कश्मीर में फिर से सहेजें अमन-शांति

Last Updated 23 Jul 2016 04:19:39 PM IST

एक बार फिर जम्मू-कश्मीर संकट में पड़ गया है. एक युवा आतंकी, बुरहान वानी, की मौत के बाद से समूचे दक्षिण कश्मीर में हिंसक प्रदर्शन हो रहे हैं.


कश्मीर में फिर से सहेजें अमन-शांति.

यह इक्कीस वर्षीय आतंकवादी सोशल मीडिया पर कट्टरपंथियों के लिए आइकन बन गया है, और ऐसी खबरें हैं कि उसकी अंतिम यात्रा में तीस हजार से डेढ़ लाख से ज्यादा लोगों ने शिरकत की. घाटी में बीते दो सप्ताह से हो रही हिंसा में 45 लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा और सैकड़ों घायल हुए हैं. इनमें पुलिसकर्मी भी शामिल हैं. कश्मीर आज हिंसा की आग में उसी तरह धधक रहा है, जैसा छह साल पहले धधक रहा था. राज्य और केंद्र की सरकारें उसी तरह से बिना तैयारी दिखलाई पड़ रही हैं, जैसे कि 2010 में दिखलाई पड़ रही थीं. 

अलबत्ता, इस बार दोनों सरकारों ने 2010 की तुलना में कहीं ज्यादा मुस्तैदी दिखलाई. मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने नागरिक समाज समूहों के साथ बैठकों का सिलसिला चलाते हुए धार्मिक संगठनों और असंतुष्टों से अपील की है कि हिंसा को खत्म करने में सहायता करें. अपने विधायकों को निर्देश दिया है कि अपने-अपने चुनाव क्षेत्रों का दौरा करें. घाटी में आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति बढ़ाई जा रही है. केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने स्थिति पर विचार करने के लिए दो आपात बैठकें बुलाई. प्रधानमंत्री, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार तथा केंद्रीय गृह मंत्री हर घंटे के अंतराल पर स्थिति का जायजा ले रहे हैं. लेकिन क्या दोनों सरकारों की तरफ से किसी ने विरोध प्रदर्शनों के दौरान मारे गए नागरिकों या पुलिस वालों के परिजनों से भी बात की है, यह पता नहीं चल पाया है.

सख्ती की जरूरत
सुरक्षा सेनाओं के लिए स्थिति कहीं ज्यादा विकट है. मात्र कुछ उपकरणों के बल पर उन्हें ज्यादा से ज्यादा सख्ती दिखानी है. प्रदर्शनकारी थानों को आग के हवाले कर रहे हैं; सुरक्षा प्रतिष्ठानों पर हमले कर रहे हैं; और पुलिस प्रभावी बैरिकेड लगाकर, आंसू गैस छोड़कर या पानी की बौछार करके उन्हें रोक पाने की स्थिति में नहीं है. पेलेट गन, जिन्हें \'नॉन-लीथेल\' (जान नहीं लेने वाले) हथियार के रूप में 2011-12 में हासिल किया गया था, अगर पास से चलाई जाती है, तो जानलेवा हो जाती हैं. इन खामियों के चलते उम्मीद नहीं है कि पुलिस किसी की मौत न होना सुनिश्चित कर पाए. इसका अर्थ हुआ कि केंद्र और राज्य की सरकारों को अन्य तरीकों के इस्तेमाल पर गंभीरता से सोचना चाहिए ताकि कम से कम लोग  हताहत और कम से कम गंभीर जख्मी हों. 

क्या ज्यादा प्रभावी तरीके से हमलों को रोकने के लिए सेना को पुलिस के साथ मिलकर कार्रवाई करनी चाहिए? या क्या इस प्रकार की कार्रवाई का कहीं और तीखा विरोध तो नहीं होने लगेगा? सेना को बैरकों में लौटाने तथा स्थानीय सुरक्षा को पुलिस के हवाले करने की कवायद में अनेक वर्ष लगे थे, और सुरक्षा-सुधार की दिशा में यह महत्त्वपूर्ण फैसला था. लेकिन दुर्भाग्य से अपने दायित्व को पूरा करने के मद्देनजर सीमित मात्रा में सुरक्षात्मक उपकरण या सीमित प्रशिक्षण मिलने तथा राजनीतिक और प्रशासनिक शून्यता की स्थिति में अपने काम को अच्छे से अंजाम देने में पुलिस असहाय हो गई है. इस संभावना पर विचार किया जाना चाहिए कि क्या ज्यादा से ज्यादा सख्ती दिखाने में सक्षम बनाने के लिए पुलिस को सलाह देने और सहायता करने में सेना सीमित भूमिका निभा सकती है, और क्या उसकी भूमिका को मौजूदा स्थिति तक ही सीमित किया जा सकेगा.  

बेशक, सबसे महत्त्वपूर्ण उपाय तो यह होगा कि प्रदर्शनों/मृत्यु-घायल होने के चक्र को लोगों के साथ ज्यादा से ज्यादा बातचीत करके तोड़ा जाए जैसा कि महबूबा मुफ्ती अभी कर भी रही हैं. लेकिन लोगों का गुस्सा कम करने के लिए मात्र अपीलों से ही काम नहीं चलेगा. 2010 में एक सर्वदलीय संसदीय प्रतिनिधिमंडल के राज्य में दौरे तथा उसके बाद वार्ताकारों के एक समूह, जिसकी मैं भी सदस्य थी, की नियुक्ति से हालात संभले थे, लेकिन 2011 में संपन्न हमारे मिशन के पश्चात अनुवर्ती उपाय नहीं किए जाने से शांति के ताजा-ताजा उभरे माहौल में बिगाड़ आ गया.

उसके बाद से राज्य को एक के बाद एक तमाम संकटों का सामना करना पड़ा है. इनमें प्राकृतिक आपदाओं से लेकर सीमा पार से गोलाबारी और लोगों के विस्थापन से लेकर आतंकी हमलों से लेकर सांप्रदायिक असंतोष जैसे तमाम संकट थे. पिपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी)-भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की गठबंधन सरकार, जो 2014 में सत्ता में आई, के लोगों की उम्मीद पर खरे नहीं उतरने से भी स्थिति और खराब हुई. कारण यह भी रहा कि दोनों पार्टियों ने गठबंधन करने से पूर्व एक दूसरे के खिलाफ खासी कड़ुवाहट भरा चुनाव लड़ा था. उम्मीद थी कि वे न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर व्यापक रुख अपनाते हुए मतदाता को आस्त करेंगी. लेकिन इसके बजाय वे अनुच्छेद 370 पर विवाद, गौमांस पर प्रतिबंध, शेष भारत में कश्मीरी छात्रों के खिलाफ नारेबाजी जैसे मुद्दों को लेकर आपस में उलझ गई.



संसद में चर्चा
यही संदर्भ है जिसे पीडीपी-भाजपा सरकार को विजित करता है, तभी वह हिंसा को स्थायी रूप से थाम पाएगी. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और मुख्यमंत्री मुफ्ती को घाटी में पसरे दर्द और गुस्से को समझना होगा. उनके पास अवसर है-संसद का सत्र आरंभ हो चुका है, और जम्मू-कश्मीर की स्थिति पर वहां चर्चा हो भी रही है.

मोदी और महबूबा मुफ्ती को सांसदों-विधायकों को बताना है कि हिंसा से निबटने में क्या जरूरी उपाय किए गए और ये कितने प्रभावी रहे. सांसदों का एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल घाटी के दौरे पर भेजा जा सकता है, जो लौट कर संसद को अपनी रिपोर्ट दे. चुनौती किस कदर गंभीर है, यह इन बातों से पता चलता है कि कुछ महीने पहले अप्रैल माह के आखिरी दिनों में कुपवाड़ा और हंदवाड़ा में हिंसा हुई थी, कि आतंकवादियों के अंतिम संस्कार के समय ज्यादा से ज्यादा लोग शिरकत करने लगे हैं, कि जमात-ए-इस्लामी ने लोगों को नये सिरे से कट्टर सोच वाला बना दिया है, और यह कि कश्मीरी युवाओं की नई पीढ़ी ने उग्रवाद को अपनाना आरंभ कर दिया है. (इसमें पत्थरबाजों को भी शामिल किया गया है)

2010 की दर्दनाक मौतों के बाद के दिनों में सरकार ने दरपेश चुनौतियों का सामना करने की गरज से अनेक कदम उठाए थे. रंगराजन कमेटी की सिफारिशों के अनुसार बड़ी संख्या में कश्मीरी युवाओं के लिए रोजगार और प्रशिक्षण के अवसर जुटाने को कार्यक्रम तैयार किए गए. लेकिन इन्हें कश्मीरी संस्कृति और राजनीतिक पृष्ठभूमि की जानकारी के बिना क्रियान्वित किया गया. इस करके ये कार्यक्रम एक महंगी नाकामी साबित हुए. इतना ही नहीं कश्मीरी युवाओं में अलग-थलग महसूस करने की प्रवृत्ति भी बढ़ी.

तीन सबक
गौर करें तो पाएंगे कि बीते पंद्रह सालों के दौर से तीन प्रमुख सबक सीखे जा सकते हैं. पहला, पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी से-यह कि संवेदना और उसे प्रकट करके कश्मीर में सफलता प्राप्त की जा सकती है. दूसरा, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से-यह कि शांति प्रक्रिया के लिए अति उत्साही होना और फिर तेजी से फिर जाने से स्थिति में और बिगाड़ आ सकता है. और तीसरा, बीते दो वर्षो से- यह कि जम्मू-कश्मीर जैसी स्थितियों में असावधानी को कदापि मामूली नहीं समझा जाना चाहिए. इन सबकों को मौजूदा संकट में लागू किया जाने के लिए जरूरी है कि तीन उपाय किए जाएं : पहला, मोदी संवेदनापूर्ण बयान जारी करें;  दूसरा, राज्य में गठबंधन सरकार के न्यूनतम साझा कार्यक्रम को पूरे मन से क्रियान्वित किया जाए; तथा तीसरा, कश्मीर मुद्दे के समाधान के लिए गठबंधन सहयोगियों के बीच मौजूदा सहयोग प्रगाढ़, स्पष्ट और बराबरी का होना चाहिए. हालांकि पाकिस्तान के प्रभावशाली गुट इस प्रकार के प्रयासों में अड़चन डालने के प्रयास जारी रखेंगे लेकिन उनके ऐसा कर पाने की ताकत धीरे-धीरे कमजोर पड़ने लगेगी बशर्ते भारत सरकार अडिग बनी रहे.

 

 

राधा कुमार
कश्मीर के पूर्व वार्ताकार


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment