लाल रह गया
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) छात्रसंघ के चुनाव को कई मायनों में विशेष राजनीतिक महत्त्व का कहा जा सकता है.
लाल रह गया |
इस चुनाव में कौन सा छात्र संगठन जीता और कौन हारा, क्यों जीता और क्यों पिछड़ गया जैसे सवाल छात्रों के बीच विमर्श का मुद्दा हो सकते हैं. लेकिन पहले की ही तरह इस चुनाव से भी जो अहम सवाल सामने आए हैं, वे किसी का ध्यान खींचे बगैर हवा में गुम हो जाते हैं.
दरअसल, सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि लोकतांत्रिक संस्थाओं में स्वस्थ वैचारिक लड़ाई की गुंजाइश अब केवल जवाहरलाल नेहरू जैसे शिक्षण संस्थाओं में ही सिमट कर रह गई है. यहां वोटरों को न मुफ्त चावल देने का वादा किया जाता है और न कंप्यूटर और लैपटॉप बांटकर अपने पक्ष में करने की कोशिश की जाती है. जेएनयू जैसे विश्वविद्यालयों में सिर्फ वैचारिक आधार पर वोटर अपने चहेते उम्मीदवारों को अपना मत देते हैं.
इस लिहाज से यह कहा जा सकता है कि भारत में चुनावी राजनीति के आदर्श यदि जीवित हैं तो सिर्फ विश्वविद्यालय में. क्या सत्तारुढ़ सहित विपक्षी दल जेएनयू छात्रसंघ चुनाव से कोई सबक लेगा. जेएनयू छात्रसंघ चुनाव में इस बार वैचारिक रूप से तीन छात्र संगठनों के बीच लड़ाई रही. वाममोर्चा के उम्मीदवार सभी सीटों पर जीतने में कामयाब रहे.
भाजपा समर्थित अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) को दूसरे नंबर पर रहकर ही संतोष करना पड़ा. लेकिन एबीवीपी का विश्वविद्यालय परिसर में जिस तरह से उभार हुआ है, वह आने वाले दिनों में वाममोर्चा के छात्र संगठनों के लिए चुनौती बन सकता है. लेकिन पूरे देश में जिस तरह से हिन्दूवादी राजनीति का उभार हुआ है उसे देखते हुए वाममोर्चा की जीत को ऐतिहासिक माना जाना चाहिए.
उनकी इस जीत का यह भी संकेत है कि जेएनयू में प्रगतिशील विचारों की जगह अभी बनी हुई है. इस वैचारिक लड़ाई का तीसरा कोना बिरसा फूले स्टूडेंट्स एसोसिएशन (बापसा) रहा, जो दलितों, पिछड़ों, आदिवासी छात्रों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करता है. यह अच्छी बात है कि राष्ट्रीय परिदृश्य से गायब होने के बाद कम-से-कम विश्वविद्यालयों में तो वैचारिक लड़ाई जीवित है.
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