मनोविकार

Last Updated 24 Oct 2016 04:41:44 AM IST

प्रात: काल का समय हमारे जीवन में बड़ा महत्त्व रखता है, क्योंकि वहीं से हमारा दिन प्रारंभ होता है. इसलिए प्रात:काल को अपने विवेक से प्रारंभ करना चाहिए.


सुदर्शनजी महाराज (फाइल फोटो)

हमारे जीवन का कोई भी पल अगर मनोविकारों से आहत होता है तो हम मानसिक रूप से अस्त-व्यस्त हो जाते हैं. हमारी थोड़ी-सी भूल हमारे जीवन को कांटों से भर देती है. मनोविकार जिनमें काम, क्रोध, लोभ, मद प्रमुख हैं, वे हमारे संतुलित जीवन में असंतुलन पैदा कर देते हैं.

इसका कारण यह है कि जो व्यक्ति रात में पूरी नींद सोता, वह सुबह अनमना बन उठता है. उसके मन में कोई प्रसन्नता नहीं होती. वह उखड़ा-उखड़ा अपना दिन प्रारंभ करता है और ऐसी ही अवस्था में वह क्रोधी बन जाता है. सुबह का किया हुआ क्रोध दिन भर उद्विग्न बनाए रखता है. हमें कोई चीज अच्छी नहीं लगती, बात-बात में मित्रों से लड़ पड़ते हैं. एक प्रकार से हम क्रोध के वशीभूत होकर पागल की तरह व्यवहार करने लगते हैं.

सुबह का क्रोध विष के समान होता है, जो हमें अपनों से दूर कर देता है और मित्रों के मन में घृणा पैदा कर देता है. क्रोधी व्यक्ति को समाज में मर्यादा नहीं मिलती. कामी व्यक्ति और अहंकारी व्यक्ति दोनों को लोग अछूत की नजर से देखते हैं. लेकिन जो लोग सत्संग में बैठते हैं, विवेक की बात करते हैं, वे सबसे पहले प्रयास करते हैं कि उनका प्रात:काल आनंदमय हो क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति खुश रहना सोचता जरूर है मगर रह नहीं पाता.

अगर हम प्रात:काल को आनंद रूप में स्वीकार करें, उगते हुए लाल सूर्य का प्रसन्नतापूर्वक स्वागत करें, मंद-मंद बयार में शरीर को प्रफुल्लित करें और हंसते हुए, मुस्कुराते हुए दिन का स्वागत करें तो कोई कारण नहीं है कि हमारा दिन खराब हो. काम के वशीभूत हो, क्रोध और मद के वशीभूत हो, अगर हम दिन का प्रारंभ करें तो सारा दिन विकृतियों से भर जाता है.



देश-विदेश के मनोवैज्ञानिक तक मानने लगे हैं कि प्रात:काल शय्या परित्याग के पश्चात प्रसन्नतापूर्वक अच्छे विचारों का धारण करना चाहिए और किसी भी कारण से क्रोध के वशीभूत न हों, ऐसा उपाय करना चाहिए. साधना में जो लोग उतरते हैं, वे सबसे पहले यह प्रयास करते हैं कि मन को विकृति से दूर रखते हुए आनंद के क्षेत्र में प्रवेश करायें और प्रसन्नता के सिवा और कोई अनुभव न करें.

जिस प्रकार स्वस्थ रहना हमारा मूल धर्म है, उसी प्रकार प्रसन्न रहना भी हमारा अधिकार है. कोई भी व्यक्ति हृदय से न अस्वस्थ रहना चाहता है और न दुखी.

 

 

सुदर्शनजी महाराज


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