परत-दर-परत : यह मुस्लिम नहीं, कश्मीर समस्या है
कश्मीर समस्या, जिसे अब समस्या नहीं संकट कहा जाना चाहिए, के संदर्भ में यह कहने का कोई अर्थ नहीं है कि हम भारतीय संविधान के दायरे में सभी से बात करने को तैयार हैं.
राजकिशोर |
पहली बात तो यह है कि किसी भी बातचीत को किसी दायरे में बांधा नहीं जा सकता. कश्मीर के लोगों को आजादी चाहिए तो उस पर भारतीय संविधान के दायरे में क्या बातचीत हो सकती है? लेकिन इस पर बातचीत तो हो ही सकती है कि आजादी का मतलब क्या है, क्या वे भारत से अलग होना चाहते हैं, क्या भारतीय संविधान के दायरे में कश्मीर को अधिकतम स्वायत्तता देने से काम चल जाएगा इत्यादि-इत्यादि. दरअसल, खुली बातचीत में ही आपस की शिकवा-शिकायत दूर की जा सकती है.
आखिर मुद्दा तो यही है कि कश्मीर का अधिकतम हित किसमें है. क्या यह एक आजाद देश के रूप में रहने में है? क्या पाकिस्तान से विलय कश्मीर के सर्वोत्तम हित में है? या, भारतीय संघ के दायरे में ही कश्मीर के हितों को सर्वोत्तम ढंग से साधा जा सकता है? कश्मीर संकट के ऐसे ही अन्य अनेक पहलू हैं जिन पर खुल कर बातचीत की जा सकती है.
किसी मांग पर बातचीत करने का मतलब यह नहीं है कि उसे स्वीकार कर लिया जाए. लेकिन शुरू में ही यह स्पष्ट हो जाए कि किसी भी मांग को खारिज नहीं किया जाएगा, बल्कि हर मांग पर तर्क और विवेकसंगत बातचीत की जाएगी तो सद्भावपूर्ण वातावरण में बातचीत का माहौल बन सकता है.
हम सभी से बातचीत करना चाहते हैं, यह वाक्य घाटी में और घाटी के बाहर नई दिल्ली में बार-बार दुहराने से बेहतर है कि ऐसा ठोस वातावरण बनाया जाए जिसमें बातचीत के लिए स्फुरण मिल सके. खुला तथ्य है कि कश्मीर के लोगों को सेना और सीआरपीएफ से शिकायत है. जब गृह मंत्री कहते हैं कि सुरक्षा बलों को अधिकतम संयम बरतने को कहा गया है, तो वे भी प्रत्यक्ष रूप से स्वीकार करते हैं कि इसके पहले ‘अधिकतम संयम’ नहीं बरता गया था.
इसलिए बातचीत का माहौल बनाने का एक तरीका यह हो सकता है कि बातचीत समाप्त होने तक कश्मीर से सेना, सीआरपीएफ आदि को हटा लिया जाए. तब तक के लिए सशस्त्र सेना विशेष अधिकार अधिनियम को स्थगित कर दिया जाए. अगर ऐसा किया जाता है, तो छूमंतर की तरह कश्मीर का वातावरण बदल जाएगा.
इसके बजाय केंद्रीय गृह मंत्रालय क्या कर रहा है? स्वयं गृह मंत्री ने सूचित किया है कि अभी तक उन्होंने नई दिल्ली में दो जत्थों से बातचीत की है. पहला शिष्टमंडल मुस्लिम बुद्धिजीवियों, प्रोफेसरों, कुलपतियों, पत्रकारों आदि का था. दूसरे शिष्टमंडल में मौलवी और उलेमा थे. इनमें से एक भी व्यक्ति कश्मीर का नहीं था. दरअसल, यह कवायद कश्मीर समस्या को मुस्लिम समस्या बनाने की कवायद है.
कश्मीर के प्रतिनिधियों से बातचीत करने के बजाय शेष भारत के मुस्लिम विद्वानों और धर्माधिकारियों को आमंत्रित करने का प्रयोजन यह दिखाना ही हो सकता है कि मुसलमान ही कश्मीर समस्या को समझते हैं. वे ही इसे सुझा सकते हैं कि इसका हल क्या है. क्या मंत्रालय के मंत्रियों और उच्च अधिकारियों को यह साधारण-सी बात मालूम नहीं होगी कि भारत के मुसलमानों और कश्मीर के मुसलमानों के बीच विचार और संवेदना का कोई रिश्ता नहीं है? जब बाबरी मस्जिद को गिराया गया था, तब घाटी में पत्ता भी नहीं खड़का था. कश्मीर के मुसलमानों पर ज्यादती की खबरें आती हैं, तब भारत के मुसलमानों के मुंह से आह तक नहीं निकलती.
हम जानते हैं कि सिर्फ धर्म दो समुदायों को एक नहीं कर सकता. पूरा यूरोप ईसाई है, लेकिन इससे करीब एक दर्जन देशों के बने रहने में कोई बाधा नहीं है. इंग्लैंड और अमेरिका दोनों ईसाई हैं, पर ईसाई अमेरिका ने ईसाई इंग्लैंड से मुक्ति का संघर्ष किया था और अंतत: अलग देश हो गया. हमारे अपने महादेश में पाकिस्तान और बांग्लादेश का अलगाव इस कारण रु क नहीं सका कि दोनों मुस्लिम देश थे. इसलिए सिर्फ इस आधार पर कि कश्मीर में मुसलमानों की बहुतायत है, शेष भारत के मुस्लिम प्रतिनिधियों को बुला कर उनसे मशविरा करना समस्या का संप्रदायीकरण है.
लोगों को हिंदू-मुस्लिम में बांट कर देखने की यह विचारधारा न कश्मीर के हित में है, न देश के हित में. बाबरी मस्जिद को गिराने से सिर्फ मुसलमानों को दुख नहीं हुआ था, बल्कि सभी सेकुलर लोगों को दुख हुआ था. इसका अर्थ यह नहीं है कि कश्मीर की समस्या सिर्फ कश्मीर की समस्या है, भारत की समस्या नहीं है. मूलत: तो यह भारत की ही समस्या है, और भारत को ही इसे सुलझाना होगा. लेकिन सुलझाव की इस प्रक्रिया में एक निर्णायक भूमिका कश्मीर की भी होगी. इसलिए पहले यह पता करना लाजिम होगा कि कश्मीर के असंतोष को कैसे दूर किया जा सकता है, उसके बाद शेष भारत के लोगों से पूछा जा सकता है कि क्या यह उन्हें मंजूर है? या, दोनों पक्षों की आपसी बातचीत कराई जा सकती है. लेकिन सरकार का पहिया उल्टा घूम रहा है. यह कश्मीरियों से बातचीत को टालने का बहाना नहीं है तो और क्या है?
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