‘‘आनंद मरा नहीं, आनंद मरते नहीं’’
‘‘बाबू मोशाय, हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां है जिसकी डोर ऊपर वाले के हाथ में है, कौन कब कहां उठेगा, कोई नहीं जानता.’’
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जिंदादिली की नयी परिभाषा गढने वाला हिन्दी सिनेमा का आनंद अब नहीं रहा लेकिन आनंद मरा नहीं, आनंद मरते नहीं.
राजेश खन्ना का जब भी जिक्र होगा, आनंद के बिना अधूरा रहेगा . हषिकेश मुखर्जी की इस क्लासिक फिल्म में कैंसर (लिम्फोसकरेमा ऑफ इंटेस्टाइन) पीड़ित किरदार को जिस ढंग से उन्होंने जिया, वह भावी पीढी के कलाकारों के लिये एक नजीर बन गया.
इस फिल्म में अपनी जिंदगी के आखिरी पलों में मुंबई आने वाले आनंद सहगल की मुलाकात डाक्टर भास्कर बनर्जी (अमिताभ बच्चन) से होती है. आनंद से मिलकर भास्कर जिंदगी के नये मायने सीखता है और आनंद की मौत के बाद अंत में कहने को मजबूर हो जाता है कि ‘आनंद मरा नहीं, आनंद मरते नहीं.’’
बहुत कम लोगों को पता है कि 'आनंद' के लिये हषिकेश मुखर्जी की असली पसंद महमूद और किशोर कुमार थे. लेकिन एक गलतफहमी की वजह से किशोर इस फिल्म में आनंद का किरदार नहीं कर सके. दरअसल किशोर कुमार ने एक बंगाली व्यवसायी के लिये एक स्टेज शो किया था और भुगतान को लेकर उनके बीच विवाद हो गया था.
किशोर ने अपने गेटकीपर से कहा था कि उस बंगाली को भीतर ना घुसने दे. मुखर्जी जब फिल्म के बारे में बात करने किशोर कुमार के घर गए तो गेटकीपर ने उन्हें वही बंगाली समझ लिया और बाहर से ही भगा दिया. मुखर्जी इस घटना से इतने आहत हुए कि उन्होंने किशोर के साथ काम नहीं किया.
बाद में महमूद भी वह फिल्म नहीं कर सके और राजेश खन्ना तथा अमिताभ बच्चन ने ये किरदार निभाये. हिन्दी सिनेमा के पहले सुपरस्टार राजेश खन्ना के कैरियर की यह यकीनन सर्वश्रेष्ठ फिल्म थी जिसमें उनकी संवाद अदायगी, मर्मस्पर्शी अभिनय और बेहतरीन गीत संगीत ने इसे भारतीय सिनेमा की अनमोल धरोहर बना दिया.
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