समाज : विचार-क्रांति परिवर्तन की पहली शर्त

Last Updated 24 Aug 2014 12:31:58 AM IST

भारत में पिछले वर्षो में उभरे भ्रष्टाचार विरोधी और व्यवस्था परिवर्तनवादी प्रयोग इतनी बुरी तरह असफल क्यों हुए, यह एक ऐसा सवाल था जिस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए था.


विभांशु दिव्याल, लेखक

इस पर न तो देश के तटस्थ बुद्धिजीवियों ने चिंतन-मनन किया और न उन लोगों ने जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर इन प्रयोगों से जुड़े हुए थे. असफलता के कारणों के रूप में जो कुछ सामने आया वह सतही टिप्पणियों के तौर पर सामने आया या फिर अंध आलोचनाओं के रूप में. इन प्रयोगों का तटस्थता के साथ इनके सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए वस्तुपरक अध्ययन होना चाहिए था और इस अध्ययन को जनता के समक्ष रखा जाना चाहिए था. मीडिया में इसे लेकर सतही बहसें तो हुई, परंतु कुछ भी ऐसा ठोस सामने नहीं आया जिससे जनता की समझ परिष्कृत होती या परिवर्तनवादियों को अपनी दिशा-दशा दुरुस्त करने में मदद मिलती.

गैर-राजनीतिक प्रयोगों को सिरे चढ़ते न देख, इनके बीच से जो राजनीतिक प्रयोग हुआ उसे भी अब असफल मान लिया गया है- राजनीतिक जमातों द्वारा, मीडिया द्वारा और जनता के एक बहुत ही छोटे या नगण्य से हिस्से को छोड़कर स्वयं जनता द्वारा. मेरे जैसे सैकड़ों-हजारों लोगों ने इन प्रयोगों को तमाम शंकाओं-आशंकाओं के बावजूद एक उम्मीद के साथ देखा था. उम्मीद थी कि संलग्न प्रयोगकर्ता जैसे-जैसे आगे बढ़ेंगे, वे राजनीतिक-सामाजिक यथार्थ से रूबरू होंगे. इस यथार्थ की जटिलताओं को समझेंगे, इनका बारीकियों से विश्लेषण करेंगे और अपनी व्यवहार तथा विचारनीतियों में तदनुसार वांछित परिवर्तन करेंगे और अपने प्रयोग को आगे बढ़ाएंगे. लेकिन अंतत: उम्मीदों पर शंकाएं और आशंकाएं भारी पड़ीं. और अब एक विराट निराशा सामने है, मगर फिर भी एक छोटी-सी उम्मीद के साथ कि इन प्रयोगकर्ताओं में जो एक आधारभूत ईमानदारी थी वह अपना रंग अवश्य दिखाएगी. देर-सबेर सही, मगर कुछ अच्छा होगा जरूर.

बहरहाल, अगर अपनी बात करूं तो मैंने गैर-राजनीतिक प्रयोगों की असफलता की घोषणा बहुत पहले कर दी थी, इस बिना पर कि इन प्रयोगों में से वर्तमान राजनीतिक तंत्र की बुनावट को पहचानने की आधारभूत समझदारी गायब थी. और आम आदमी पार्टी के रूप में जो राजनीतिक प्रयोग शुरू हुआ था, उसमें भी मैं इस आधारभूत समझदारी का अभाव देख रहा था. इस प्रयोग में जनता की समस्याओं के प्रति वास्तविक चिंता थी और सत्ता में आकर इन समस्याओं के निराकरण का ईमानदार इरादा भी. परंतु इतना भर पर्याप्त होता तो यह प्रयोग पिछले चुनाव में ही सफल हो गया होता. ऐसा हुआ नहीं. उलटे यह देखने को मिला कि स्वयं इस पार्टी के भीतर ही, चुनावों में मिली असफलता के बाद तो और ज्यादा, तमाम तरह के विग्रह पैदा हो गए. आंतरिक समीक्षा- आत्मविश्लेषण-भूल सुधार जैसी प्रक्रियाएं जो किसी भी संगठन के लिए अनिवार्य होती हैं, कलह-फूट-आपसी निंदा और अनावश्यक आरोपों-प्रत्यारोपों के रूप में ही सामने आई. अब पार्टी में से ही कुछ गुट निकलकर पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को न केवल इसकी कार्यनीति के आधार पर बल्कि विचारनीति के आधार पर भी कटघरे में खड़ा करने में जुट गए हैं. जाहिर है कि पार्टी की भावी महत्वाकांक्षाओं की दृष्टि से यह शुभ लक्षण नहीं है.

यहां मैं भारत में सक्रिय माओवादियों का, जिन्हें आमतौर पर नक्सलवादी कहा जाता है, सूक्ष्म-सा उल्लेख करना चाहूंगा. ये मानते हैं कि किसी भी राज्य के आपाद भ्रष्ट राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक या सांस्कृतिक संबंधों को जो बहुसंख्य जनता के बेतरह शोषण और उत्पीड़न के जिम्मेदार होते हैं, केवल चुनावी प्रक्रिया से नहीं बदला जा सकता, क्योंकि यह चुनावी प्रक्रिया भी अनिवार्यत: इन्हीं भ्रष्ट संबंधों से संचालित होती है. इन संबंधों को आम जनता के पक्ष में केवल हथियारबंद क्रांति के जरिए ही बदला जा सकता है, चुनावी प्रणाली के द्वारा नहीं. दुनिया के बहुत से हिस्सों में बड़े बदलाव इसी विचार के तहत हुए भी हैं. लेकिन भारत एक लोकतांत्रिक देश है और इस देश का लोकतंत्र चुनावी प्रक्रिया के सहारे ही संचालित होता है. अगर चुनावी प्रणाली में बुराई भी है तो यह एक अपरिहार्य बुराई है जिसका कोई तात्कालिक विकल्प भारत में मौजूद नहीं है. अब इस विकल्पहीन चुनावी प्रणाली से निकलकर आम आदमी पार्टी के ईमानदार प्रयास ने क्या हासिल किया, यह सबके सामने है.

तो क्या यह मान लिया जाए कि चुनाव प्रक्रिया के माध्यम से सिर्फ वैसा ही बदलाव संभव है जैसा कि हाल ही में हुआ है, यानी कांग्रेस के स्थान पर भाजपा सरकार की स्थापना. जब स्वयं जनता ने ही यह स्थापना की है तो किसी भी पार्टी को, आपा को भी, किसी बौखलाहट भरी निंदा या आलोचना का क्या अधिकार? लेकिन मूल मुद्दा तो जनता की समस्याओं का है- उस जनता की समस्याओं को जो अपनी समझदारी के अनुसार सत्ता परिवर्तन भी करती है और समस्याओं का निराकरण न होने पर रोती-बिसूरती और चीखती-चिल्लाती भी है. एक बड़े सत्ता परिवर्तन के बावजूद जनता की मूल परेशानियों पर कोई मूल प्रभाव पड़ा हो, ऐसा तो अभी तक नहीं दिखाई दिया. तब जाहिर है कि कुछ ऐसा ठोस अवश्य किया जाना है जो लोकतंत्र की शतरे के भीतर भी हो और त्रस्त जनता की कठिनाइयों-परेशानियों का वास्तविक हल निकालने वाला भी हो.

 अगर वर्तमान में ऐसा कोई औजार है जो वर्तमान लोकतंत्र के दायरे में भी हो और बदलाव की दिशा भी तय करता हो, तो वह केवल सामाजिक-सांस्कृतिक तथा वैचारिक क्रांति का है. आम आदमी पार्टी जैसी परिवर्तनकामी शक्तियों को पहले तो स्वयं वैचारिक तौर पर स्पष्ट होना चाहिए और फिर अपनी स्पष्ट विचारधारा के साथ जनता के बीच जाकर उसे बताना चाहिए कि उसकी परेशानियों की जड़ें वस्तुत: कहां हैं और इन जड़ों पर प्रहार करने के लिए स्वयं उसे किन-किन स्तरों पर बदलना है, उसे सत्ता बदलने के बजाय स्वयं में किस तरह के वैचारिक-सांस्कृतिक-सामाजिक परिवर्तन लाने हैं. राजनीतिक क्रांति से पहले वैचारिक क्रांति जरूरी है. भारत के हाल के प्रयोगों ने यही नहीं किया.



Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment