कर्नाटक के संदेश
कर्नाटक की तीन लोक सभा और दो विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजों ने निस्संदेह, भाजपा विरोधी खेमे में उत्साह पैदा किया है।
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कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन को एक लोक सभा क्षेत्र छोड़कर सभी में मिली शानदार सफलता का पहला संदेश यही है कि अगर विपक्षी पार्टयिां एकजुट होकर गठबंधन बनाएं तो भाजपा को आराम से पराजित कर सकती हैं। इसने भाजपा के चेहरे पर चिंता की लकीरें गहरी कर दी हैं। बेल्लारी लोक सभा सीट उसके पास पिछले 14 वर्षो से थी। इसका भी हाथ से निकल जाना सामान्य बात नहीं है। भाजपा तर्क दे रही है कि उपचुनाव के नतीजों से आम चुनाव के बारे में कोई धारणा बनाना ठीक नहीं है। यह बात एक हद तक ही सही है।
हालांकि इन चुनावों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने प्रचार नहीं किया था। इसलिए एक उम्मीद भाजपा समर्थकों में होगी कि मोदी प्रचार में उतरेंगे तो स्थिति बदल जाएगी। किंतु तत्काल राजनीतिक माहौल बनाने में ऐसे परिणामों की अहम भूमिका होती है। इन नतीजों के बाद महागठबंधन के तर्क को बल तो मिला ही है। स्वयं भाजपा अगर इन चुनावों में बेहतर प्रदर्शन करती तो उसका तर्क इसके उलट होता। वह कहती कि जनता ने उसके कार्यों के पक्ष में तथा गठबंधन के खिलाफ मत दिया है।
दरअसल, इन परिणामों ने जता दिया है कि गठबंधन धरातल पर काम कर रहा है। अगर कर्नाटक में कांग्रेस और जद-सेक्यूलर के मतदाता एक साथ मतदान कर रहे हैं तो वे आगे भी ऐसा कर सकते हैं। इस एकजुटता से भाजपा के लिए स्वयं कर्नाटक में ही अकेले मुकाबला करना आसान नहीं होगा, जहां उसने 2014 के आम चुनाव में 28 में से 19 सीटें जीती थी। उसे जमीनी स्तर पर तेजी से काम करना होगा ताकि वह समर्थकों को इस बात के लिए तैयार कर सके कि एकजुट गठबंधन को पराजित करने के लिए ज्यादा संख्या में वोटरों को अपनी ओर लाना होगा।
ऐसा करना आसान भी नहीं है। दूसरी ओर, विपक्षी दलों में यह संदेश गया है कि मतभेद भुलाकर उन्हें साथ आना पड़ेगा। हालांकि मध्य प्रदेश, राजस्थान एवं छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने बसपा, सपा से गठबंधन नहीं किया है जिससे इनके बीच नाराजगी भी है। अगर कांग्रेस चाहती है कि भाजपा/राजग के विरु द्ध एकजुट विपक्ष सामने आए तो उसे उन राज्यों में उदारता दिखानी होगी, जहां उसका प्रभाव है। ऐसा न करने पर क्षेत्रीय दल अपने प्रभाव क्षेत्रों में उसे नजरअंदाज करेंगे और फिर महागठबंधन सपना रह जाएगा।
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