गंगा का प्रवाह रोकने की कोशिश अनुचित

Last Updated 27 Aug 2014 01:16:08 AM IST

गंगा जलमार्ग परियोजना के प्राथमिकता में आने की खबर से इन दिनों बिहार-बंगाल के आमजन में बेचैनी की खबर है.


गंगा का प्रवाह रोकने की कोशिश अनुचित

इस परियोजना ने पहले से फरक्का बैराज के दुष्परिणाम झेल रही जनता की चिंता बढ़ा दी है. इसी के साथ फरक्का बैराज से तकनीकी तौर पर निजात की जनाकांक्षा ने जोर मारना शुरू कर दिया है. लोग चाहते हैं कि समाधान ऐसा हो ताकि भारत-बांग्ला देश जलसंधि भी सुरक्षित रहे और बैराज से पलटकर आने वाले पानी की तबाही से भी लोग बच जायें. इस बहाने सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच बैठकों का दौर बढ़ गया है. संभव है कि इस परियोजना को लेकर सरकार को जनांदोलन का सामना करना पड़े और इंटेलीजेंस ब्यूरो आंदोलनकारियों को विकास विरोधी घोषित कर दे. सरकारों ने संवेदनहीनता दिखाई तो यह भी संभव है कि खतरा फरक्का बैराज पर भी गहरा जाये.

दरअसल, गंगा जलमार्ग परियोजना की परिकल्पना का आधार न अविरलता है, न निर्मलता और न व्यापक जनहित. इसका आधार पूर्णत: व्यावसायिक है. इसकी परिकल्पना करते वक्त नदी विज्ञान के कई पहलुओं और बिहार-बंगाल में बैराज व तटबंधों के अनुभवों को नजरअंदाज किया गया है. इसे विचारते समय न डॉल्फिन रिजर्व और न कछुआ सैंचुरी के बारे में सोचा गया है. 2240 मीटर लंबे फरक्का बैराज की असफलता और दुष्परिणाम से भी कुछ नहीं सीखा गया. नहीं सोचा गया कि फरक्का बैराज बनने के बाद समुद्र से चलकर धारा के विपरीत चलकर आने वाली ढाई हजार रुपये प्रति किलो मूल्य वाली बेशकीमती हिल्सा मछली की बड़ी संख्या हम हर साल खो बैठे हैं.

फरक्का बैराज 1975 में बनकर तैयार हुआ. मकसद था इसके जरिए 40 हजार क्यूसेक पानी का रुख बदल दिया जाये, ताकि कलकत्ता बंदरगाह बाढ़ से बच सके. लेकिन इस कारण नदी में आने वाले तलछट का अनुमान नहीं किया गया. दुष्परिणाम सामने हैं. बैराज पूर्व का हिस्सा गाद व तलछट से भरा है. मुर्शिदाबाद का पश्चिमी भाग पहले ही मयूराक्षी और द्वारका जैसी नदियों के उत्पात का शिकार है. भागीरथी में बाढ़ आने पर मुर्शिदाबाद के पूर्वी इलाके में स्थित जलांगी, चुरनी, भैरब, इच्छामति और माथभंगा आदि नदियों का प्रवाह उलट जाता है. उलट प्रवाह को तालाबों-खेतों तक पहुंचाने के लिए पहले आप्लावन नहरों का निर्माण किया गया था. यह प्रणाली सालों-साल चली. अब निर्माण की उलटबांसी के कारण फरक्का से पलटकर आया ऊंचा पानी साल में कई-कई बार विनाश लाता है. ऊंची भूमि भी डूब का शिकार होने को विवश है. इससे हजारों वर्ग किलोमीटर की फसल नष्ट हो जाती है. नदी किनारे की गरीब आबादी फरक्का को अपना दुर्भाग्य मान कोसती है. एक बैराज से उपजी त्रासदी से त्रस्त आबादी 16 नये बैराजों की खबर सुनकर डरे नहीं तो और क्या करे ?

याद रखने की जरूरत है कि किसी भी नदी का एक काम गाद और तलछट को लेकर समुद्र तक पहुंचाना भी है. गंगा ऐसी नदी है, जो दुनिया की किसी भी नदी की तुलना में अपने साथ सर्वाधिक गाद और तलछट लेकर चलती है. उत्तर बिहार की घाघरा, गंडक और कोसी जैसी प्रबल प्रवाह व मिट्टी लेकर चलने वाली नदियां इसमें मिलती हैं. इसी से उत्तर बिहार का उपजाऊ  मैदान बना है. डेल्टा के निर्माण में भी इसकी अहम भूमिका है. पश्चिम बंगाल के 24 परगना जिला स्थित सुंदरबन द्वीप समूह के अस्तित्व पर पहले ही कम संकट नहीं. गाद और तलछट के मार्ग में रुकावट, मैदान के उपजाऊपन और डेल्टा के अस्तित्व पर संकट बढ़ायेगी.

नहीं भूलना चाहिए कि बिहार में वाषिर्क वष्रा का औसत पटना में 1000 मिमी से लेकर पूर्वी हिस्सों में 1600 मिमी तक है. दक्षिण के मैदानी इलाके में जमीन में आद्र्रता संभालकर रखने की क्षमता कम है. गंगा किनारे के इलाके छोड़ दें, तो भूजल स्तर इतना नीचा है कि कुंआ खोद पाना मुश्किल है. सवाल है कि बैराज इस संकट को बढ़ाएंगे कि घटाएंगे? परियोजना नियोजकों ने इस दिशा में बैराज के पर्यावरणीय प्रभाव का कोई आकलन नहीं किया है.

सरकार को समझने की जरूरत है कि हर 100 किलोमीटर पर बैराज बनने से गंगा का प्राकृतिक प्रवाह बाधित होगा. गंगा किनारे के भूजल में यूरेनियम, फ्लोराइड व आर्सेनिक जैसे खतरनाक रसायनों की उपस्थिति बढ़ी है. अब तक जो कचरा, मल, रसायन व मलबा गंगासागर पहुंचने पर समुद्र द्वारा उपचारित होता था, उसके उपचार में समुद्र की भूमिका समाप्त होगी. बैराजों के ऊपरी हिस्से में जमा होकर ये सभी गंगाजल तथा आसपास की मिट्टी तथा भूजल की अशुद्धता बढाएंगे. बैराज में पानी ठहरने से वनस्पतियां भी ठहर जाएंगी. उनके सड़ने से मीथेन जैसी गैस वातावरण में बुरा असर दिखायेगी. गाद से गंगा की जलग्रहण क्षमता घटेगी. इससे जलवायु परिवर्तन के कारणों में गंगा का नकारात्मक योगदान बढ़ेगा. बैराज से कटान बढ़ेगा और तटवर्ती गांवों के गंगा में समाने की आशंका बढ़ेगी. दो बाढ़ों के बीच का अंतराल घटेगा यानी बाढ़ जल्दी-जल्दी आयेगी. बाढ़ का रकबा व तीव्रता बढ़ेगी और जल दूषित होगा. अभी तो बाढ़ अगली फसल में सोना बरसाती है, लेकिन तब सिर्फ बीमारियां फैलायेगी.

गौरतलब है कि 1620 किलोमीटर लंबी गंगा जलमार्ग परियोजना में बैराज के अलावा जलमार्ग को 45 मीटर की चौड़ाई में पांच मीटर तक गहरा करने का प्रस्ताव है. कहा जा रहा है कि प्रवाह में 1500 टन वजन के जहाजों को लेकर चलने की क्षमता विकसित करने के लिए ऐसा करना जरूरी है. हकीकत यह है कि किसी नदी का तल कहां कितना गहरा अथवा उथला होगा, यह तय करने का काम उसके उद्गम और समुद्र से उसके संगम स्थल की ऊंचाई के बीच के अंतर का काम है, सरकार का नहीं.

प्रश्न है कि व्यावसायिक हितों के चलते आखिरकार कोई सरकार कैसे भूल सकती है कि नदी तल को गहरा करना पूरी तरह अवैज्ञानिक, अस्थाई व विध्वंसक कार्य है. नदी गहरा करने का मतलब है, गंगा कटाव के मौलिक स्तर से छेङ़छाड़ करना. नदी को गहरा करने से वह परत समाप्त हो जायेगी, जो गंगाजल की बड़ी मात्रा अपनी गोद में समाये रखती है. इसके समाप्त होने पर गंगा उन दिनों के लिए पानी रोककर नहीं रख सकेगी, जब हमें सबसे ज्यादा पानी की जरूरत होती है. गंगा को कोई कितनी बार गहरा करेगा? अगली बरसात में फिर वे सभी स्थान गाद से भरे होंगे. क्या इसे बार-बार गहरा करने का ठेका दिया जाता रहेगा! यह खर्चीली व्यवस्था क्या स्वीकार्य होगी और खुद सोचिए कि इससे गंगा की अविरलता-निर्मलता घटेगी कि बढेगी!

अरुण तिवारी
लेखक


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