बढ़ता तापमान, बदलता मौसम, बदहाल दुनिया

Last Updated 12 May 2014 04:28:01 AM IST

आज दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग का सवाल सबसे अहम है क्योंकि जब तक इसका हल नहीं निकलेगा, समूची दुनिया पर संकट मंडराता रहेगा.


बढ़ता तापमान और बदलता मौसम

विश्व स्वास्थ्य संगठन के विशेषज्ञों ने चिंता व्यक्त की है कि आने वाले दिनों में मौसम परिवर्तन का सबसे ज्यादा कहर गरीबों पर बरपेगा. इसके कारण बाढ़, तूफान, सूखा, प्राकृतिक जलस्रोतों के सूखने का संकट पैदा होगा तथा महामारी जैसी प्राकृतिक आपदाएं आयेंगी. जिन देशों में आपदा प्रबन्धन, स्वास्थ्य सेवाओं की समुचित और मजबूत व्यवस्था नहीं होगी, वहां लोग इन आपदाओं और महामारियों के चलते बहुत बड़ी तादाद में अनचाहे मौत के शिकार होंगे. इसके चलते आज धरती प्रलय के कगार पर है. कारण विश्व पर्यावरण का 60 फीसद हिस्सा बेहद खराब स्थिति में है. यह सब ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में दिन-ब-दिन हो रही वृद्धि का नतीजा है.
 
संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने चेतावनी दी है कि इसमें 60 से 80 फीसद कमी लानी होगी. महात्मा गांधी ने इस बारे में करीब एक शताब्दी पहले कहा था कि धरती सभी मनुष्यों एवं प्राणियों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम है, परन्तु किसी एक की लालसा को शांत नहीं कर सकती. वास्तव में मनुष्य की तृष्णा, विषय वासनाएं निरन्तर बढ़ती रहती हैं. हमारे ऋषियों ने भोग की तुलना में त्याग को इसीलिए महत्व दिया. इससे जहां गलाकाट प्रतिद्वंदिता एवं हिंसा रुक जाती है, वहीं प्रकृति और पर्यावरण का भी संरक्षण होता है. गांधीजी कहते थे, यंत्र मनुष्य का सहायक हो पर वह उस पर हावी न हो. लेकिन देश के नीति-नियंताओं ने गांधीजी की बात को अनसुना कर आजादी के बाद विकास के पश्चिमी मॉडल पर आधारित ढांचा अपनाया. 

पर्यावरण की दृष्टि से देश की भयावह तस्वीर का खुलासा विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में किया गया है. उसके अनुसार, 2020 तक भारत विश्व में ऐसा देश होगा, जिसके हवा, पानी, जमीन और वनों पर औद्योगीकरण का सबसे ज्यादा दबाव होगा, वहां पर्यावरण बुरी तरह बिगड़ जाएगा, प्राकृतिक संसाधनों की सांसें टूटने लगेंगी और उसके लिए इस विकास की कीमत चुकाना टेढ़ी खीर होगी. विश्व स्वास्थ्य संगठन की मानें तो जलवायु में भीषण परिवर्तन मानव स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा बनता जा रहा है. जानी-मानी शोध पत्रिका \'प्रोसीडिंग्स ऑफ रॉयल सोसायटी\' में ब्रिटिश व स्विस वैज्ञानिकों ने खुलासा किया है कि बिजलीघरों, फैक्ट्रियों और वाहनों में जीवाष्म ईंधनों के जलने से पैदा होने वाली ग्रीन हाउस गैसें ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार हैं.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार जलवायु परिवर्तन का न केवल स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा बल्कि प्रमुख खाद्यों के उत्पादन में भी कमी आएगी. अंतरराष्ट्रीय कृषि अनुसंधान कंसलटेटिव ग्रुप के अनुसार 2050 तक भारत में सूखे के कारण गेहूं के उत्पादन में 50 प्रतिशत तक की कमी आएगी. गेहूं की इस कमी से भारत के 20 करोड़ लोग भुखमरी की कगार पर होंगे. दिनों-दिन बढ़ती आबादी के कारण आने वाले सालों में भारत में खाद्य संकट का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है. दरअसल, वातावरण में औद्योगिक काल में पहले की तुलना में कार्बन डाइऑक्साइड का संकेद्रण 30 प्रतिशत ज्यादा हुआ है. इससे असह्य गर्मी व लू बढ़ेगी और खड़ी चट्टानों के गिरने की घटनाएं बढ़ेंगी. बहुत ज्यादा ठंड, बहुत ज्यादा गर्मी के कारण तनाव या हाईपोथर्मिया जैसी बीमारियां होंगी और दिल तथा श्वास संबंधी बीमारियों से होने वाली मौतों की संख्या में भी इजाफा होगा.

\'क्रिश्चियन एड\' नामक संस्था की रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि मौसम में बदलाव के कारण आगामी दिनों में आजीविका के संसाधनों यानी पानी की कमी और फसलों की बर्बादी के चलते दुनिया के अनेक भागों में स्थानीय स्तर पर जंग छिड़ने से 2050 तक एक अरब निर्धन लोग अपना घर-बार छोड़ शरणार्थी के रूप में रहने को विवश होंगे. यूएन के अंतरसरकारी पैनल की रिपोर्ट के अनुसार 2080 तक 3.2 अरब लोग पानी की तंगी, 60 करोड़ लोग भोजन और तटीय इलाकों के 60 लाख लोग बाढ़ की समस्या से जूझेंगे. कोलम्बिया यूनीवर्सिटी के वैज्ञानिक स्टीफन मॉर्स के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव मलेरिया, फ्लू आदि बीमारियों के वितरण और संचरण में प्रभाव लाने वाला साबित होगा और ये पूरे साल फैलेंगी. पहाड़ों पर ठंड के बावजूद मलेरिया फैलेगा. लोगों को पहले के मुकाबले ज्यादा संक्रामक रोगों का सामना करना पड़ेगा, किसी खास क्षेत्र में सूखे के कारण ज्यादातर लोगों को शहरों की ओर पलायन करना पड़ेगा, नतीजन शहरों में आवासीय व जनसंख्या की समस्या विकराल होगी. दैनिक सुविधाएं उपलब्ध कराने में प्रशासन को दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा और खासकर विकासशील देशों में उच्च घनत्व वाली आबादी के बीच एचआईवी, तपेदिक, श्वास रोग व यौन रोगों में वृद्धि होगी. निष्कर्ष यह कि ग्लोबल वार्मिंग की मार से कोई नहीं बचेगा और बिजली-पानी के लिए त्राहि-त्राहि करते लोग संक्रामक बीमारियों के शिकार होकर अनचाहे मौत के मुंह में जाने को विवश होंगे.

संयुक्त राष्ट्र के अनुसार कुल कार्बन डाई ऑक्साइड गैस के उत्सर्जन में 2008 में अमेरिका का योगदान 546.1 करोड़, चीन का 703.1, रूस का 170.8, जापान का 120.8 और भारत का 174.2 करोड़ टन था. वैष्विक उर्त्सजन में अमेरिका की हिस्सेदारी 18.27 फीसद, चीन की 23.53 फीसद, रूस की 5.27 फीसद, जापान की 4.04 फीसद और भारत की 5.83 फीसद है. कोपेनहेगन सम्मेलन, दोहा और वारसा बैठकों की नाकामी साबित करती है कि हमें कुछ करना होगा. विश्व परिदृश्य पर ग्लोबल वार्मिंग से निबटने का सवाल आसान नहीं है, क्योंकि बीसवीं सदी के अंत में बहुतेरे ऐसे देश भी औद्योगिक विकास की अंधी दौड़ में शामिल हुए जो पहले धीमी रफ्तार से इस ओर बढ़ रहे थे. इसका कारगर समाधान है विकास के किफायती रास्तों की खोज, जिसका धरती और वायुमंडल पर बोझ न पड़े. खर्चीले ईंधन जलाने वाला विकास का तरीका लंबे समय के लिए न तो उचित है, न उपयोगी. कारण अब धरती के पास इतना ईंधन ही नहीं बचा है. अब तो इसकी प्रबल संभावना है कि भविष्य में विश्व नेतृत्व भी उसी के पास रहे जो किफायती और पर्यावरण के प्रति संवेदनशील व्यवस्था और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में पहल कर पाने में समर्थ होगा.

यह सही है कि पर्यावरण संरक्षण की दिशा में आज उठाए गए कदम लगभग एक दशक बाद अपना सकारात्मक प्रभाव दिखाएंगे. लेकिन अभी तो शुरुआत करनी पड़ेगी. हम सबसे पहले अपनी जीवनशैली बदलें और अधिक से अधिक पेड़ लगाएं, जिससे ईंधन के लिए उनके बीज, पत्ते, तने काम आएंगे और धरती के अंदर गड़े कार्बन को वहीं रखकर वातावरण को बचा सकेंगे. यदि हम समय रहते  कुछ कर पाने में नाकाम रहे तो वह दिन दूर नहीं जब इंसान, जीव-जंतु और प्राकृतिक धरोहरों तक का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा.

ज्ञानेन्द्र रावत


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