प्रकृति संरक्षण का पर्व

Last Updated 08 Apr 2011 12:22:21 AM IST

हर वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नव संवत्सर के साथ ही देश में वासन्तिक नवरात्र का पूजा महोत्सव भी धूमधाम से प्रारम्भ हो जाता है.


शक्ति पूजन की यह परम्परा नवरात्र के अवसर पर इतना व्यापक रूप धारण कर लेती है कि उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी और पश्चिम में राजस्थान से लेकर पूर्व में गुवाहाटी तक जितने भी ग्राम, नगर और प्रान्त हैं, सब अपनी अपनी आस्थाओं और पूजा शैलियों के अनुसार लाखों-करोड़ों दुर्गाओं की सृष्टि कर डालते हैं.

शक्तिसंगमतन्त्र में नवरात्र की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि नवरात्र नवशक्तियों के सायुज्य का पर्व है जिसकी एक-एक तिथि में एक-एक शक्ति प्रतिष्ठित है- नवशक्तिभि: संयुक्तं नवरात्रं तदुच्यते/एकैव देव देवेशि! नवध परितिष्ठिता. मार्कण्डेयपुराण के अनुसार नवरात्र में जिन नौ देवियों की पूजा अर्चना की जाती है उनके नाम हैं- शैलपुत्री, ब्रहृचारिणी, चन्द्रघंटा, कूष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री.

पर्यावरण संतुलन की दृष्टि से हिमालय की प्रधान भूमिका है. यह पर्वत मौसम नियन्ता होने के साथ देश को राजनैतिक सुरक्षा व आर्थिक संसाधन भी मुहैया करता है. ग्लोबल वार्मिंग के कारण ग्लेशियर पिघलने से पर्यावरण संकट का खतरा सबसे पहले हिमालय को ही झेलना पड़ता है इसलिए देवी के नौ रूपों में हिमालय प्रकृति को शैलपुत्री रूप में सर्वप्रथम स्थान दिया गया है. दुर्गासप्तशती के अनुसार शुम्भ, निशुम्भ आदि राक्षसों ने सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु को अपने नियंत्रण में कर ब्राहृांड की प्राकृतिक व्यवस्था असंतुलित कर दी था. तब पर्यावरण संकट से बचाने के लिए देवताओं और ऋषि-मुनियों को हिमालय जाकर जगदम्बा से प्रार्थना करनी पड़ी कि नमो देव्यौ महादेव्यै शिवायै सततं नम:/नम: प्रकृत्यै भद्रायै नियता: प्रणता स्म ताम्. अर्थात हे लोक कल्याणी प्रकृति देवी! हम सब तुम्हारी शरण में हैं, हमारी रक्षा करो.

चिन्ता का विषय है कि इस वर्ष चार अपैल को पूरा देश जब प्रथम नवरात्र के दिन श्रद्धा से शैलपुत्री की समाराधना कर रहा था तो देवी ने कंपित होकर 5.7 रिक्टर पैमाने के भूकम्प द्वारा दिल्ली, उत्तराखंड सहित समूचे हिमालय में हडकम्प पैदा कर पर्यावरण को हानि पहुंचाने वालों को संकेत दे दिया कि शैलपुत्री के रूप में विख्यात हिमालय की प्रकृति आज तनावग्रस्त है. केन्द्रीय पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि भारत-नेपाल सीमा पर आये इस भूकम्प से पहले दो अप्रैल को कश्मीर जिनजियांग सीमा क्षेत्र में 4.9 और एक अप्रैल को हिन्दुकुश क्षेत्र में 5.2 रिक्टर का भूकम्प एशिया महाद्वीप के लिए खतरे के पूर्व संकेत हैं. इसलिए हिमालय प्रकृति के संरक्षण की चिन्ता नवरात्र में और भी प्रासंगिक हो गई है.

प्रकृति क्या है? प्रकृति प्रकोप क्यों उभरते हैं? और उनसे मुक्ति का उपाय क्या है? इन शाश्वत प्रश्नों का मानव अस्तित्व से गहरा संबंध है. आधुनिक विज्ञान के पास इनका कोई उत्तर नहीं. विज्ञान स्वयं में जड़ है इसलिए वह प्रकृति को भी जड़बुद्धि से देखता है. पर सचाई यह है कि प्रकृति जब तबाही पर उतर आती है तो वह परमाणु सम्पन्न शहरों को भी कैसे लील जाती है, इसका ताजा उदाहरण जापान में आये भूकम्प और सुनामी की तांडव लीला है.

प्रकृति वैज्ञानिक बार-बार चेतावनी दे रहे हैं कि प्रकृति के साथ अंध विकासवादी विज्ञान यदि छेड़छाड़ करेगा तो प्रकृति महाकाली का रूप धारण कर उसे काबू में लाना भी जानती है. आज समूचे विश्व में विकासवाद के नाम पर ग्लोबल वार्मिंग फैलाने वाले धूम्रलोचनों ने प्रकृति को कुपित कर दिया है. मधु-कैटभी अंधविकासवाद के तेवर उसे दासी बनाकर रखना चाहते हैं तो शुम्भ-निशुम्भ की आसुरी शक्तियां महामाया प्रकृति की सुन्दरता से मोहित हो उसके साथ गान्धर्व विवाह रचाना चाहती हैं.

उधर विश्व संरक्षिका जगदम्बा ने भी पर्यावरण विरोधी असुरों को चुनौती दी है कि जो देवासुर संग्राम में शक्तिशाली बन उसे जीत लेगा वही उसका स्वामी होगा- यो मां जयति संग्रामे यो मे दर्पं व्यपोहति/यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्ता भविष्यति.

दरअसल, प्रकृति-पूजा का विचारतंत्र नवरात्र में एक राष्ट्रीय महोत्सव जैसा रूप इसलिए धारण कर लेता है ताकि पर्यावरण संरक्षण की भारतीय परम्परा को चिरन्तन रूप दिया जा सके. इसे शक्तिपूजा के पौराणिक आख्यान के साथ इसलिए जोड़ा गया है ताकि पर्यावरण संचेतना का यह वार्षिक उत्सव व्यक्ति, समाज और राष्ट्र तीनों स्तरों पर उपयोगी हो सके.

इसी प्रयोजन से दुर्गासप्तशती में विश्व पर्यावरण की पीड़ा दूर करने के लिए समस्त प्राकृतिक आपदाओं से रक्षा करने वाली नवदुर्गा का आह्वान है. परन्तु चिंता यह भी है कि उपभोक्तावादी जीवन मूल्यों ने शक्तिपूजा को मात्र धमक पूजा अनुष्ठान तक सीमित कर दिया है. पर्यावरण विज्ञान की पश्चिमी दृष्टि भी प्रकृति को मातृभाव से सम्मान देने के बजाय उपभोक्तावादी नजरिए से मूल्यांकित करती है. यही कारण है कि उपभोक्तावाद तथा विकासवाद के आक्रमण से आज प्रकृति तनाव के दौर से गुजर रही है.

उसके दुष्परिणामों से मानव को बचाने का कोई रास्ता आधुनिक पश्चिमी पर्यावरणविज्ञान के पास नहीं है. मैसोपोटामिया, हड़प्पा, तथा महाभारतयुगीन उन्नत तथा विकसित सभ्यताएं केवल इसलिए नष्ट हो गर्इं क्योंकि प्रकृति-प्रकोपों से बचने का कोई उपाय उनके पास नहीं बचा था. भारत के प्रकृति उपासकों का पूरी दुनिया को संदेश है कि वर्ष में दो बार आने वाले नवरात्र को प्रकृति पूजा अथवा पर्यावरण संरक्षण के पखवाड़े के रूप में मनाया जाए.

मोहनचंद तिवारी
लेखक


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