कल के लिए आज ही सोचना होगा

Last Updated 23 Jul 2016 10:05:38 PM IST

कब टूटेगी श्रीनगर और कश्मीर के दूसरे कस्बों में छायी यह मनहूस खामोशी, कब आएगी जन-जीवन में फिर वही लय-चमक, जो अक्सर ग्राहकों से भरे बाजारों और बाग-बगीचों में हंसते-खेलते सैलानियों के चेहरों पर देखी जाती है?




कल के लिए आज ही सोचना होगा .

शायद चार-छह दिनों में, जब आम गरीब परिवारों में राशन की कमी होने लगेगी, बच्चों को दूध मिलना बंद हो जाएगा. अभिभावकों को चिंता होने लगेगी कि बच्चे दो सप्ताह से स्कूल नहीं जा सके. जब नारे लगाते हुए पत्थर मारते हुए तंग आ चुके होंगे और उन्हें और उनके अभिभावकों को यह एहसास होने लगेगा कि इन तौर-तरीकों से कुछ भी हासिल नहीं होगा, पूरे आंदोलन का जमा हासिल एक तल्खी, दर्द और निराशा ही रहा. कर्फ्यू हटेगा, स्कूल खुलेंगे, बाजारों में भी रौनक लौट आएगी और नेता कहने लगेंगे कि हमने शांति लाई. लेकिन यह अस्थाई शांति होगी. असंतोष, आक्रोश और विचलन केवल दबा ही रहेगा, खत्म नहीं होगा; क्योंकि उनके कारण तब भी होंगे और वे फिर कभी इसी प्रकार विस्फोट की तरह सामने आ ही जाएंगे.
 
इसलिए अगर हमें चिंता करनी है तो आज के बाद आने वाले कल की करें, कल की ही बात करें. कल की बात करना इसलिए आवश्यक है कि हमारी सरकारें कल के बारे में सोचने से कतराती हैं. उनका काम, उनकी सोच अक्सर तात्कालिक ही होता है. कश्मीर में आज बड़े स्तर पर लड़के-लड़कियां स्कूल-कॉलेज जाते हैं. इसलिए शिक्षा प्रतिशत इतना है कि कुछ आर्थिक रूप से सम्पन्न राज्य भी शरमा जाएं. लेकिन इनके लिए रोजगार नहीं हैं. जितने शिक्षित-प्रशिक्षित बच्चे हर साल निकलते हैं, उनकी तुलना में नई नौकरियां 10 प्रतिशत भी नहीं होतीं. कॉलेज जाते समय उनके सपने हर उस युवक के ही रहे होंगे, जो शिक्षित होना चाहता है लेकिन वे पूरे नहीं होते तो वैकल्पिक सपनों की तलाश होती है. यह तलाश उन्हें एक मजहबी साम्राज्य की ओर ले जाती है, जिसे दुनिया भर में प्रचारित किया जा रहा है. पाकिस्तान लगभग इसीका सपना बेचता था, लेकिन जिस रूप में उसे बेचता था, उसमें लोगों का विास घटता गया. आज पाकिस्तान की हालत ऐसी नहीं है, जो किसी को लुभाने वाली बन सके. लेकिन समन्दर पार अरब देशों से जो सपना प्रचारित हो रहा है, वह आकषिर्त करता है, क्योंकि फिलहाल वह दुनिया भर में खलबली तो मचाने में कामयाब तो हो ही गया है.

मरे हुए के जिंदा होने का राज 
आईएस की गतिविधियां घाटी में आकषर्ण का विषय बन गई हैं और कुछ अलगाववादी उसका उपयोग अपने उद्देश्यों से करने लगे हैं. यह तो तभी साफ हो गया था, जब मुफ्ती मोहम्मद सईद के शासन काल के आरम्भिक दौर में ही मसरत आलम की शह पर खलीफा के काले झंड पाकिस्तानी झंडों के साथ सार्वजनिक तौर पर लहराए गए. तब यह तर्क दिया गया कि जहां कश्मीर में भारत के हजारों राष्ट्रीय झंडे लहराए जा रहे थे, तो कुछ काले या हरे झंडों से क्या फर्क पड़ता है. फिर जब बुरहान वानी खुलेआम सोशल मीडिया पर सुरक्षा को चुनौती देने लगा तो भी प्रशासन इस गलतफहमी में था कि एक आतंकवादी कोई बड़ा खतरा नहीं. लेकिन प्रशासकों को यह एहसास नहीं था कि बुरहान धीरे-धीरे उस जिन्न को फिर से जीवित कर रहा, जिसे हम मरा हुआ मानने लगे थे. उसका मिशन ही हिज्बुल मुजाहिद्दीन में फिर से जीवन डालना था. यही संगठन कश्मीर में आतंकवाद का स्थानीय चेहरा था. लेकिन सुरक्षा बलों की मुस्तैदी और पाकिस्तान में पनप रहे कुछ शक्तिशाली आतंकवादी गुटों के कश्मीर की राजनीति पर हावी होने के कारण हिज्ब की ताकत घटती गई.

बुरहान को प्रशिक्षित ही किया इसलिए गया था कि वे इंटरनेट के माध्यम से इस आतंकवादी गुट के लिए नए, खासकर पढ़े-लिखे नौजवानों की भर्ती करवाए. इसके लिए बुरहान को आधुनिक फैशन परस्त युवा की छवि बनानी थी. जब यह सब हो गया और सुरक्षा बलों को बुरहान के सर पर दस लाख का इनाम रखने की घोषणा करनी पड़ी, तब तक प्रशासन और दिल्ली में बैठी सरकार अपने ही कल्पना लोक मे सोए रहे. किसी ने आकलन नहीं किया था कि इन सारी गतिविधियों का कितना असर नौजवानों पर पड़ रहा है. उन्हें इस बात का आभास नहीं था कि बुरहान की हत्या के बाद इतना बड़ा आंदोलन खड़ा होगा, जिसके लिए पहले से ही संगठन खड़ा कर लिया गया था. वे भूल गए कि लगभग दो दशक पहले मौलवी मोहम्मद फारूक की हत्या का इस्तेमाल भी इसी प्रकार के भारत विरोधी आंदोलन के लिए किया गया था और तब भी प्रशासन तब अनजान रहा जब तक कि देर नहीं हो गई.



विकास की जमीन बनाएं
 नरेन्द्र मोदी विकास की बात करते हैं. वे कश्मीरी जनता की रोजी-रोटी की चिंता करने से कश्मीर में लोगों की गतिविधियों का लक्ष्य बदलने की वकालत करते हैं. लेकिन जिस प्रकार से कश्मीर का प्रशासन चल रहा है, उसमें ऐसा विकास तो होगा जिसमें केंद्र राज्य को भारी अनुदान देता रहे. लेकिन ऐसा नहीं होगा जिसमें हर युवक के पास काम हो और वह अपनी योग्यता के अनरूप आर्थिक विकास करने के मार्ग पर चल पड़े. कश्मीर में शिक्षित बेरोजगारों की बड़ी संख्या है, जो हर वर्ष बढ़ती ही जा रही है. सरकार के पास उनके लिए पर्यात काम नहीं हैं और आज के दौर में हो भी नहीं सकता है. उद्योग नहीं के बराबर हैं.

सरकारी उद्योगों की हालत खराब है और उनमें रोजगार देने की क्षमता नहीं है. निजी उद्योगों को लगाने के लिए जो शत्रे राज्य सरकार ने रखी हैं, उनको देखते हुए कोई बड़ा उद्योग कश्मीर में नहीं लग सकता है. बड़े उद्योगों को जमीन की आवश्यकता होती है, जो किसी गैर कश्मीरी को नहीं मिल सकती है. कोई गैर कश्मीरी उद्योगपति कश्मीरी नागरिक के साथ मिल कर भी जमीन नहीं पा सकता है. फिर भारी पूंजी लगाने वाली कम्पनियां अपने पैसे और सम्पति की सुरक्षा चाहती हैं. ये सब मौलिक आवश्यकताएं नहीं पूरी होंगी, तब तक कोई बड़ा उद्योगपति कश्मीर में अपना पैसा लगाने की हिम्मत नहीं कर पाएगा.

सरकारी उद्योगों का प्रयोग कश्मीर में पहले ही नाकाम रहा है. कोई सरकारी उद्योग पनप नहीं पाया. पर्यटन और फलों पर ही राज्य की अर्थव्यवस्था टिकी नहीं रह सकती है. भारत सरकार के लिए यह आवश्यक है कि वह राज्य सरकार को दो टूक भाषा में यह बात समझाए कि व्यावहारिक बने बिना कश्मीर की आर्थिक हालत में बदलाव नहीं लाया जा सकता है और उस बदलाव के बिना कश्मीरी युवकों को पर्याप्त रोजगार नहीं मिल सकता है. काल्पनिक आशंकाओं और भावनाओं के आधार पर कोई भी कुशल प्रशासन संभव नहीं है.

इसी के अतिरक्ति यह जानने की आवश्यकता है कि हजारों युवकों और बच्चों को एक जुनूनी आंदोलन में बांधने के लिए आर्थिक सहायता कहां से आती है? इस आतंकवादी बवाल को चलाने के लिए बने वित्तीय तंत्र को नष्ट करने की आवश्यकता है. कुछ दिनों में कश्मीर में जीवन सामान्य हो जाएगा, लेकिन वह शंति सतही ही होगी. उसे स्थाई बनाने की कोशिश होनी चाहिए वरन सीमापार की आतंकी एजेंसियां, जिन्हें वहां की सरकारों का पूरा-पूरा समर्थन हासिल है, कभी भी  कश्मीरी जनता को किसी भावात्मक तूफान में फंसाने का कुचक्र चलेंगी ही.

 

 

जवाहरलाल कौल
वरिष्ठतम पत्रकार


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