आतंकी बनते युवा
सुरक्षा बलों की तमाम कार्रवाई के बावजूद कश्मीर घाटी के हालात भयावह हैं.
आतंकी बनते युवा |
आतंकवादियों के खिलाफ सेना और सुरक्षाबलों के चलाए गए ‘ऑपरेशन ऑलआऊट’ के बावजूद युवा तबका आतंकवाद की ओर खिंचता चला जा रहा है. सरकार और सेना के लिए चिंता का सबब भी यही है.
तमाम सख्ती के बावजूद युवा वर्ग कलम के बजाय पत्थर और बंदूक को उठा रहा है या उसे तरजीह दे रहा है. खासकर दक्षिण कश्मीर-पुलवामा, शोपिया, कुलगाम, त्राल और अनंतनाग का इलाका आतंकवाद का एक नये रंग-रूप और हनक के साथ उभरा है. हैरतअंगेज और चिंतातुर करने वाली बात यह है कि बड़ी संख्या में पढ़े-लिखे युवा आतंक का रास्ता चुन रहे हैं. महज ढाई माह में करीब तीन दर्जन युवा घरों से भागकर आतंकवादी बन गए हैं.
फिलवक्त 200 से ज्यादा आतंकी घाटी में सक्रिय हैं, जिनमें सबसे ज्यादा संख्या दक्षिण कश्मीर में घर से भागे युवाओं की है. यह स्थिति तब है जब गृह मंत्रालय से लेकर रक्षा मंत्रालय और तमाम सरकारी तंत्र घाटी में आतंकवाद का समूल नाश करने के लिए आजाद है. तो सवाल यही कि कमी कहां रह गई? क्या सरकार की रणनीति, उसकी नीतियां, युवाओं को लेकर उनकी विचार-दृष्टि और क्रियाकलापों में कमी रह गई है? शायद ऐसा ही कुछ परिलक्षित भी हो रहा है.
सरकार न तो युवाओं को अपना दोस्त बना पाई है न उनकी बेहतरी के लिए रत्ती भर भी संजीदा है. जब तक युवा वर्ग से मानसिक और सियासी तौर पर नहीं जुड़ा जाएगा तब तक घाटी में अमन की बयार नहीं बह सकती. यह बात सोलह आने सच है. क्योंकि सिर्फ सरकार के होने का कोई मतलब तब तक नहीं है जब तक वो अपनी सोच और विजन को आगे नहीं लाती है. जम्मू-कश्मीर के मामले में ऐसी ही कुछ कमी दिखती है. हम स्थानीय और विदेशी आतंकवादियों का खात्मा बंदूक से तो कर रहे हैं लेकिन यह स्थायी समाधान बिल्कुल नहीं है.
शांति तो राजनीतिक पहल और बातचीत से ही आ सकती है. लेकिन इससे पहले बेहतर पुलिस-पब्लिक तालमेल, खेल व सांस्कृतिक कार्यक्रमों और प्रतियोगिताओं का आयोजन वक्त की मांग है. इसलिए कि मसला काफी पेचीदा है. युवा निराश है, गुस्से में है और भटकाव की मानसिकता में विचर रहा है. उसे भरोसे की रोशनी देनी होगी. उसके मनोबल को दृढ़ता जब तक नहीं मिलेगी तब तक अंधेरा नहीं छंटने वाला. कश्मीर को आतंक से मुक्ति दिलानी है तो युवाओं को राजनीतिक बातचीत में शामिल करना ही होगा.
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