बुजुर्गों के लिए एक अच्छा विचार

Last Updated 31 Aug 2014 01:39:26 AM IST

उम्र बीत जाती है, पर आसक्ति नहीं जाती. जीवन का यह अनिवार्य सत्य राजनीति में प्रगट न हो, यह कैसे संभव है?


राजकिशोर, लेखक

राजतंत्र में जो राज-पाट मिलता था वह जीवन भर के लिए होता था. राजा एक निश्चित उम्र के बाद त्यागपत्र दे दे, इसका न विधान था न संभावना. पौराणिक साहित्य में हम जरूर पढ़ते हैं कि चौथा आश्रम निभाने के लिए सम्राट लोग अपनी सत्ता बड़े बेटे को सौंप कर वन चले जाया करते थे. लेकिन अधिक संभव है कि यह सब कपोल-कल्पना ही हो, क्योंकि ज्ञात इतिहास में इसका कोई उदाहरण दिखाई नहीं देता. तब सरकारी कर्मचारी भी रिटायर नहीं हुआ करते थे. लोकतांत्रिक व्यवस्था में इतना तो हुआ कि कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति की उम्र तय कर दी गई ताकि नए लोगों को रोजगार मिल सके, पर जो कानून बनाने वाले थे उन्होंने अपने लिए ऐसा कोई नियम नहीं बनाया. शासक और शासित के बीच का यह फर्क लोकतंत्र पर राजतंत्र की छाया है. बल्कि इंग्लैंड और हॉलैंड जैसे देशों ने तो इसे आदर्श के रूप में अपनाया हुआ है. वहां राजा या रानी को शासन से संबंधित कोई अधिकार नहीं है, लेकिन जब तक वह जीवित है, उसके पद को छेड़ा नहीं जा सकता. वह अगर दो सौ वर्ष तक जीवित रह सकता है, तो दो सौ वर्षो तक राजा या रानी बना रहेगा. मृत्यु की देवी को धन्यवाद कि वह जन्म के पूर्व ही जीवन की एक सीमारेखा बना देती है.

नरेंद्र मोदी ने अपनी पार्टी के बुजुर्ग नेताओं को, एक दृष्टि से, एक अच्छा उपहार दिया है. उन्हें मार्गदर्शक मंडल का सदस्य बना कर एक ओर उनका सम्मान बढ़ा दिया है और दूसरी ओर उनकी व्यावहारिक राजनीति के सामने एक पूर्णविराम लगा दिया है. इसकी प्रशंसा भी हो रही है और दूसरे दलों में भी यह विचार सुगबुगाने लगा है. कांग्रेस के महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने नरेंद्र मोदी का नाम तो नहीं लिया, पर यह सामान्य सिद्धांत जरूर प्रतिपादित किया कि राजनीतिज्ञों के रिटायर होने की उम्र तय होनी चाहिए. जनार्दन द्विवेदी आजकल कुछ अप्रिय सत्य बोलने के लिए तत्पर दिखाई देते हैं. कुछ दिन पहले उन्होंने आरक्षण के बारे में एक बयान दिया था, जो तर्क पर आधारित नहीं था, ऐसा नहीं कहा जा सकता. लेकिन कांग्रेस नेतृत्व ने जनार्दन द्विवेदी के प्रस्ताव पर विचार करना उचित नहीं समझा.

इसी तरह, राजनीतिज्ञों अर्थात प्रधानमंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों, पार्टी पदाधिकारियों आदि के सत्तासीन रहने की उम्र सीमा का उनका प्रस्ताव भी मुरझाए हुए पत्ते की तरह झर गया. पार्टी के प्रवक्ताओं द्वारा यह रसीद दे दी गई कि यह द्विवेदी का व्यक्तिगत विचार है. यही बात आरक्षण वाले प्रस्ताव के बारे में भी कही गई थी. यह समझ में न आने वाली बात है कि किसी पार्टी का महासचिव जब लीक से हट कर कोई नया विचार रखता है, तो वह उसका व्यक्तिगत विचार कैसे हो जाता है. जनार्दन द्विवेदी ने अपनी बातें किसी गप गोष्ठी में तो रखी नहीं थीं-  मीडिया के सामने कहा था, जो हर चीज का रिकॉर्ड रखता है. जब भाजपा का कोई नेता मीडिया को सुनाते हुए कुछ  ऐसा कहता है जो पार्टी नेतृत्व को मंजूर नहीं है, तो इसे भी उसका व्यक्तिगत विचार बता कर टाल दिया जाता है. तब फिर, पार्टी के लोगों को यह निर्देश क्यों नहीं दे दिया जाता कि कृपया वे अपने व्यक्तिगत विचार मीडिया के माध्यम से न प्रगट करें या तो अपने पास रखें या पार्टी की बैठक में पेश करें. 

कांग्रेस में सोनिया गांधी और भाजपा में नरेंद्र मोदी, दो ऐसे व्यक्ति हैं जिनका कोई भी विचार व्यक्तिगत विचार नहीं होता. जब वे बोलते हैं तो पूरी पार्टी बोलती है. अपनी पार्टी के कुछ बुजुर्ग नेताओं को धता बता कर नरेंद्र मोदी ने जो किया है, वह जितना भी ठीक हो, पर वास्तव में उनका अपना विचार है, बल्कि कहिए उनकी अपनी इच्छा है जिस पर पार्टी ने आपत्ति नहीं की है. कायदे से देखा जाए, तो मार्गदर्शक मंडल, जिस नाम की संस्था किसी भी पार्टी में नहीं है और भाजपा में भी कल तक नहीं थी, के तीनों वरिष्ठतम सदस्य- वाजपेयी, आडवाणी और जोशी- ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने कभी न कभी मोदी को दुख दिया है. गुजरात में सांप्रदायिक हिंसा के दौर में वाजपेयी ने मोदी को राजधर्म निभाने की शिक्षा दी थी. आडवाणी का दोष यह है कि जब मोदी को राष्ट्रीय चुनाव प्रचार समिति का संयोजक चुना जा रहा था, तब उन्होंने मोदी का विरोध किया था. मुरली मनोहर जोशी मोदी के लिए वाराणसी की संसदीय सीट खाली करना नहीं चाहते थे. ऐसे अवांछित लोगों को पार्टी में कैसे जिंदा रहने दिया जा सकता है? विडंबना यह है कि स्वयं नरेंद्र मोदी इस समय चौंसठ साल के हैं और छह साल बाद सत्तर के हो जाएंगे. वे भारत को सुधारने के लिए शुरू से ही दस साल का समय मांग रहे हैं. इसका मतलब यही निकलता है कि सत्तर वर्ष का हो जाने के बाद भी वे प्रधानमंत्री बने रहना चाहते हैं. तब भी यह मार्गदर्शक मंडल बना रहा, तो यही कहा जाएगा कि एक बुजुर्ग दूसरे बुजुर्गों को बैठने की जगह बता रहा है.

इसलिए विचार तो अच्छा है, क्योंकि इससे उम्रदराज राजनेताओं को आपाधापी से दूर रह कर चैन की सांस लेने का मौका मिलेगा, पर जरूरत नियम बनाने की है. मेरा खयाल है, रिटायरमेंट की उम्र तय करने से बेहतर यह होगा कि पार्टी पदाधिकारियों और मंत्रिमंडल के सदस्यों के लिए अनिवार्य कर दिया जाए कि कोई भी व्यक्ति अपने पद पर एक साथ दो कार्यकाल से अधिक नहीं रह सकता. पार्टियां चाहे जो करें, पर मंत्रियों के लिए तो यह नियम बनना ही चाहिए. इससे सत्ता लोलुपता पर कुछ बंदिश लग सकती है. अमेरिकी लोग बेवकूफ नहीं हैं जिन्होंने अपने राष्ट्रपति पद के लिए निरंतरता में अधिक से अधिक दो कार्यकाल का नियम बना रखा है.



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