मोदी का मार्क्‍सवाद

Last Updated 03 May 2016 01:21:35 AM IST

प्रधानमंत्री ने मजदूरों से एक नई अपील की है कि वे दुनिया को एक कर दें.


प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी

उन्होंने नहीं बताया कि यह कैसे होगा लेकिन उनके मेक इन इंडिया अभियान के बिना पर कह सकते हैं कि मोटे तौर पर वे मजदूरों का आह्वान भूमंडलीकरण के दौर में दुनिया भर के बाजारों को अपने उत्पादन से पाट देने के लिए कर रहे हो सकते हैं.

चीन इसको पहले ही कर चुका है और उसका नतीजा है कि वहां अमीरों की नई जमात दुनिया से होड़ लेने लगी है. अरबपतियों-खरबपतियों की फेहरिस्त तो बेपनाह बढ़ी और उसकी अर्थव्यवस्था का आकार भी काफी बढ़ा.

सब सस्ते श्रम और मजदूर अधिकारों को लचीला बनाकर हासिल किया गया है. लेकिन मजदूरों के पारिश्रमिक में इजाफे और उनका जीवन स्तर उठाने की बारी आई तो चीन की अर्थव्यवस्था हिचकोले खाने लगी है. भारत की आर्थिक नीतियां भी मोटे तौर पर यूपीए के दौर से ही उसी राह पर हैं और मोदी सरकार उसकी आक्रामक पैरोकार बनी हुई है.

कारोबारी माहौल बनाने और पूंजी निवेश को आकषिर्त करने के लिए श्रम कानूनों में ढील देना उसके एजेंडे में है. अभी हाल में ईपीएफ और पेंशन फंड की निकासी और ब्याज दर घटाने की विफल कोशिशों को इसी रूप में देखा जा सकता है. इसका मकसद कर्मचारियों में बचत को बढ़ावा देने से ज्यादा इस क्षेत्र में निजीकरण के लिए सहूलियत देना भी रहा है.

स्टार्ट-अप के लिए श्रम कानूनों को तीन साल तक शिथिल किया जा रहा है. यानी इस नए दौर में मजदूरों के हकों की बात नहीं की जा सकती. मार्क्‍स ने जब ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ का नारा दिया था तो सबके लिए एक सम्मानजनक जिंदगी, पूरी दुनिया में एक ईमानदार, सहज और समतामूलक व्यवस्था की कल्पना की थी.

उस दुनिया में न युद्ध होते और न अपनी-अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए देश एक-दूसरे से होड़ करते, न सस्ते श्रम की बात होती, न संसाधनों को मुट्ठी भर लोगों के नियंत्रण में रखने की इजाजत होती. वह सपना वाकई दुनिया को एक समरस सूत्र में जोड़ने का था.

आज कह सकते हैं कि इस दुनिया में उस सपने की जगह नहीं बची है, लेकिन मजदूर दुनिया को तभी एक कर पाएंगे जब उनके अपने हक मजबूत होंगे. कमजोर हाथों का बंधन आखिर कितना मजबूत होगा.



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