ने हिंसात्मक व्यवहार किया है. यूनाइटेड नेशन्स के पॉपुलेशन फंड की रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश में 15-49 साल की उम्र की 70 प्रतिशत विवाहित औरतें पति की मारपीट सहन करती हैं.

लोग सोचते हैं कि जो महिलाएं कामकाजी हैं यानी आत्मनिर्भर और शिक्षित हैं, वे घरेलू हिंसा का शिकार नहीं होतीं. भ्रम यह भी है कि अशिक्षित और निम्न वर्ग के तबके में घरेलू हिंसा के मामले ज्यादा होते हैं जबकि हकीकत इससे बिल्कुल अलग है. दिन-ब-दिन भले ही कामकाजी महिलाओं की संख्या में इजाफा हो रहा है, लड़कियां पढ़  लिखकर आगे बढ़ रहीं हैं पर इससे सामाजिक सोच और हालात में कोई सुधार नजर नहीं आ रहा. बेंगलुरू में 2005-06 में हुए एक सर्वे में यह बात सामने आ चुकी है नौकरी करने वाली लगभग 80 फीसद महिलाओं को गृहिणियों की तुलना में पति की ज्यादतियों का ज्यादा शिकार होना पड़ता है. ऐसे शोध हमें महिला सशक्तिकरण की हकीकत से रूबरू करवाते हैं.

बंद दरवाजों के पीछे होने वाली इस शारीरिक और मानसिक हिंसा को झेलने वाली महिला चाहे कामकाजी हो या गृहणी, अपनी ही देहरी के भीतर हिंसा का दंश झेलने को विवश है. हमारे यहां आज हर तीन में से एक शादीशुदा महिला घरेलू हिंसा की शिकार है. समाजशास्त्री मानते हैं कि महिलाओं के साथ हाने वाले र्दुव्‍यवहार के लिए उनका आत्मनिर्भर बन जाना भर काफी नहीं है. सबसे पहली जरूरत इस बात की है हमारी सामाजिक सोच में बदलाव आये. हर स्तर पर औरतों को दोयम दर्जा देने की मानसिकता को जड़ से खत्म किया जाए.

यह दुखद ही है कि हमारे परिवारों में महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा को व्यवस्थागत समर्थन मिलता है. साथ ही पितृसत्तात्मक सोच इसे और पोषित भी करती है. हालात यह है कि डोमेस्टिक वॉयलेंस पर काबू पाने के लिए कुछ समय पहले ही इसके कानून में भी संशोधन किया गया है. मौजूदा कानून के मुताबिक घरेलू हिंसा में हर तरह का टार्चर शामिल है. जिसके अंतर्गत औरतों को शारीरिक तौर पर चोट पहुंचाना या चोट पहुंचाने की कोशिश करना, मौखिक रूप से उन्हें   डराना-धमकाना, फब्तियां कसना, उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाने वाली बातें करना और उनका यौन शोषण करना भी  शामिल है.

इतना ही नहीं घरेलू हिंसा के खिलाफ बने कानून के अनुसार किसी महिला को आर्थिक रूप से भी प्रताड़ित नहीं किया जा सकता. जिसमें महिला की प्रॉपर्टी हथियाना, अगर वो आश्रित है तो उसका पालन-पोषण न करना आदि शामिल है. गौरतलब है कि इस कानून के मुताबिक महिला को घर से बेदखल भी नहीं किया जा सकता. चाहे घर पर उसका कानूनी हक हो या न हो. घरेलू हिंसा के लिए बनी कानूनी आचार संहिता के मुताबिक महिला के साथ किया गया किसी भी तरह का अमानवीय व्यवहार बर्दाश्त नहीं किया जा सकता. विचारणीय यह भी है कि  अपने ही आंगन में महिलाओं को सुरक्षा और सम्मान न मिले तो इस शक्ति पर्व की सार्थकता ही क्या है? मातृशक्ति के पूजन वंदन और मानमर्दन का खेल आखिर कब तक?

तमाम सरकारी अभियानों और सामाजिक जागरूकता लाने वाले प्रयासों के बावजूद महिलाओं के साथ होने वाली ये खौफनाक घटनाएं जारी हैं. ऐसे में महिलाएं सुरक्षित और सम्मानजनक जीवन जी पाएं, इसके लिए घर के भीतर और बाहर हर जगह सोच में बदलाव जरूरी है. उनके प्रति संवेदनशील व्यवहार आवश्यक है. आज के दौर में भी स्त्री शक्ति के पंडालों में पूजन और देहरी के भीतर मानमर्दन के हालात शक्ति पर्व की सार्थकता पर सवाल उठाते नजर आते हैं.

मोनिका शर्मा
लेखक


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