जीवन का आधार गुरु

Last Updated 09 Oct 2015 12:41:50 AM IST

निसंदेह आत्म साक्षात्कार का मार्ग कठिन है अत: भगवान का उपदेश है कि उन्हीं से प्रारंभ होने वाली परंपरा से प्रामाणिक गुरु की शरण ग्रहण की जाए.




धर्माचार्य स्वामी प्रभुपाद

इस परंपरा के सिद्धांत का पालन किये बिना कोई प्रामाणिक गुरु नहीं बन सकता. भगवान आदि गुरु हैं, अत: गुरु परंपरा का ही व्यक्ति अपने शिष्य को भगवान का संदेश प्रदान कर सकता है.

कोई अपनी निजी विधि का निर्माण करके स्वरूपसिद्ध नहीं बन सकता है. भागवत का कथन है- धर्म तु साक्षात्कभगवत्प्रवीणतम अर्थात धर्मपथ का निर्माण स्वयं भगवान ने किया है. अतएव मनोधर्म या शुष्क तर्क से सही पद प्राप्त नहीं हो सकता है. न ही ज्ञानग्रंथों के स्वतंत्र अध्ययन से कोई आध्यात्मिक जीवन में उन्नति कर सकता है. ज्ञान प्राप्ति के लिए उसे प्रामाणिक गुरु की शरण में जाना ही होगा. ऐसे गुरु को पूर्ण समर्पण करके ही स्वीकार करना चाहिए और अहंकाररहित होकर दास की भांति गुरु की सेवा करनी चाहिए.

स्वरूपसिद्ध गुरु की प्रसन्नता ही आध्यात्मिक जीवन की प्रगति का रहस्य है. जिज्ञासा और विनीत भाव के मेल से आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त होता है. बिना विनीत भाव तथा सेवा के विद्वान गुरु से की गई जिज्ञासाएं प्रभावपूर्ण नहीं होंगी. शिष्य को गुरु परीक्षा में उत्तीर्ण होना चाहिए और जब गुरु शिष्य में वास्तविक इच्छा देखता है तो स्वत: ही शिष्य को आध्यात्मिक ज्ञान का आशीर्वाद देता है. शिष्य न केवल गुरु से विनीत होकर सुने, अपितु विनीत भाव तथा सेवा और जिज्ञासा द्वारा गुरु से स्पष्ट ज्ञान प्राप्त करे.

प्रामाणिक गुरु स्वभाव से शिष्य के प्रति दयालु होता है. अत: यदि शिष्य विनीत हो और सेवा में तत्पर रहे तो ज्ञान और जिज्ञासा का विनिमय पूर्ण हो जाता है. स्वरूपसिद्ध व्यक्ति से ज्ञान प्राप्त होने का परिणाम यह होता है कि यह पता चल जाता है कि सारे जीव भगवान श्रीकृष्ण के भिन्न अंश हैं. कुछ लोग सोचते हैं कि हमें कृष्ण से क्या लेना-देना है. वे तो केवल महान ऐतिहासिक पुरुष हैं और परब्रह्म तो निराकार है. यह निराकार ब्रह्म कृष्ण का व्यक्तिगत तेज है. कृष्ण भगवान के रूप में प्रत्येक वस्तु के कारण हैं. लाखों अवतार उनके विस्तार ही हैं.
(प्रवचन के संपादित अंश ‘श्रीमदभगवद्गीता’ से साभार)



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