गिलानी के ‘मोदी कार्ड’ का रहस्य

Last Updated 23 Apr 2014 01:02:18 AM IST

भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के दो कश्मीरी पंडित दूत हुर्रियत कांफ्रेंस के पाकिस्तान समर्थक नेता सैयद अली शाह गिलानी से मिले या नहीं यह अलग विषय है


गिलानी के ‘मोदी कार्ड’ का रहस्य

लेकिन इससे एक बात जरूर जाहिर होती है कि समस्याएं अपना इलाज ढूंढने के लिए बेचैन रहती हैं. गिलानी सच बोलेंगे, इसका ठोस आधार नहीं है क्योंकि उनकी प्राथमिकता न भारत है और न भाजपा व नरेंद्र मोदी की हिंदुत्व के विचारों वाली पार्टी.

वह हुर्रियत कांफ्रेस के यासीन मलिक जैसे नेताओं की तरह ईमानदार भी नहीं हैं फिर भी चुनाव के मौके पर वह कुछ रहस्योद्घाटन कर रहे हैं तो उनका उद्देश्य हुर्रियत कांफ्रेंस के उदारवादी नेताओं की राजनीति को लंगड़ी मारना भी हो सकता है और भारतीय राज्य पर काबिज होने की तैयारी में लगी एक पार्टी से रिश्ता बनाने और बुढ़ापे में भी अपनी अहमियत बताने से हो सकता है. चुनाव विरोधी गिलानी का मानना है कि चुनाव से न प्रशासन सुधरेगा और न कश्मीर की समस्या हल होने वाली है. इसीलिए उन्होंने युवाओं से 24 अप्रैल को दक्षिण कश्मीर, 30 अप्रैल को श्रीनगर और 7 मई को बारामूला में होने वाले लोकसभा चुनाव के बायकाट की अपील की है. वे अपनी आजादी की मांग पर कायम हैं लेकिन उनके बयान से भारतीय जनता पार्टी की किरकिरी हुई है. यही कारण है कि भाजपा न सिर्फ उनके बयान का खंडन कर रही है बल्कि उन पर माफी मांगने का दबाव भी बना रही है.

जाहिर है, गिलानी हुर्रियत कांफ्रेंस के सबसे कट्टर नेता हैं और कश्मीर की आजादी से ज्यादा उसे पाकिस्तान में मिलाए जाने के समर्थक हैं. इसलिए जो भारतीय जनता पार्टी प्रशांत भूषण को महज जनमत संग्रह कराए जाने और सशस्त्र बल विशेष अधिनियम हटाने का सुझाव देने पर राजनीतिक और शारीरिक हमला करवाती है, वह भला गिलानी से संपर्क क्यों साधेगी.

अगर भाजपा गिलानी जैसे कट्टरपंथी और भारत विरोधी नेताओं से संपर्क करेगी तो उन समर्थकों की कीमत पर जो उससे एक तरफ संविधान के अनुच्छेद 370 को खत्म करवाना चाहते हैं, कश्मीर को हिंदू बहुल आबादी में बदल देना चाहते हैं. अगर गिलानी की बात गलत भी है और जिसकी काफी संभावना है तो भी इस बात में शक नहीं है कि नरेंद्र मोदी अपने को लगभग प्रधानमंत्री मान कर आगे की तैयारी कर रहे हैं. वे अपने को न सिर्फ  विकास पुरुष के रूप में प्रचारित चुके हैं बल्कि इतिहास पुरुष के रूप में भी साबित करना चाहते हैं. कश्मीर समस्या के समाधान की दिशा में मोदी का बेशक इरादा नेक हो लेकिन इसके लिए उन्हें और उनकी पार्टी को सोच में बड़े बदलाव की जरूरत है.

यह बदलाव महज दूतों से नहीं होगा. सवाल है कि क्या नरेंद्र मोदी,  भाजपा और उससे भी पहले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपने मानस में वह खुलापन लाने को तैयार है जिसको आधार बनाकर कश्मीर समस्या का समाधान हो सकता है? स्पष्ट तौर पर कश्मीर-समस्या का समाधान पंडित नेहरू की उलझाने वाली नीतियों से नहीं होगा लेकिन वह श्यामा प्रसाद मुखर्जी, मुरली मनोहर जोशी की मानसिकता से भी नहीं होगा. कश्मीर के बारे में भारतीय जनता पार्टी का पूरा मानस जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी के आंदोलन और जेल में उनकी असामयिक मृत्यु से संचालित होता है. भाजपा जब भी कश्मीर के बारे में कुछ सोचती है तो उसके सामने उनका वही नारा आ जाता है कि एक देश में दो विधान, दो प्रधान और दो निशान नहीं चलेंगे.

डॉ मुखर्जी बिना परमिट के कश्मीर गए और गिरफ्तार हुए. उस समय कश्मीर में सदर-ए-रियासत और वजीरे आला हुआ करते थे. हालांकि डॉ मुखर्जी की मृत्यु के बाद वह पद समाप्त समाप्त हो गय, परमिट व्यवस्था खत्म हो गई लेकिन अनुच्छेद 370 बना रहा. उसके बाद जनसंघ और उसकी विरासत संभाल रही भाजपा लगातार उसे खत्म करने का आंदोलन करती रही और 1991 में भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ मुरली मनोहर जोशी ने 370 को मुद्दा बना कन्याकुमारी से कश्मीर तक यात्रा भी की. लेकिन भाजपा के समझदार नेता जानते हैं कि धारा 370 खत्म करना आसान नहीं है और अव्यावहारिक भी है.

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन बनाकर भाजपा के पहले प्रधानमंत्री बनने वाले अटल बिहारी वाजपेई जानते थे कि अगर वे अनुच्छेद 370 खत्म करने की जिद पकड़कर बैठे रहेंगे तो उनकी पार्टी को दूसरे दल समर्थन नहीं करने वाले हैं. न ही वे कश्मीर के नेताओं से संवाद कायम कर सकेंगे. बल्कि वाजपेयी ने कश्मीर के नेताओं से संवाद कायम करने के लिए संविधान के दायरे की रट भी छोड़ दी. वाजपेयी का कहना कि वे कश्मीर के नेताओं से मानवता के दायरे में बात करना चाहते हैं, बड़ी बात थी.

वह बने बनाए ढांचे को तोड़ने वाली बात थी , हालांकि वह हवाई बनकर रह गई. दरअसल आज हुर्रियत कांफ्रेंस के नेता मौलवी मीर वाइज फारूक, पीडीपी नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद और महबूबा मुफ्ती नरेंद्र मोदी में वाजपेयी जैसी उदारता विकसित करना चाहते हैं और शायद अपनी तमाम आक्रामकता और कट्टरता के बावजूद मोदी में वाजपेयी जैसी उदार छवि का लालच पैदा होने लगा है. अगर मोदी ने गिलानी के पास कोई दूत भेजा भी होगा तो उनकी तैयारी उसी दिशा में उठाया गया कदम है. यह भारतीय जनता पार्टी की विडंबना और अंतर्विरोध भी है और उसकी कामयाबी की नियति भी.

भाजपा और संघ परिवार को मालूम है कि उसे इस देश की सत्ता हासिल करने के लिए उग्र हिंदुत्व के सहारे की जरूरत है लेकिन इस पर शासन के लिए  कांग्रेसियों जैसी उदारता चाहिए. तभी तो नरेंद्र मोदी जहां जम्मू की रैली में केजरीवाल को एके-49 और एके एंटनी को देशद्रोही कहते हैं तो दूसरी ओर यह भी कहते हैं कि कश्मीर समस्या का हल लोकतंत्र, इंसानियत और कश्मीरियत के दायरे में ही हो सकता है. कटुता और उदारता के इस दोहरेपन के बीच झूलता संघ परिवार अपनी कट्टर विरासत के चलते झेलम के इस किनारे से उस किनारे तक पहुंच नहीं पाता जहां किसी सुलह-समझौते और शांति का अपना पाट मिलता है.

भाजपा को कश्मीर संबंधी उन तमाम प्रयासों पर भी गौर करना होगा जो एनडीए की वाजपेयी ही नहीं, कांग्रेस सरकारों ने भी किया. कांग्रेस की गलती यह रही कि उसने कश्मीर समस्या के हल के कई मौके गंवाए. उसमें सीमा पार की पाकिस्तान सरकार की अस्थिरता भी जिम्मेदार रही. जाहरि है, यदि मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं और कश्मीर समस्या पर इंसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत के दायरे में कोई प्रयास करते हैं, उन्हें कश्मीर के उग्रवादियों व पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठानों से ज्यादा संघ परिवार की संस्थाओं से लड़ना होगा. उन्हें अगर उदारता का चरित्र अपनाना था तो अपने घोषणा पत्र में अनुच्छेद 370 के इस तरह के उल्लेख से बचना चाहिए था.

गौरतलब है कि जम्मू-कश्मीर पर बने दिलीप पडगांवकर, राधाकुमार और एसएम अंसारी जैसे वार्ताकारों के पैनल ने साफ कहा है कि अनुच्छेद 370 रहना ही चाहिए क्योंकि घड़ी की सुई उल्टी दिशा में नहीं घूम सकती. ऐसे में बड़ा सवाल है कि क्या हम इंसानियत का दायरा ऐसा बना सकते हैं जिसमें भारत-पाकिस्तान के शासक और हुर्रियत कांफ्रेंस के गिलानी ही नहीं, दूसरे नेता मिलकर कोई रास्ता निकाल सकें?

अरुण कुमार त्रिपाठी
लेखक


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