कुर्सी के लिए कैसी गांठ, कैसा बंधन

Last Updated 30 Sep 2014 12:39:26 AM IST

हालांकि चुनावों के नए दौर में कई दलों की किस्मत दांव पर लगी है लेकिन असली परीक्षा तो दो ही दलों, भाजपा और कांग्रेस की होनी है.


कुर्सी के लिए कैसी गांठ, कैसा बंधन

इन्हीं पर सारा दारोमदार है और बाकी दलों का भाग्य भी. हरियाणा हो या महाराष्ट्र- इन दो महारथियों की महत्वाकांक्षा के ही कारण क्षेत्रीय दलों की बनी-बनाई दुकानें बंद होने के कगार पर आ चुकी हैं. मुम्बई में भाजपा यदि शिव सेना के क्षेत्रीय हितों का ध्यान रखती और उसके पुराने सूत्र के अनुसार सीटें लड़ने देती तो कोई समस्या नही थी. शिवसेना का नारा रहा है कि दिल्ली तुम्हारी महाराष्ट्र हमारा. जीत की सूरत में शिव सेना का ही मुख्यमंत्री बन जाता.

यह सूत्र चलता तो पच्चीस साल पुराना गठबंधन नहीं टूटता और शिव सेना को अलग ही सबका सामना नही करना पड़ता. लेकिन भाजपा अब मानने लगी है कि केंद्र में बहुमत से ही सारी समस्याएं हल नहीं होतीं! राज्यसभा में दलों का अनुपात बदलने की भी आवश्यकता है जिसके लिए राज्यों में अपना बहुमत आवश्यक है. परंतु उसने पहले ही शिवसेना के पहिए में यह कहकर फच्चर फंसा दिया था कि मुख्यमंत्री वही बनेगा जिसकी पार्टी को अधिक सीटें मिलेंगी.

शिवसेना को इस बात का डर था कि अगर भाजपा को अधिक सीटें दी गई तो वह विधानसभा में शिवसेना से बड़ी पार्टी बन जाएगी. इसलिए जवाबी कार्रवाई में उसने भाजपा को उतनी ही सीटें देने की घोषणा कर दी ताकि वह आगे न निकल सके. देखा जाए तो 151 सीटें अपने खाते में रखने के बाद बचती ही इतनी सीटें थी कि सहयोगी दलों के लिए भी इतनी कम रह जाती कि उनके लिए बगावत करने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं रहा. पिब्लिकन पार्टी के रामदास अठावले तो शरद पवार के शिविर में जाने लगे थे. टूट का सारा सामान बनता देख शिवसेना के नेताओं को राज ठाकरे की याद आई. लेकिन वे राज को नहीं पटा पाए. अकेले भाजपा के लिए भी अब भागते हुए सहयोगी दलों को रोकने की आवश्यकता थी. सीटों की कमी तो नहीं थी, इसलिए अब भाजपा चार छोटे दलों के साथ अपना मोर्चा बना चुकी है. ठीक इसी प्रकार का घटनाक्रम कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के गठबंधन के बीच भी हुआ.

पटकथाओं के लिए प्रसिद्ध मुम्बई में पिछले सप्ताह दोनों गठबंधनों के नाटकीय घटनाक्रम के लिए जैसे एक ही व्यक्ति ने पटकथा लिखी हो और केवल पात्रों के नाम बदल दिए हों. यहां खेल कांग्रेस ने बिगाड़ दिया. शरद पवार को लगता था कि इस बार कांग्रस की किस्मत अच्छी नहीं है. मोदी की भाजपा को अगर कोई रोक सकता है तो वह कोई क्षेत्रीय दल ही होगा. वह या तो शिवसेना थी या स्वयं उनका अपना दल.  लेकिन कांग्रेस इतनी सीटें देने को तैयार ही नहीं थी कि राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी मुख्यमंत्री पद का दावा कर पाए. आजकल कांग्रेस में राहुल गांधी की नई सोच चल रही है. उनके अनुसार क्षेत्रीय दलों के सहारे चल कर ही कांग्रेस ने अपना जनाधार खो दिया. उसे लोग मुख्य दावेदार नहीं मानते इसलिए कांग्रेस को महाराष्ट्र में शरद पवार जैसे शातर राजनीतिज्ञों की शह पर नहीं चलना चाहिए. तो यह गठबंधन भी टूट गया. अब अगर भाजपा जीतती है तो बाकी सभी दलों को घाटा तो होगा लेकिन भारी धक्का केवल कांग्रेस को ही लगेगा.

महाराष्ट्र की सत्ता से भाजपा के हाथों बाहर हो जाने के पश्चात देश की सबसे पुरानी राष्ट्रीय पार्टी के लिए आगे का मार्ग बहुत कठिन और अनिश्चित बन जाएगा. भाजपा शिवसेना गठबंधन टूटने के बाद महाराष्ट्र में चुनावी खेल बहुत जटिल होता तो दिखाई देता है लेकिन यह अब भी मराठी भाषियों को रिझाने का ही खेल है. शिवसेना मान कर चल रही थी कि मराठा मतदाता पर उस का लगभग एकाधिकार है लेकिन कुछ समय पहले राज ठाकरे ने सेना से अलग होकर अपनी पार्टी बनाकर शिवसेना के मतदाता वर्ग में सेंध लगा दी है. राज लोकसभा चुनाव में अपने बूते सीटें तो नहीं जीत पाए लेकिन मराठी वोटों का एक ऐसा प्रतिशत शिवसेना से छीनने में कामयाब हुए जिसके कारण सेना भाजपा से काफी पिछड़ गई. अब भी उनसे यही खतरा है.

कुछ सालों से शरद पवार भी मराठा मतदाता पर ही भरोसा करने लगे हैं. वे  खाते-पीते मराठा के प्रतिनिधि हैं जिनमें बड़े किसानों का विशेष समर्थन उन्हें प्राप्त है. साफ है कि शिव सेना के अलग होने के पश्चात वे मराठा मतदाता को बड़े पैमाने पर अपनी ओर करने का प्रयास करेंगे लेकिन पिछले दशक में भाजपा भी इस मतदात क्षेत्र में घुसपैठ कर चुकी है. भाजपा के कई नेता महाराष्ट्रीय ही हैं. प्रमोद महाजन और गोपीनाथ मुंडे ने महाराष्ट्र में धरती पुत्रों के रूप में जगह बना ली थी लेकिन अब भी वहां नितिन गडकरी जैसे नेताओं का अपना प्रभाव क्षेत्र है.

महाराष्ट्र में विदर्भ एक बड़ी समस्या रहा है. शिवसेना के साथ सहयोग के कारण भाजपा विदर्भ के अलगाव की राजनीति नहीं करती थी. शिव सेना के अतिरिक्त कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस दोनों विदर्भ को अलग राज्य बनाने के विरुद्ध हैं लेकिन भाजपा के लिए विदर्भ के अलग राज्य का समर्थन करना उसके छोटे राज्यों के पक्ष में होने की नीति से ही मेल खाता है. शिवसेना से अलग होने का खतरा मोल लेने के पीछे अमित शाह की रणनीति शायद यही है कि महाराष्ट्र के एक मतदाता वर्ग पर ही अन्य सब दलों की दृष्टि होने के कारण भाजपा ही पढ़े-लिखे शहरी मतदाता, खासकर युवा को गैर मराठी आधार पर आकषिर्त कर सकती है. हिंदी भाषी मतदाता के बड़े भाग को भी पार्टी खींच सकती है.

जहां तक हरियाणा का सवाल है, आयाराम गयाराम की परंपरा स्थापित करने वाले इस राज्य का आज भी वही हाल है जो भजनलाल और बंसीलाल के जमाने में था. सत्ता में बहुत दिनों से रहने के कारण जो ऊब मतदाता में पैदा हो गई है, वह तो भूपेद्र सिंह हुडा के विरुद्ध है ही, लेकिन उससे अधिक हुकूमत के लाभ को सही तरीके से न बांटने से पैदा होने वाली परेशानियां हैं. जाट तुष्टिकरण का आरोप उन पर पहले भी लगता था लेकिन इस बार जाटों को भी लगता है कि उनको हुडा का उतना लाभ नहीं मिला, जितना वे उम्मीद कर रहे थे. इसके बावजूद हुडा का सबसे बड़ा संबल ध्रुवीकरण का अभाव है. भाजपा को छोड़ कर वहां कोई भी पार्टी नहीं है जो बड़े मतदाता वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हो.

छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटी पार्टियां और दजनोर्ं दलबदलू शायद ही कांग्रेस को अपदस्थ करने की क्षमता रखते हों. इस बार भाजपा ने भी चौटाला से नाता तोड़ दिया है. भाजपा को उम्मीद है कि विकास का झुनझुना मतदाता को लुभाएगा लेकिन हरियाणा में भाजपा आज भी कुछ कस्बों तक ही सीमित है. देहात में अब भी उसके संगठन की जड़ें नही जमीं हैं. केवल मोदी के नाम पर ही आज की स्थिति में हरियाणा में कोई लहर पैदा करना मुश्किल लगता है. हाल में गुरुद्वारा आंदोलन के कारण सिख मतदाता का क्या रुझान होगा और चौधरी चरण सिंह के बेटे अजीत सिंह को हुडा का समर्थन क्या रंग लाएगा, यह कहना अभी संभव नहीं है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

जवाहरलाल कौल
लेखक


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