कामकाजी महिलाओं की सेहत का सवाल

Last Updated 12 Sep 2014 12:57:22 AM IST

विकास जब अपने संक्रमण काल में होता है तब सामाजिक समस्याएं ज्यादा गंभीर होती हैं.


कामकाजी महिलाओं की सेहत का सवाल

कुछ ऐसी परिस्थितियों से फिलहाल भारतीय समाज भी गुजर रहा है. आंकड़े बताते हैं कि समाज के हर क्षेत्र में महिलाएं तेजी से आगे बढ़ रही हैं. उच्च शिक्षा में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी उनके लिए रोजगार के अवसरों को बढ़ा रही है. महिलाएं कार्यक्षेत्र में पुरुषों के वर्चस्व को तेजी से तोड़ रही हैं. आमतौर पर ऐसी तस्वीर किसी भी समाज के लिए आदर्श मानी जाएंगी जहां स्त्रियां तरक्की कर रही हों, पर भारतीय परिस्थितियों में यह स्थिति महिलाओं के लिए स्वास्थ्य संबंधी कई परेशानियां पैदा कर रही है.

वैीकरण की बयार और शिक्षा के प्रति बढ़ती जागरूकता ने पूरे देश को प्रभावित किया है. धीरे-धीरे ही सही अब इस धारणा को बल मिल रहा है कि कामकाजी महिला घर और भविष्य के लिए बेहतर होगी. पर हमारा पितृसत्तामक सामाजिक ढांचा उनसे घर-परिवार के साथ साथ रोजगार संभालने की भी अपेक्षा करता है. जिसका नतीजा महिलाओं में बढ़ती स्वास्थ्य समस्याओं के रूप में सामने आ रहा है. स्वास्थ्य संगठन मेट्रोपोलिस हेल्थकेयर लिमिटेड द्वारा देश के चार महानगरों दिल्ली, कोलकाता, बंगलुरु  और मुंबई में रहने वाली महिलाओं के बीच किए गए सर्वेक्षण से पता चलता है कि युवा महिलाओं में डायबिटीज और थायरॉयड जैसी बीमारियां तेजी से बढ़ रही हैं.

इसकी  वजह से महिलाओं को थकान, कमजोरी, मांसपेशियों में खिंचाव और मासिक चक्र में गड़बड़ी जैसी समस्याओं से जूझना पड़ रहा  है. रिपोर्ट के अनुसार चालीस से साठ साल के बीच की उम्र वाली महिलाओं में इन दोनों बीमारियों के होने की आशंका बढ़ी है. महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि अब कम उम्र की महिलाएं भी इन बीमारियों की चपेट में आ रही हैं. हाल के वर्षो में गांवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ा है जिसका नतीजा बढ़ते एकल परिवारों के रूप में हमारे सामने है.

संयुक्त परिवार की तुलना में एकल परिवार में कामकाजी महिलाओं पर काम का बोझ ज्यादा बढ़ा है जिससे महिलाओं को अपने कार्यक्षेत्र और घर, दोनों को संभालने के लिए पुरुषों से ज्यादा मेहनत करनी पड़ रही है. इससे तनाव बढ़ता है और शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कम होती है जिससे अन्य बीमरियों के होने की आशंका बढ़ जाती है. अब वह दौर बीत चुका है जब माना जाता था कि महिलाएं सिर्फ  घर का कामकाज देखेंगी. अब महिलाएं पुरु षों के समान ही जीवन की हर चुनौती का सामना कर रही हैं, उनके काम का दायरा बढ़ा है; पर परिवार से जो समर्थन उन्हें मिलना चाहिए, वह नहीं मिल रहा है. भारत के संबंध में यह समस्या महत्वपूर्ण है जहां अभी तक महिलाए घर की चारदीवारी में कैद रही हैं, अब उनको स्वीकार्यता तो मिल रही है पर स्थिति बहुत अच्छी नहीं है.

पुरुषों की सहभागिता घर के रोज के कामों में न के बराबर है. विश्व आर्थिक मंच की एक रिपोर्ट के अनुसार लैंगिक समानता सूचकांक में भारत का स्थान 135 देशों में  113वां है. यह सूचकांक दुनिया के देशों की उस क्षमता का आंकलन करता है जिससे यह पता चलता है कि किसी देश ने पुरुषों और महिलाओं को बराबर संसाधन और अवसर देने के लिए कितना प्रयास किया. आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन द्वारा 2011 में किए एक सर्वे में छब्बीस सदस्य देशों और भारत, चीन व दक्षिण अफ्रीका जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं के अध्ययन से यह पता चलता है कि भारत, तुर्की और मैक्सिको की महिलाएं पुरुषों के मुकाबले पांच घंटे ज्यादा अवैतनिक श्रम करती हैं. भारत में अवैतनिक श्रम कार्य के संदर्भ में बड़े तौर पर लिंग विभेद है, जहां पुरुष प्रत्येक दिन घरेलू कार्यों के लिए एक घंटे से भी कम समय देते हैं. रिपोर्ट के अनुसार भारतीय पुरुष टेलीविजन देखने, आराम करने, खाने और सोने में ज्यादा  वक्त बिताते हैं.

मेट्रोपोलिस हेल्थकेयर रिपोर्ट के अनुसार नौकरी और घर, दोनों संभालने वाली अधिकतर महिलाएं डायबिटीज और थायरॉयड के अलावा मानसिक अवसाद, कमर दर्द, मोटापे और दिल की बीमारियों से पीड़ित हैं. अधिकतर भारतीय घरों में यह उम्मीद की जाती है कि कामकाजी महिलाएं अपने काम से लौटकर घर के सामान्य काम भी निपटाएं.

ऐसे में महिलाओं के ऊपर काम का दोहरा दबाव पड़ता है. पुरु ष घर आकर काम की थकान मिटाते हैं, वहीं महिलाएं फिर काम में लग जाती हैं. फर्क बस इतना होता है कि बाहर के काम का आर्थिक भुगतान होता है जबकि घर के कामकाज को परंपराओं, मर्यादाओं के तहत उनके जीवन का अंग मान लिया जाता है. उल्लेखनीय है कि इस समस्या के और भी कुछ अल्पज्ञात पहलू हैं. घर-परिवार, मर्यादा, नैतिकता और संस्कार के नाम पर महिलाओं को अक्सर घरेलू श्रम के ऐसे चक्र में फंसा दिया जाता है कि वे अपने अस्तित्व से ही कट जाती हैं.

बड़े शहरों में जागरूक माता-पिता अपनी लड़कियों की पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं. ऐसे में तमाम लड़कियां शादी से पहले ही कामकाजी हो जाती हैं और घर के दायित्वों में सक्रिय रूप से योगदान नहीं देती. पर शादी के बाद स्थिति एकदम से बदल जाती है. पुरुष अगर घर के सामान्य कामों को छोड़कर अपनी पढ़ाई या करियर पर ध्यान दें तो यह आदर्श स्थिति मानी जाएगी क्योंकि समाज उनसे यही आशा करता है. पर महिलाओं के मामले में समाज की सोच दूसरी है. ऐसे में अगर कोई लड़की पढ़-लिख कर कुछ बन जाती है तो भी उससे यह उम्मीद की जाती है कि वह घर के कामों में ध्यान देगी और तब समस्याएं शुरू होती हैं.

दरअसल, समाज का ढांचा तो बदल रहा है पर मानसिकता नहीं और यही समस्या की जड़ है. मानसिकता में बदलाव समाज के ढांचे में बदलाव की अपेक्षा काफी  धीमा होता है. इसकी कीमत कामकाजी महिलाओं को चुकानी पड़ रही है. ऐसे में यह बेहद जरूरी है कि समाज और परिवार अपनी मानसिकता में बदलाव लाएं और पुरु ष घर के कामकाज को लैंगिक नजरिये से देखना बंद करें. छोटे बच्चे जब घर के सामान्य कामकाज को अपने पिताओं को करते देखेंगे तो उनके अंदर घरेलू कामकाज के प्रति लैंगिक विभेद नहीं पैदा होगा.

जरूरी है कि छोटे बच्चों का समाजीकरण घरेलू काम में लैंगिक बंटवारे के हिसाब से न हो यानी खाना माताजी ही पकाएंगी और सब्जी पिताजी ही लाएंगे! यदि  ऐसा होगा तो आज के बच्चे कल के एक बेहतर नागरिक और अभिभावक बनेंगे. बीमारियों का इलाज तो दवाओं से हो सकता है, पर स्वस्थ मानसिकता का निर्माण जागरूकता और सकारात्मक सोच से ही होगा.

मुकुल श्रीवास्तव
लेखक


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