अन्नाद्रमुक ने एनडीए का छोड़ा साथ
अन्नाद्रमुक वह चौथा सहयोगी दल है, जिसने भाजपा और एनडीए का साथ छोड़ दिया है। इसके पहले शिवसेना, अकाली दल और जद यू एनडीए से अलग हो गए थे। अब कहा जाने लगा है कि ‘भाजपा वह ऊंट है,जो टेंट (एनडीए) में अकेले रहना चाहती है’।
![]() अन्नाद्रमुक ने छोड़ा साथ |
ऐसा है तो फिर उस कुनबे से कुछ और दलों को बाहर आना चाहिए। तो क्या जी-20, गैस के दामों में गिरावट, कतार में दौड़ी चली आ रहीं योजनाएं, और नारी शक्ति वंदन अधिनियम की उपलब्धियां भी सहयोगियों को टिका नहीं पा रही हैं? क्या अन्नाद्रमुक का बहिर्गमन एनडीए में किसी अफरातफरी की पूर्व सूचना है? इनमें कोई भी सच नहीं हैं। दरअसल, अन्नाद्रमुक-भाजपा का यह विलगाव तो होना ही था। इस साल के फरवरी से यह उठापटक चल रही थी-कई-कई मुद्दों पर।
मुख्यत: द्विदलीय व्यवस्था वाले तमिलनाडु की राजनीतिक जमीन ‘सनातनी’ से अलग द्रविड़ीय है। यहां पैठ बनाने के लिए भाजपा दशकों से द्रविड़ प्राणायाम कर रही है। 2021 के विधानसभा चुनाव में अन्नाद्रमुक के सहयोग से चार सीटें लेने और के अन्नामलाई की आक्रामक अध्यक्षता में उसे यह भरोसा हो रहा है कि एक दिन वह यहां भी राजनीतिक फिजां बदल सकती है। जैसे वह लोकसभा में मिली दो सीटों से बहुमत तक पहुंची थी। पर यह यहां अभी आसान नहीं है।
भाजपा अपनी राजनीतिक एवं सनातनी हिन्दुत्व की विचारधारा से विरोधी द्रमुक से टकरा रही है तो दूसरी तरफ दशकों के दोस्त अन्नाद्रमुक के आधार पर भी पंजा पसार रही है। उसके अध्यक्ष अन्नामलाई प्रदेश की यात्रा (मेरी धरती, मेरे लोग) पर हैं और हिंदुत्व एवं भ्रष्टाचार के मुद्दे पर किसी को बख्श नहीं रहे हैं। अन्नाद्रमुक के लिए यह बहाना बना है-गठबंधन से बाहर आने के लिए। लेकिन राजनीतिक यथार्थ यह है कि अन्नाद्रमुक को अपनी पहचान और अस्तित्व मिटने की चिंता ने डिसाइसिव फैक्टर का काम किया है।
भाजपा के साथ होने से उसका द्रविड़ आधार गड्मड् हो रहा था। द्रमुक को उस पर हमलावर होने का अवसर दे रहा था। लिहाजा, भाजपा से अलग होकर अन्नाद्रमुक अपने बेस को मजबूत करेगी और अल्पसंख्यक के वोट ले कर सूबे में एक फोर्स बनी रह सकेगी। वहीं द्रमुक को इस विलगाव से घाटा हुआ है। उसके वोट बैंक पर विरासती खींचतान होगी तो सत्ताविरोधी मत अन्नाद्रमुक मिलेगा। हालांकि इस मत पर अन्नामलाई का दावा है,जो भ्रष्टाचार पर हमलावर हैं और पार्टी का साथ है।
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