असहमति की कसौटी

Last Updated 03 May 2016 01:30:51 AM IST

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने ऑकलैंड में भारत-न्यूजीलैंड के व्यापारिक नेताओं को संबोधित करते हुए संसद में होने वाली तीखी बहस, चर्चाओं और असहमति के स्वरों को संसदीय प्रणाली के स्वास्थ्य और निरंतरता के लिए आवश्यक बताया.


असहमति की कसौटी

उनके इस विचार से असहमति की कोई गुंजाइश नहीं बनती.

फिर भी यह विचार महज सैद्धांतिक और संसद में होने वाले वाद-विवाद के एक पक्ष को ही दर्शाता है. इसका दूसरा पक्ष बहुत स्याह है, जिस पर गौर करने की जरूरत है. लोकतंत्र में अभिव्यक्ति-स्वतंत्रता का पुरजोर समर्थन करते हुए भी यह कहना उचित होगा कि तीखी बहस, विरोध और असहमति जताने के अधिकार के साथ कुछ अनिवार्य शर्तें स्वत: जुड़ जाती हैं.

अगर असहमति के स्वर, विरोध और वाद-विवाद सैद्धांतिक आधार पर, तथ्यों के आधार और वैचारिक आधार पर हों तब तो यह संसदीय प्रणाली को मजबूत करता है और जनता को भी प्रशिक्षित करता है. पर दुर्भाग्य से भारतीय संसद में ऐसा नहीं होता है.

यहां जनहित के व्यापक मुद्दों की तुलना में व्यक्तिगत, स्वार्थ आधारित और सत्ता प्रेरित मुद्दों पर ज्यादा जोर रहता है. संसदीय कार्यवाहियों के अनुभव यही दर्शाते हैं कि असहमति और वाद-विवाद के अधिकतर मुद्दे सिद्धांतविहिन और जनहित में नहीं होते. अगर असहमति जनहित में न होकर महज क्षुद्र स्वार्थों पर आधारित हों तो ऐसी असहमति अपरिपक्व लोकतंत्र की निशानी है और इससे आम जनता भ्रमित होती है. भारत में यही दिखाई देता है.

संसद हो या विधानसभाएं वहां जब विपक्ष के उठाये व्यापक जनहित के मुद्दे से सत्ता पक्ष कठघरे में खड़ा दिखाई देता है तो वह अनसुनी कर देती है या असहमति को दबा देती है. ठीक इसी तरह, सत्ता पक्ष के जनहित से जुड़े व्यापक मुद्दे विपक्ष के हंगामें की भेंट चढ़ जाता है.

कई बार तो सत्ता और विपक्ष के बीच बहुत अशोभनीय बर्ताव भी देखने को मिलता है. असहमति के स्वर का एक और विचारणीय पक्ष है, जो राजनीतिक दलों के साथ जुड़ा हुआ है. यहां असहमति प्राय: सभी राजनीतिक दलों में सिरे से नदारद है.

कोई भी राजनीतिक दल अपने कार्यकर्ताओं या जनप्रतिनिधियों को पार्टी-नीतियों और दल के अध्यक्ष की कार्यशैली से भिन्न मत प्रकट करने का अधिकार नहीं देता. दलीय अनुशासन के नाम पर पार्टी के सदस्यों को अपनी असहमति दबानी पड़ती है. अगर व्यापक स्तर पर सिद्धांत और विचार आधारित असहमति के स्वरों का सम्मान किया जाए तो हमारी संसदीय प्रणाली और अधिक मजबूत और टिकाऊ होगी.



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