घिरता अंधकार, साथ छोड़ते साए

Last Updated 25 Jul 2014 01:09:29 AM IST

कांग्रेस एक दल की जगह एक संस्कृति बन चुकी है और सत्ता से बाहर होते ही बेचैन होना इसकी आदतों में शामिल है.


घिरता अंधकार, साथ छोड़ते साए

अगर नरेंद्र मोदी और उनके प्रशंसकों को इतनी जबरदस्त जीत, पार्टी और संगठन पर पूरा नियंत्रण और समाज के बहुमत के अबाध समर्थन की उम्मीद नहीं रही होगी, तो चुनाव नतीजे आने के पहले तक राहुल गांधी को भी सभी तरफ से ऐसी धुलाई की उम्मीद नहीं रही होगी. कांग्रेस के लिए सबसे बुरी चुनावी हार के बाद अब नेतृत्व पर कांग्रेसियों द्वारा ही सीधे हमले करने, अपनी राज्य सरकारों को अस्थिर करने की कोशिश करने, आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर सहयोगी दलों के साथ ही अपने नेताओं द्वारा अपनाए जा रहे रु ख और खुद राहुल गांधी और उनकी नीतियों पर जिस तरह से हमले हो रहे हैं और बढ़ते जा रहे हैं, वे सिर्फ  राहुल-सोनिया के लिए चिंता का विषय नहीं हैं, वे राजनीति को दूर तक प्रभावित करने की ताकत रखते हैं. जिस तरह नरेंद्र मोदी की जीत और राजनीति देश से गठबंधन राजनीति को विदा करने के साथ ही बहुत कुछ नया लिख रही है या लिखने जा रही है, वैसे ही कांग्रेस की मौजूदा दुर्गति कई नई प्रवृत्तियों को जन्म दे रही है. कांग्रेस और एक मजबूत विकल्प का होना लोकतंत्र के लिए जरूरी है.

कांग्रेस एक दल की जगह एक संस्कृति बन चुकी है और सत्ता से बाहर होते ही बेचैन होना इसकी आदतों में शामिल है. पर सौभाग्य से अभी तक उसके पास ऐसे नेता थे जो सत्ता से बाहर होते ही जनता के बीच जाते थे, समस्याओं को उठाते थे और कांग्रेस को वापस अपने दम पर सत्ता में ले आते थे. इंदिरा गांधी ने यह काम दो मौकों पर किया- बंटवारे से कमजोर पड़ी कांग्रेस के लिए भी और 1977 में जनता द्वारा सत्ता से बाहर करने के बाद भी. वैसे यह काम तो सोनिया गांधी ने भी किया. उनका काम और बड़ा लगता है क्योंकि तब कांग्रेस के सारे दिग्गज अलग हो गए थे और अटल बिहारी वाजपेयी का शासन गठबंधन राजनीति का शीर्ष था.

सो इस बार अगर नारायण राणो या असम के कुछ मंत्री या हरियाणा के बीरेंद्र सिंह जैसे लोग कुछ बोल या कर रहे हैं तो उसे सत्ता जाने या बची-खुची सत्ता में हिस्सेदारी की मांग के रूप में ही देखना होगा. ऐसे लोग अगर कल किसी और दल में जाते हैं या चुनाव के पूर्व गए हैं तो उसे राहुल या कांग्रेस की असफलता से ज्यादा सत्ता की राजनीति के खेल और कुछ अति महत्वाकांक्षी नेताओं की बेचैनी के रूप में ही देखना बेहतर होगा.

लेकिन इससे कांग्रेस और उसके नेतृत्व का दोष समाप्त नहीं हो जाता. अगर दस साल के शासन के बाद कांग्रेस इस बुरी तरह हारती है कि उसे नेता विपक्ष पद के लिए भी गिडगिड़ाने और हाथ पसारने की नौबत आ जाए तो इसे नेतृत्व की असफलता तो मानना होगा. पर इससे भी ज्यादा गड़बड़ है नीतियों-सिद्धांतों को तिलांजलि दे देना. आज भाजपा और कांग्रेस की नीतियों का फर्क खत्म हो गया है. आर्थिक नीति हो या विदेश, गृह मामले हों या शिक्षा के, हर जगह एक-सा घालमेल है. ऐसे में अगर भाजपा बेहतर नेतृत्व और काम करने की उम्मीद जगाती है तो आपको कौन पूछेगा! फिर आपके वश में पांच-छह साल तक महंगाई रोकना नहीं रह गया और भ्रष्टाचार के मामले रिकॉर्ड आकार-प्रकार लेते गए तो आपको जाना ही पड़ेगा. पार्टी के अंदर लोकतंत्र किस चिड़िया का नाम है, लोग जानते ही नहीं. यह सही है कि आपने रोजगार और भोजन समेत कई क्षेत्रों में अधिकार आधारित कार्यक्रम चलाए-कानून बनाए पर इनमें भी भ्रष्टाचार और अकार्यकुशलता ही हावी रही.

पर यह सब कह-सुन लेने के बाद भी यह मानना होगा कि अभी कांग्रेस में जो बेचैनी है, जो बगावती सुर फूट रहे हैं, वह सिर्फ  उपरोक्त कारणों के चलते नहीं है. इसमें खुद राहुल के नेतृत्व की कमियों के साथ सोनिया गांधी द्वारा दिखाए जा रहे पुत्र मोह का भी योगदान है. यह सही है कि जब किसी को भी भरोसा न था तो सोनिया गांधी ने अपने दम पर कांग्रेस को न सिर्फ खड़ा किया, बल्कि दो-दो बार सत्ता में भी पहुंचा दिया. पर यह सबसे बड़ा सच है कि एक आम हिंदुस्तानी मां की तरह वे भी बेटे के प्रेम में बाकी चीजों को दोयम दर्जे का मानने लगी हैं. एक मांग कांग्रेस के अंदर से भी आती रही है कि दस साल देख-आजमा लेने के बाद अब प्रियंका गांधी को आगे किया जाए, पर अभी तक प्रियंका की राजनीति अमेठी-रायबरेली से आगे नहीं गई है और वहां भी वे मां-भाई को चुनाव जितवाने के मकसम से ही जाती दिखी हैं.

दूसरी ओर राहुल को राजनीति में आए एक दशक हो चुका है. उन पर भ्रष्टाचार समेत किसी भी तरह का दाग नहीं है, पर उनकी उपलब्धियां भी गिनवाने लायक नहीं हैं. यह भी सही है कि अभी तक उन्होंने उपलब्धियां बटोरने वाला काम हाथ में लिया ही नहीं है. वे मंत्री बनने से बचते रहे हैं और संगठन के उन सब कामों में उलझे रहे हैं जहां गिनवाने लायक ज्यादा कुछ होता नहीं. उत्तर प्रदेश विधानसभा और फिर लोकसभा चुनाव में राहुल ने क्या और कितना काम किया, सबने देखा था. पर उसका नतीजा क्या निकला, वह और भी ज्यादा लोगों ने देखा. असल में उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद आम चुनाव में कांग्रेस और उसमें भी राहुल के प्रयासों की भारी असफलता के बाद पार्टी में गहरी निराशा का बोध है. यह राहुल की रणनीति की असफलता के साथ उनके नेतृत्व शैली पर भी एक टिप्पणी है. फिर उसके बाद उन्होंने कोई दिलचस्पी ली हो, यह भी नहीं दिखता.

भंवर लाल शर्मा, गुफराने आजम से लेकर दिग्विजय और सलमान खुर्शीद जैसों का बयान इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि राहुल और सोनिया गांधी को लेकर जो बातें विपक्ष और सरकार के आम आलोचक कहते रहे हैं, उन सभी की अनुगूंज इसमें है. साफ लग रहा है कि जो बातें कही गई, वे सचाई के काफी पास हैं और मेरी बातों को गलत ढंग से पेश करने जैसी सफाई भी देने की जरूरत किसी ने महसूस नहीं की. उत्तर प्रदेश की पराजय के बाद सोनिया गांधी तक ने साफ कहा कि हमारी तरफ से अगर कम बयानबाजी होती तो बेहतर होता. इस बार सिर्फ जिम्मेवारी लेने की औपचारिकता के अलावा कुछ कहना सोनिया या राहुल ने मुनासिब नहीं समझा है. सोनिया गांधी सचमुच के वानप्रस्थ में आ गई लगती हैं. उनकी दिलचस्पी घटी है और राहुल वयस्क होकर जिम्मेवारी संभालने के इच्छुक नहीं लगते. लोकतंत्र में भी वंशवादी राजनीति के अभ्यस्त कांग्रेसी इससे घबराएं, यह स्वाभाविक है.

पर इससे भी ज्यादा बडा अंदेशा कांग्रेस में फिर से नरसिंह राव वाला दौर दोहराए जाने का पैदा हो गया है, जिसमें धीरे-धीरे सोनिया गांधी को मात्र शोभा की चीज बना दिया गया था और सारी सत्ता अपने हाथ में ले ली गई थी. प्रणब मुखर्जी की विदाई के बाद से सरकार और आर्थिक नीतियों के मामले में जैसी अफरातफरी मची, उसमें इस बात की ध्वनि आती है. सोनिया ने उदारीकरण की धारा पलट दी हो यह नहीं कहा जा सकता, लेकिन मनरेगा समेत सामाजिक सुरक्षा की अनेक योजनाओं से इसका दंश जरूर कम किया था- इधर के प्रणब मुखर्जी के फैसले भी ज्यादा समझ के लगते थे.

बदलाव और असमंजस की घड़ी में राणो, सलमान खुर्शीद, बीरेंद्र सिंह, हेमंत सरमा जैसों का बयान उनकी निजी हताशा, पार्टी के बनते-बिगड़ते समीकरणों और इन सबसे बढ़कर नए बदलावों के लिए टेस्ट सिग्नल जुटाने की रणनीति का हिस्सा हो सकते हैं. और जब एक साथ सलमान समेत कई तरफ से संकेत आने लगें तो यह मानना ही होगा कि अंदर-अंदर काफी कुछ चल रहा है. अब देखने की बात यह होगी कि राहुल बाबा इससे कुछ सीखते हैं या नहीं, या आगे क्या कुछ करते हैं. उन पर तो और भी बहुत कुछ टिका है- वे यही तो नहीं समझते.

(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)

अरविन्द मोहन
लेखक


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