विदेशी शिक्षा की सार्थकता का सवाल

Last Updated 22 Sep 2014 04:06:44 AM IST

लगातार महंगी होती शिक्षा की समस्याओं के बीच एक अजीब विरोधाभासी तथ्य अक्सर देखने को मिलता है.


विदेशी शिक्षा की सार्थकता का सवाल

हमारे देश में तमाम अभिभावक अपने बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए उन विदेशी संस्थानों में पढ़ने के लिए भेजते हैं जहां पढ़ाई भारत के मुकाबले आठ से दस गुना तक महंगी है. विदेशी शिक्षा महंगी है और उसके मुकाबले देसी शिक्षा बेहद सस्ती, यह बात हाल में एक अंतरराष्ट्रीय बैंक (एचएसबीसी) द्वारा कराए गए सर्वेक्षण \'द वैल्यू ऑफ एजूकेशन: स्प्रिंगबोर्ड फॉर सक्सेस\' से साबित हुई है. इसके मुताबिक, अंडरग्रेजुएट कोर्स के लिए भारत में बाहर से पढ़ने आए छात्र का यूनिवर्सिटी फीस और रहने-खाने का सालाना औसत खर्च 5643 डॉलर है जिसमें से महज 581 डॉलर फीस के रूप में चुकाए जाते हैं. इसके बरक्स, ऑस्ट्रेलिया में यह खर्च 42093 डॉलर, सिंगापुर में 39229 डॉलर, अमेरिका में 36565 डॉलर और ब्रिटेन में 35045 डॉलर सालाना होता है.

पंद्रह देशों में 4500 अभिभावकों पर किए गए सर्वेक्षण में यह बात भी सामने आई कि भारत में भले ही सबसे सस्ती उच्च शिक्षा मिल रही हो, लेकिन ज्यादातर भारतीय अभिभावक भी (62 प्रतिशत) अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा के लिए ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर और अमेरिका भेजने को अहमियत देते हैं. वे ऐसा क्यों करते हैं, इसका एक जवाब हाल ही में ब्रिटिश कंपनी क्यूएस द्वारा प्रकाशित की गई वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग से मिल जाता है जिसमें पहले 200 विश्वविद्यालयों में एक भी भारतीय नहीं है. इस लिस्ट में आईआईटी-मुंबई का स्थान 222वां है जबकि आईआईटी- दिल्ली 235वें नंबर पर है. प्रतिष्ठित दिल्ली विश्वविद्यालय अध्ययन-अध्यापन के मामले में 420-430 के बीच आया है. हालांकि यह रैंकिंग जारी करने वाली कंपनी क्यूएस के रिसर्च प्रमुख बेन सॉटर मानते हैं कि भारतीय विश्वविद्यालयों का स्तर उठाने के प्रयास हो रहे हैं लेकिन फिलहाल वे नाकाफी हैं.

देश में फिलहाल 225 से अधिक छोटे-बड़े विश्वविद्यालय हैं और उनसे संबंधित कॉलेजों की संख्या भी हजारों में है, लेकिन यह हैरानी का विषय है कि इनमें से कोई भी यूनिवर्सिटी उस स्तर की शिक्षा नहीं दे पा रही है कि उसे दुनिया की अव्वल सौ यूनिवर्सिटियों में शामिल किया जा सके.

उल्लेखनीय है कि विदेशी विश्वविद्यालयों की उच्च स्तरीय शिक्षा पाने के लिए हर साल भारत से डेढ़ से पौने दो लाख छात्र विदेश जाते हैं. देश के लिए आर्थिक नजरिए से भी जरूरी है कि छात्रों को भारतीय विश्वविद्यालय ही कायदे की शिक्षा देने का इंतजाम करें, अन्यथा देश में ही विदेशी विश्वविद्यालयों के कैंपस खुलें जिनके जरिये विदेशी डिग्री पाने का सपना थोड़े सस्ते में पूरा हो सके. जब देश में ही विदेशी संस्थानों के कैंपस मौजूद होंगे, तो इससे विदेशी शिक्षा पर किए जाने वाले खर्च में कटौती से लेकर वे सारे फायदे हो सकेंगे जिनके लिए विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत लाने की वकालत होती रही है. हाल के वर्षो में खास तौर से ऑस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों के साथ पेश आए हादसों के मद्देनजर भी यह एक बड़ी राहत होगी. इससे उच्च शिक्षा के क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा बढ़ने की भी संभावना है जिससे निश्चित ही  देश में उच्च शिक्षा का माहौल काफी सुधरेगा.

पर विदेशी विश्वविद्यालयों का रुख करने और उन्हें अपने देश में कैंपस खोलने के लिए न्यौतने से पहले यह देखना भी जरूरी है कि आखिर विदेशी शिक्षा में ऐसा क्या है, जो दुनिया भर के छात्र अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया की ओर खिंचे चले जाते हैं और जिसके बल पर वहां एक शानदार एजुकेशन इंडस्ट्री बन गई हैं. इसका एक उदाहरण अमेरिकी शिक्षा व्यवस्था से लिया जा सकता है. अमेरिका में कानून और चिकित्सा, दो ऐसे पेशे हैं जिनमें भरपूर कमाई की संभावना रहती है. वहां कानून की मुकम्मल पढ़ाई में 7-8 साल लग जाते हैं और मेडिकल की पढ़ाई कर डॉक्टर बनने के लिए 11 साल लगते हैं और इसमें भारतीय मुद्रा के हिसाब से एक से डेढ़ करोड़ रुपए का खर्च होता है. इन दोनों पाठ्यक्रमों के लिए येल, हारवर्ड और स्टैनफोर्ड की गणना सर्वश्रेष्ठ यूनिवर्सिटीज में होती है. लेकिन इतनी महंगी शिक्षा के बावजूद वहां ऐसा नहीं है कि अभिभावक अपने बेटे या बेटी को पढ़ाने के लिए अपना घर-बार अथवा कारोबार दांव पर लगा दें. इसके लिए वहां आसानी से कम ब्याज दरों पर कर्ज मिल जाता है.

मेडिकल और कानून की डिग्रियों के अलावा वहां ऐसी अनगिनत डिग्रियां और पाठ्यक्रम हैं जिनके जरिये एक अच्छा रोजगार पाया जा सकता है. लेकिन वहां बात सिर्फ उच्च शिक्षा की क्वॉलिटी की नहीं होती है. अमेरिका में बच्चों की स्कूली शिक्षा की नींव को भी काफी मजबूत बनाया जाता है. प्राइमरी से लेकर हाईस्कूल तक की शिक्षा मुफ्त होती है. हालांकि सरकारी स्कूलों के साथ-साथ वहां भी प्राइवेट स्कूल हैं जो अपेक्षाकृत महंगे होते हैं, लेकिन ऐसा नहीं कि सरकारी स्कूल से निकला बच्चा प्राइवेट स्कूल के बच्चे से किसी मामले में उन्नीस साबित हो. इसके आगे वहां कॉलेज स्तर की जो शिक्षा है, वह भारतीय उच्च शिक्षा से इस मामले में अलग है कि वहां उच्च शिक्षा पाठ्यक्रम का मूल उद्देश्य पूरी तरह व्यावसायिक होता है. अमेरिका में शिक्षा का मकसद भारत की तरह मात्र डिग्रियों की संख्या बढ़ाना नहीं होता, बल्कि उस पढ़ाई के जरिये छात्रों को रोजगार के लायक बनाना होता है. इसलिए उनके पाठ्यक्रम भी उसी तरह से तैयार किए जाते हैं. इसके लिए अमेरिका में प्राइवेट और पब्लिक, दोनों ही तरह के यूनिवर्सिटी-कॉलेज हैं. छात्र दो वर्षीय अथवा चार वर्षीय ग्रेजुएशन कोर्स के चयन में पूरी तरह स्वतंत्र होते हैं. वहां ऑनलाइन गाइडेंस के लिए भी अनेक कंपनियां हैं जो किसी पाठ्यक्रम के महत्व और रोजगार की स्थिति का आकलन करती हैं.

पब्लिक और प्राइवेट, दोनों ही तरह के यूनिवर्सिटी-कॉलेजों में ग्रेजुएशन कोर्सेज की इतनी भरमार होती है कि छात्र अपनी शिक्षा, रुचि और आर्थिक क्षमता के अनुसार पाठ्यक्रम चुन सकते हैं. ग्लोबल पैमानों पर आम तौर पर एक शानदार यूनिवर्सिटी की पहचान उसकी फीस और फैकल्टी को मिलने वाले वेतनमान से की जाती है. यह भी ध्यान रखना होगा कि अब अमेरिका, सिंगापुर और ऑस्ट्रेलिया में उच्च शिक्षा एक उद्योग का रूप ले चुकी है. चीन और भारत से करीब चार-पांच लाख युवा हर साल यहां उच्च शिक्षा के लिए पहुंचते हैं. इससे अकेले अमेरिका को ही सालाना 25-30 अरब डॉलर की कमाई हो जाती है. इसके उलट भारत में सरकारी मदद के भरोसे चल रहे आईआईटी अथवा आईआईएम या मेडिकल कालेज ढांचागत सुविधाओं में अपेक्षित सुधार करने की बजाय न्यूनतम सुविधाओं और सामान्य वेतनमान पर न्यूनतम फैकल्टी से काम चलाने में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं.

बहरहाल, अमेरिकी शिक्षा के उदाहरण को ही मानक के तौर से लिया जाए, तो साफ है कि इस तरह की शिक्षा की भारत में कितनी अधिक जरूरत है. ग्लोबल इकोनॉमी में एक बड़े मुकाम की तरफ बढ़ रहा देश उच्च शिक्षा के मामले में खिड़की-दरवाजे बंद करके नहीं बैठ सकता. आईटी, मेडिकल और इंजीनियरिंग के क्षेत्र की ग्लोबल चुनौतियों के हिसाब से अपने छात्रों को तैयार करने में विदेशी संस्थानों के देश में स्थित कैंपस काफी मददगार हो सकते हैं. लेकिन इनके लिए ऐसे कायदे-कानून जरूर बनाने होंगे जिससे विदेशी विश्वविद्यालयों के भारत में कायम किए जाने वाले कैंपसों के कामकाज की लगातार निगरानी हो सके और वे हमारे छात्रों का आर्थिक शोषण न कर सकें.

अभिषेक कुमार सिंह
लेखक


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment