समान शिक्षा प्रणाली की अनिवार्यता

Last Updated 24 Nov 2010 01:22:05 AM IST

भारत में आर्थिक विकास दर की रफ्तार भले चरम पर है लेकिन शिक्षा, स्वास्थ्य व लैंगिक समानता जैसे सवालों पर देश अब भी फिसड्डी साबित हो रहा है।


अरविंद जयतिलक

कोई भी देश सामाजिक आर्थिक मोर्चे पर अग्रणी तभी दिख सकता है, जब वहां शिक्षा प्रणाली सभी वर्गों के लिए समान और सुलभकारी हो। अगर सामाजिक मसलों पर पिछड़ने के कारण तलाशें तो कहीं न कहीं विसंगतिपूर्ण शिक्षा प्रणाली महत्वपूर्ण कारण है।

आजादी के छह दशक बाद भी समान शिक्षा प्रणाली की अवधारणा भारतीय समाज के लिए सपना है। दुनिया के सर्वाधिक निरक्षर लोगों की आबादी में 35 फीसद भारत में है। मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने भरोसा दिलाया है कि 2020 तक देश में शत-प्रतिशत साक्षरता लक्ष्य पूरा कर लिया जाएगा लेकिन हालात देखते हुए ऐसा होना किसी जादू से कम नहीं होगा। एजूकेशन फॅार ऑल मॉनिटरिंग रिपोर्ट पर विश्वास करें तो दुनिया की सर्वाधिक निरक्षर आबादी के साथ भारत प्रगति कर रहा है। पर इस विद्रूप प्रगति का लाभ निरक्षरता हटाने में कितना लाभकारी सिद्ध होगा, यह आने वाला वक्त बताएगा।

उदार अर्थव्यवस्था के कारण आज भारत में शिक्षा का बाजार 50 अरब डॉलर से पार हो गया है। एसोचैम की रिपोर्ट के मुताबिक भविष्य में भारत में इंजीनियरिंग, मेडिकल और प्रबंधन कॉलेजों की संख्या हजारों में होगी लेकिन लाख टके का सवाल यह कि अरबों डॉलर वाली बाजारवादी शिक्षा देश की निरक्षरता समाप्त करने और लोगों को रोजगार देने में किस हद तक सहायक होगी? यह बाजारवादी शिक्षा का ही दुष्परिणाम है कि इंजीनियरिंग की डिग्री से लैस लाखों बेरोजगारों की फौज सड़क पर है। शिक्षा पर सरकार को जितना खर्च करना चाहिए, उतना नहीं हो रहा है। बानगी की तौर पर 1991 में सकल घरेलू उत्पाद का महज 0.77 प्रतिशत ही शिक्षा पर खर्च किया गया और एक दशक बाद भी शिक्षा के बजट को लेकर सरकार का रवैया निराशाजनक ही रहा। अब भी सकल घरेलू उत्पाद का महज एक फीसद हिस्सा शिक्षा पर खर्च होता नहीं दिखता। सरकार पिछले दो सालों से अपनी शिक्षा कर की धनराशि तक खर्च नहीं कर पायी है। सर्व शिक्षा अभियान के माध्यम से सरकार का लक्ष्य जल्द से जल्द निरक्षरता समाप्त करने का है लेकिन जल्दबाजी से कुछ होने जाने वाला नहीं है। इसके लिए ठोस कार्ययोजना जरूरी है ताकि सबको शिक्षा का समान अवसर उपलब्ध हो।

इसकी शुरुआत प्राथमिक शिक्षा स्तर से हो सकती है पर फिलहाल प्राथमिक शिक्षा की स्थिति बेहद दयनीय है। स्कूलों में जरूरत के हिसाब से न शिक्षक हैं और न बुनियादी संसाधन। सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद आज भी 10 करोड़ बच्चे विद्यालयों की चौखट तक नहीं पहुंच पाए हैं। जहां तक साक्षरता दर का सवाल है, तो 1950-51 में यह 18.33 फीसद थी और आज 64.1 फीसद है। यानी साठ साल बाद भी साक्षरता दर का आंकड़ा चौगुने से काफी कम है।
 
शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने और मध्याह्न भोजन के कारण स्कूलों में छात्र संख्या तो बढ़ी, लेकिन प्रश्न है कि यह संख्या सरकार के कागजी घोड़े पर सवार होकर कितना प्रगति कर पाएगी। इसे प्रगति का सूचक मान भी लें तो भी इसमें अनेक खामियां हैं। मसलन साक्षरता दर में लैंगिक भेदभाव सवाल खड़े करता है। जहां पुरुष वयस्क साक्षरता दर 76.9 है, वहीं महिला वयस्क साक्षरता दर 54.4 फीसद।

सबसे बड़े राज्य उप्र के 18675 प्राथमिक विद्यालयों में एक-एक शिक्षक तैनात हैं। अन्य राज्यों की भी कमोवेश यही स्थिति है। शिक्षा गारंटी अधिकार कानून के तहत खर्च होने वाली धनराशि को लेकर केंद्र और राज्य सरकारों के मध्य टकराव दिखा। नीतियों को लेकर भी संदेह की स्थिति बनी हुई है। केंद्र सरकार सूचना प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने के लिए देश में 150 स्मार्ट स्कूल खोलने की योजना है। माना जा रहा है कि माध्यमिक स्तर के इन स्कूलों में विशेष तौर पर कम्प्यूटर शिक्षा पर फोकस होगा। यह सुखद है लेकिन इसका लाभ ग्रामीण बच्चों को भी मिलना चाहिए।

आज तो आलम यह है कि ग्रामीण बच्चों के लिए खोले गये नवोदय विद्यालय भी अपने लक्ष्य में पिछड़ रहे हैं। देश भर में अभी 600 नवोदय विद्यालय हैं और हाल ही में 31 और के खोलने की बात कही गई है लेकिन बच्चों की बढ़ती तादात देखते हुए इनकी संख्या ऊंट के मुंह में जीरा साबित होगी। दूसरा दुखदायी सच यह है कि नवोदय विद्यालयों में ग्रामीण बच्चों के बजाए सामर्थ्यवानों के बच्चों की आमद बढ़ रही है। पिछले दिनों सरकार के संज्ञान में भी यह बात आयी कि शहरी क्षेत्र के रसूखदार लोग फर्जी तरीके से प्रमाण-पत्र बना अपने बच्चों को नवोदय विद्यालयों में दाखिल कर रहे हैं। यह स्थिति साक्षरता मिशन अभियान में कोढ़ में खाज साबित होगी। रही बात समान शिक्षा प्रणाली की स्थापना की तो वह अभी भी दूर की कौड़ी है।



Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment