विस्थापितों पर सियासत

Last Updated 30 May 2016 06:40:21 AM IST

कश्मारी पंडितों को अपना घर-बार छोड़े 26 साल हो गए हैं. लेकिन उनकी वापसी पर सियासत आज भी जारी है.


जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती (फाइल फोटो)

एक बार फिर जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने कश्मीरी पंडितों की वापसी पर प्रतिबद्धता जताकर मसले को गरमा दिया है. सरकार में साझीदार भाजपा भी इस नाजुक मसले पर आगे बढ़ने को तैयार दिखती है. करीब 1-2 लाख कश्मीरी पंडित देश के विभिन्न इलाकों मसलन जम्मू, दिल्ली व आसपास के राज्यों में शरणार्थी जीवन जीने को मजबूर हैं. उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है.

हां, पीडीपी के सत्ता में आने के बाद यह उम्मीद जरूर परवान चढ़ी कि कश्मीरी पंडितों का पुरसाहाल लेने वाली कोई सियासी पार्टी है. लेकिन शरणार्थियों को किस तरह दोबारा यहां बसाया जाएगा, इसका स्पष्ट विजन इस दल के पास भी नहीं है. पीडीपी के दिवंगत नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद ने कहा भी था कि, कश्मीरी पंडित वापस आने चाहते हैं तो आएं. किंतु उनके लिए अलग से कॉलोनियां नहीं बसाई जाएंगी.

हालांकि, मुख्यमंत्री महबूबा बेहतरी की अलख जगाती दिखती हैं. लेकिन लाख टके का सवाल यही कि तमाम विरोध के बीच शरणार्थी कैसे खुद को सुरक्षित महसूस करते हुए घाटी में वापस बसने के बारे में संजीदा हों? क्या उस स्वर्णिम दिन की वापसी होगी जब पंडित गांदरबल, पुलवामा, बारामूला या घाटी के अन्य हिस्सों में जाकर बस सकेंगे?



महबूबा के लिए इस योजना को अमलीजामा पहनाना इसलिए दुष्कर है क्योंकि न सिर्फ विपक्ष बल्कि अलगाववादियों के अलावा खुद उन्हीं की पार्टी में इस बात का पुरजोर विरोध है. खुला मन और मजबूत दिल के साथ कोई नहीं चाहता कि कश्मीरी पंडितों के लिए सरकार अलग कॉलोनी स्थापित करे और वहां आकर पंडित बसें.

सवाल यह भी कि जिस नेशनल कांफ्रेंस के रहते राज्य से कश्मीरी पंडितों को घर, खेत और जेवरात, यहां तक कि अपने प्रियजनों तक को छोड़कर आना पड़ा, उस पार्टी को भी अपने किए पर कोई पछतावा नहीं है. सवाल सिर्फ मजबूरन घाटी छोड़कर भागे लोगों की वापसी का नहीं है. सवाल ज्यादा बड़े और तीखे हैं. क्या किसी देश के किसी सूबे का बाशिंदा उसी देश में बेहद मजबूर हालात में जिंदगी बिताए, वह भी सिर्फ इस उम्मीद में कि कभी तो वह सुबह आएगी!

 

 



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