इस ‘रत्न’ की चमक में अंधेरों से उबरिए

Last Updated 29 Aug 2014 12:37:17 AM IST

’यह हॉकी का खेल नहीं जादू है, स्टिक से बाजीगिरी का दुर्लभ एहसास है, ध्यानचंद सही मायने में एक जादूगर है.’


इस ‘रत्न’ की चमक में अंधेरों से उबरिए

 (एमर्स्टडम 1928).  भारत के हॉकी में पहली बार ओलंपिक चैंपियन बनने के संदर्भ में हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद की भूमिका को रेखांकित करती ये पंक्तियां उस जमाने में एक समाचार पत्र की सुर्खियां थीं. ओलंपिक हॉकी में भारत की रिकॉर्ड आठ स्वर्णिम सफलताओं के उस प्रथम पायदान पर ध्यानचंद ने पांच मैचों में 14 गोल कर दुनिया भर के हॉकी प्रेमियों का दिल जीत लिया था. उसके बाद 1932 के लॉस एंजिल्स एवं 1936 के बर्लिन ओलंपिक खेलों में भी सिरमौर बनकर भारत ने स्वर्णिम तिकड़ी पूरी की. यह भारतीय हॉकी के इतिहास के वे स्वर्णिम पन्ने हैं जिन पर हम सबको नाज है. ध्यानचंद की अगुआई में ओलंपिक में भारतीय गौरव की इस मजबूत आधारशिला के बाद ही आठ ओलंपिक स्वर्ण पदकों का इतिहास कायम हुआ, जिस पर हॉकी के अस्त होते सूरज और पस्त होते हौसलों के बावजूद इतराते हुए भारतीय हॉकी बारम्बार उठ खड़े होने की कोशिश करती रही है.

खेल जगत में भारतीय हॉकी को दुनिया की एक महाशक्ति के रूप में स्थापित करने में हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद की भूमिका नायाब नजीर के रूप में नमनीय और प्रात: स्मरणीय है. दद्दा यानी ध्यानचंद भारतीय हॉकी ही नहीं, समग्र रूप में भारतीय खेलों के इतिहास में पितृ पुरुष का दर्जा रखते हैं. उनकी खेलों के प्रति निष्ठा, समर्पण एवं योगदान को सम्मान देते हुए ही उनके जन्मदिन को राष्ट्रीय खेल दिवस का दर्जा दिया गया है. गत वर्ष दद्दा के 109 वें जन्म दिवस से कुछ रोज पूर्व ही उनका नाम खेल मंत्रालय ने देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ के लिए भेजा था. मगर उन्हें इस सम्मान से वंचित रखा जाना एक ऐतिहासिक भूल रही. जिसका दंश आज भी उनके अनगिनत प्रशंसकों के दिलों में है.

खैर, देश के खेल-प्रेमियों के मन में द्ददा का कद भारत के किसी रत्न से कम नहीं है. वे ‘भारत रत्न’ ही नहीं, देश के खेल शिरोमणि हैं. मेजर ध्यानचंद ने हाथ में स्टिक थामकर न केवल हमारी हॉकी को विश्वव्यापी पहचान दी बल्कि अपने प्रेरणादायी व्यक्तित्व से देश में खेलों के प्रति समर्पण की संस्कृति की नींव रखने में भी महान योगदान दिया. देश के खेल प्रेमियों के दिलों पर दद्दा के प्रति आदर और सम्मान की इबारतें अंकित हैं. स्टिक और गेंद के तालमेल से अद्भुत कौशल का नजारा प्रस्तुत करने का उनका अंदाज आज भी भारतीय गौरव की कहानी के रूप में गूंजता रहता है.

ध्यानचंद का शुमार जेसी ओवंस, सर डॉन ब्रेडमैन और बेब रूथ सरीखी महान खेल शख्सियतों में होता है, जिन्होंने अपने करियर में अद्वितीय प्रदर्शन से पूरी दुनिया को जीत लिया. उन्होंने अपने देश के गौरव और मान को अंतरराष्ट्रीय खेल जगत में अमरत्व प्रदान किया. उनके समय में रचे गए इतिहास के दम पर ही विश्व में भारतीय हॉकी का लोहा माना जाता है.
मेजर ध्यानचंद के जन्म दिवस पर जब हम देश में मौजूदा दौर की हॉकी की दशा और दिशा पर दृष्टिपात करते हुए आकलन करते हैं कि उनकी विरासत को हम कितना सहेज पाए हैं तो दर्द और दंश ही मुहबाएं नजर आते हैं.

हॉकी के गौरव को बरकरार रखना तो दूर, हम आजादी के 67 वर्षों के बाद भी बुलंदियों पर पहुंचने की हूक के स्थान पर खंड-खंड हो चुके हॉकी के साम्राज्य पर एकाधिकार की होड़ देख रहे हैं. दुनिया में फिर सिक्का जमाने और खोया गौरव अर्जित करने की लालसा के बावजूद हमारी हॉकी के हौसले बार-बार लहुलहान कर दिए जाते हैं. मेजर ध्यानचंद द्वारा उलीची गई कर्मठता भारतीय हाकी की बुनियाद में है, फिर भी कालांतर में निजी स्वार्थ और महत्वाकांक्षाओं ने हाकी के दामन को तार-तार किया है.

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विश्व या ओलंपिक विजेता बनने का हमारा सपना 1980 के मास्को ओलंपिक के बाद से हकीकत के धरातल पर अंगड़ाई नहीं ले पाया है. फिर भी चाहे एशियाड, एशिया कप, अजलान शाह कप, विभिन्न मुल्कों के साथ श्रृंखलाएं और कई अन्य प्रतिष्ठित स्पर्धाओं में कामयाबी के लम्हे भारतीय हॉकी की जिजीविषा को रेखांकित करते रहे हैं. हॉकी की जड़ों को राष्ट्रीयता के भाव से सींचने वाले समर्पित खिलाड़ियों की दद्दा के बाद किसी भी पीढ़ी में कोई कमी नहीं रही है.

यही कारण है कि जब घोर निराशा के आलम में उम्मीदों के चिराग टिमटिमा कर गुल होने के कगार पर पहुंचने लगते हैं तो हमारे जांबाज खिलाड़ी अपनी प्रतिबद्धताओं से रोशनी बटोर लाने की मुहिम छेड़ देते हैं. यह बात दीगर है कि मैदान पर चुनौतियों से ड्रिब्लिंग कर अपनी हॉकी के मान को फिर से सफलता के सातवें आसमान पर पहुंचाने की ख्वाहिश अक्सर हॉकी के आकाओं की क्षुद्र मानसिकता की भेंट चढ़ जाती है.

भारतीय हॉकी के लड़ाकों को अक्सर मैदान के बाहर चलने वाले नापाक खेल में उलझकर अपनी ऊर्जा गंवानी पड़ी है. मैदान पर गेंद को ड्रिबल करते-करते जब हौसले फिर से जवां और रवा होने लगते हैं तो इसी बीच संचालकों की हठधर्मिता और हाकी के साम्राज्य पर काबिज होकर उसे निजी हितों का अखाड़ा बनाने की कोशिशें, उड़ान भरते पंखों से चिपक कर, सपनों का दम तोड़ देती हैं. 

चुनौतियों से लोहा लेने का अंदाज और कमजोरियों को दूर कर आगे बढ़ने की सोच के अभाव ने मेजर ध्यानचंद के देश की हॉकी को अर्श से फर्श पर पहुंचा दिया है. कुछ माह पूर्व विश्व कप हाकी में भारत की उम्मीदें एक बार फिर औंधेमुंह गिरीं. वर्षों से एक तरह की समस्याओं और कमजोरियों के आगे बेबस, हताश और लाचार हमारी हॉकी टीम का खेल उस स्तर से ऊपर नहीं उठ पाया जो आधुनिक हॉकी में ओलम्पिक या विश्व कप में अंतिम कोई तमगा जीतने के लिए जरूरी होता है.

गत चार दशकों में टीम में समय-समय पर आमूल बदलाव, देशी-विदेशी कोचों के प्रयोग, विदेशों में ट्रेनिंग, फिजिकल व साईकॉलोजिकल ट्रेनर रखे जाने से लेकर तमाम तरह के कदम उठाए गए हैं, लेकिन इनमें से कोई संजीवनी का काम नहीं कर पाया है. भारत 1975 में विश्व कप और 1980 में मास्को ओलम्पिक में कामयाबी के बाद से एशियाई स्तर के कुछ खिताब, दोयम दज्रे की टीमों की मौजूदगी में मलयेशिया में सुल्तान अजलान शाह कप में एक-आध खिताबी जीत या इक्का दुक्का खिताब और कुछेक श्रृंखलाओं में ही कामयाबी हासिल कर पाया है. बहरहाल, पिछले चालीस वर्षों में भारत का नाम विश्व हॉकी की बुलंदियों पर उस तरह नहीं दमक पाया है, जैसा द्ददा यानी मेजर ध्यानचंद ने दमकाया था.

मनमोहन हर्ष
लेखक


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