अमर्यादित टकराव

Last Updated 02 Jul 2016 05:33:01 AM IST

आम आदमी पार्टी की दिक्कत शायद यह है कि वह आंदोलन के साए से उबर नहीं पा रही है.




दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल (फाइल फोटो)

आप समझ ही नहीं पा रही है कि आंदोलन और सरकार चलाने के तरीकों में फर्क होता है. जैसे आंदोलन की अपनी मर्यादाएं और जवाबदेहियां होती हैं, उसी तरह संसदीय राजनीति और संवैधानिक नियम-कायदों के तहत सरकार की भी कुछ अलग तरह की मर्यादाएं और जवाबदेहियां होती हैं. इनको ध्यान में रखकर ही राजनैतिक चुनौतियों से निबटना पड़ता है या निबटा जाना चाहिए. लेकिन मर्यादाओं को तोड़कर यह सब अगर किया जाएगा तो संसदीय लोकतंत्र की यह परंपरा खतरे में पड़ जाएगी.

दिल्ली सरकार ने संसदीय सचिव बनाने के ही मामले में अगर मर्यादाओं का पालन किया होता तो शायद उसके सामने अपने 21 विधायकों को लेकर संकट खड़ा नहीं होता. अब इस संकट से निबटने के लिए वह दूसरे राज्यों का उदाहरण लेकर चुनाव आयोग के पास पहुंची है. यह सही है कि दूसरे राज्यों में संसदीय सचिवों को मानदेय वगैरह मिलता है और दिल्ली में फिलहाल शायद ऐसी व्यवस्था नहीं है. लेकिन उसे यह ध्यान में रखना चाहिए कि दूसरे राज्यों में विशेष कानूनी प्रावधानों के तहत ऐसा किया गया है.

यह अलग सवाल है कि ये प्रावधान कितने खरे हैं और इनका मकसद शायद मंत्रिमंडल में शामिल विधायकों के अलावा कुछ विधायकों को कमोबेश सत्ता-सुख दिलाना हो सकता है क्योंकि मंत्रियों की संख्या की एक सीमा है. दिल्ली में मुख्यमंत्री से जुड़े संसदीय सचिव बनाने का प्रचलन रहा है. पर मौजूदा सरकार ने हर मंत्रालय से सम्बद्ध संसदीय सचिव नियुक्त किए. नियुक्ति के बाद उसने विधानसभा में प्रस्ताव लाया, जिसे केंद्र सरकार ने इस आधार पर लौटा दिया कि इसके लिए उपराज्यपाल से पहले संस्तुति नहीं ली गई.

दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है, इसलिए इस विशेष व्यवस्था को केजरीवाल सरकार लगातार चुनौती देती आ रही है. लेकिन इसे चुनौती देने का असली फोरम तो अदालतें हैं, न कि ऐसी सीधी टकराहटें. यही नहीं, केंद्र ने ऐसे 14 विधेयक लौटा दिए हैं. माना कि केंद्र की भाजपा सरकार दिल्ली में उसके हाथों हुई पराजय को पचा नहीं पा रही है और उसके हर फैसले में अड़ंगा लगा रही है.

आखिर आम आदमी पार्टी से उसे पंजाब, गोवा और शायद गुजरात में भी चुनौती मिलने की संभावना है. पर इस राजनीति के साथ-साथ संसदीय मर्यादाओं का ख्याल रखकर टकराहटें होतीं तो हमारे लोकतंत्र के लिए बेहतर होता. जनता का भी काफी भला होता.



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