बारूद के ढेर पर दुनिया
तात्पर्य यह कि हमें उन तिथियों की महत्ता नहीं मालूम जहां से दुनिया ऐसी विभीषिकाओं की ओर गयी थीं जिसमें करोड़ों लोगों की मौत हुई थी या उन्हें वार टैक्स के रूप में जीवन ही देना पड़ गया था.
बारूद के ढेर पर दुनिया |
आज दुनिया जिस दौर से गुजर रही है और चारों तरफ जिस तरह का वातावरण निर्मित हो रहा है, उसे देखते हुए ट्राट्स्की के पहले विश्व युद्ध से ठीक पहले की स्थिति को लेकर कहे वे शब्द याद आते हैं जिसमें उन्होंने लिखा है ‘उस समय की स्थिति सामान्य अफरा-तफरी वाली ही थी, किसी गहरे राष्ट्रवाद की नहीं.’ तात्पर्य यह कि उस समय असंतोष, टकराव, प्रतिरोध और प्रतिशोध से सम्बंधित जो वातावरण बना था, उसका समाधान खोजने की बजाय दुनिया के देश उसे उकसाने का कार्य अधिक कर रहे थे. आज अमेरिका, चीन सहित कुछ यूरोपीय देश जिन नीतियों पर चल रहे हैं वे उन्हीं अध्यायों का हिस्सा हैं जिनकी रचना 20वीं सदी के आरम्भिक दशक में ब्रिटेन, फ्रांस, जापान अथवा जर्मनी ने की थी.
तात्पर्य यह कि हमें उन तिथियों की महत्ता नहीं मालूम जहां से दुनिया ऐसी विभीषिकाओं की ओर गयी थीं जिसमें करोड़ों लोगों की मौत हुई थी या उन्हें वार टैक्स के रूप में जीवन ही देना पड़ गया था. आज राज्यों की अराजकता के साथ आतंकवाद का विषाणु और भी खतरनाक हो चुका है. इसने इराक, मध्यपूर्व के अधिकांश देशों, उत्तरी अफ्रीकी देशों के साथ अफगानिस्तान और पाकिस्तान को बुरी तरह गिरफ्त में ले लिया है. इस्रइल-हमास संघर्ष में बंटती दुनिया और हथियार निर्माता देशों द्वारा लाभ के लोभ में विद्रोहियों व आतंकियों अथवा सत्तापक्ष को हथियार देने की होड़, एक नये किस्म की अशांति पैदा करती दिख रही है.
युद्ध अथवा युद्धजनित विभीषिकाओं से सम्बंधित इतिहास के पन्नों पर तब गौर करना जरूरी हो जाता है जब दुनिया के ताकतवर देश कभी ‘वार इन्ड्यूरिंग फ्रीडम’ के नाम पर, कभी ‘वार अगेंस्ट टेरारिज्म’ के नाम पर तो कभी ‘रेस्टोरेशन ऑफ पीस’ के नाम पर स्वतंत्रताओं व संप्रभुताओं का हनन कर रहे हों. हालांकि दुनिया की प्रत्येक घटना, चाहे वह जास्मिन क्रांति की हो या फिर उसकी आड़ में कभी होस्नी मुबारक को हटाने या गद्दाफी को समाप्त करने अथवा सीरिया में असद सरकार को सत्ताच्युत करने की कार्रवाई, अमेरिका की तरफ उंगली सबसे पहले उठती है. लेकिन आज अमेरिका से भी अधिक चिंतित करने वाली चीन की महत्वाकांक्षाएं हैं. यूरोप भी इससे बचा नहीं है कि वह अमेरिका के साथ खड़ा है.
आज के दौर में कुछ वैसे कार्य अथवा प्रयास जो प्रथम वियुद्ध के पहले ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी जापान द्वारा किए गये थे, अमेरिका व उसके सहयोगियों के साथ-साथ चीन द्वारा किए जा रहे हैं. दूसरा यह कि प्रथम विश्व युद्ध के बाद शांति के नाम पर पेरिस में जो प्रहसन हुआ था, वैसे ही प्रहसन आज तमाम मंचों पर प्रस्तुत किए जा रहे हैं. यह अलग बात है कि मंच बदल गये हैं और कार्य का तरीका भी.
दुनिया पर नजर डाली जाए तो हथियारों के संचय की मानसिकता में कोई परिवर्तन नहीं है. आज ताकतवर ही नहीं बल्कि विकासशील देश भी अधिकाधिक हथियार रखना चाहते हैं भले ही उनके नागरिक भोजन और पानी की मूलभूत जरूरत से वंचित रहें. संयुक्त राष्ट्र भले ही ‘पीस एंड डेमोक्रेसी: मेक योर वाइस र्हड’ की थीम दुनिया के सामने प्रस्तुत कर रहा हो लेकिन दुनिया इससे इतर हथियारों की खरीद के लिए बेहद प्रतिस्पर्धी दिख रही है.
2003 से 2010 के बीच विकासशील देशों में हथियारों की खरीद के मामले में सऊदी अरब पहले स्थान पर रहा है. महत्वपूर्ण बात यह है कि 2007 से 2010 की अवधि में निकट पूर्व (अल्जीरिया, बहरीन, मिस्र, ईरान, इजराइल, जॉर्डन, कुवैत, लेबनान, लीबिया, मोरक्को, ओमान, कतर, सऊदी अरब, सीरिया, ट्यूनीशिया, यूनाइटेड अरब अमीरात और यमन आते हैं) 51.1 प्रतिशत (91.3 अरब डॉलर) के साथ पहले स्थान पर पहुंच गया.
यह वही क्षेत्र है जहां जास्मिन क्रांति हुई व अलकायदा इस्लामी मगरिब (एक्यूआइएम), बोको हरम, अल-शबाब और इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड द लैवेंट जैसे आतंकी संगठनों ने ताकत प्राप्त की. आज ये संगठन दुनिया की व्यवस्था और शांति को चुनौती दे रहे हैं. सवाल है कि इन आतंकी संगठनों के पास इतने हथियार कहां से और कैसे आये? क्या अमेरिका और यूरोप की आर्थिक मंदी और एशियाई देशों सहित आतंकी संगठनों तक हथियार पहुंचने में कोई जटिल सम्बंध तो नहीं छुपा है? जो हो, यह सम्पूर्ण परिदृश्य संकेत कर रहा है कि हम पुन: एक अघोषित युद्ध की तरफ बढ़ रहे हैं.
हिरोशिमा और नागासाकी के बाद समग्र नि:शस्त्रीकरण के लिए प्रतिबद्धता जाहिर करने वाले परमाणु क्लब देशों ने 1945 से लेकर 1998 तक औसतन 38 या 39 परमाणु परीक्षण प्रतिवर्ष किये. इसी का परिणाम है कि दुनिया एक तरफ नि:शस्त्रीकरण और शांति राग गा रही है वहीं दूसरी तरफ रिपोर्ट्स के मुताबिक उसके पास 23,000 अथवा 23,375 परमाणु बम मौजूद हैं. सवाल है कि प्रथम विश्वयुद्ध के बाद से ही नि:शस्त्रीकरण के प्रयास शुरू हुए, एनपीटी और सीटीबीटी जैसी संधियां भी इस उद्देश्य से लायी गयीं फिर दुनिया बारूद के ढेर तक कैसे पहुंच गयी! यह सवाल तब और महत्वपूर्ण हो जाता है जब यह बम की तकनीक और फिसाइल मैटीरियल पी-5 के देशों के पास ही हो.
आखिर पाकिस्तान जैसे देश ने कैस परमाणु बम बना लिया और किस तरह वह परमाणु हथियारों की संख्या बढ़ाता जा रहा है? उत्तर कोरिया और ईरान को नाभिकीय डिजाइंस किसने उपलब्ध कराए और क्यों?
एक कार्य-कारण सम्बंध पर निगाह डालना अपेक्षित है. 19वीं शताब्दी के अंतिम दशकों के बाद से इंग्लैंड की स्थिति अपेक्षाकृत कमजोर होने लगी थी और ‘मेइजी रेस्टोरेशन’ के बाद जापान अपने को एशिया में दैवी सत्ता की तरह पेश करा रहा था. उस समय जर्मनी, रूस, जापान ‘राष्ट्रीय परिधि’ के बाहर दावेदारी पेश करने लगे थे जिसके चलते आर्थिक-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता बढ़ी और सैद्धांतिक गठबंधनों के निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई जो वियुद्ध को जन्म देने में सहायक बने. यथार्थवादी चश्मे से देखें तो आज ब्रिटेन की तरह अमेरिका कमजोर पड़ रहा है जबकि चीन जापान की तरह शक्ति अर्जित कर स्वयं को दैवी ताकत के रूप में पेश करने लगा है.
अफ्रीकी देशों में वह पूरी घुसपैठ कर चुका है, कुछ लातिन अमेरिकी देशों में उसकी पहुंच पक्की हो गई है और एशिया के तमाम देश भय खा रहे हैं. वह कर्ज देने के मामले में विश्व बैंक के समकक्ष अथवा उससे आगे निकल चुका है और ब्रिक्स के जरिए एशियाई नेतृत्व हथियाने में भी कामयाब हो जाएगा.
धन का लालच दे वह देशों में घुसता है और फिर उनके प्राकृतिक व भौतिक संसाधनों को अपनी अर्थव्यवस्था से जोड़ देता है. इस षडयंत्र को जब तक उन देशों के लोग समझ पाते हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है. बहरहाल नवसाम्राज्यवादी विशेषताएं दुनिया को फिर उसी जगह ले गयी हैं जहां से दुनिया वि युद्ध जैसी विभीषिका की ओर गयी थी. लीग ऑफ नेशंस की तरह संयुक्त राष्ट्र ताकतवर देशों के आगे बौना पड़ रहा है और महत्वाकांक्षी ताकतें अपनी तृष्णा पूरी करने के लिए महान चालों का सहारा ले रही हैं. तो क्या मान लें कि इतिहास स्वयं को दोहराने की ओर बढ़ रहा है?
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