सबसे खुली अर्थव्यवस्था के पेच
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मानें तो भारत दुनिया की सबसे खुली अर्थव्यवस्था हो गया है. इस टिप्पणी को हम आप किस तरह लेते हैं, यह हमारे नजरिए पर निर्भर करता है.
सबसे खुली अर्थव्यवस्था के पेच |
किंतु ध्यान रखने वाली बात है कि प्रधानमंत्री का बयान प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के संदर्भ में किए गए फैसलों पर केंद्रित है. कुछ लोगों को सरकार द्वारा रक्षा, नागरिक विमानन, पशुपालन एवं कारोबार, ई-कॉमर्स, डीटीएच, केबल नेटवर्क, मोबाइल टीवी तथा प्रसारण सेवाओं में 100 प्रतिशत विदेशी पूंजी निवेश स्वत: या सरकारी अनुमति द्वारा किए जाने के फैसले पर आश्चर्य हुआ है. आखिर, इतना बड़ा फैसला सरकार ने ऐसे लिया मानो कोई साधारण कदम हो. भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार है, जब किसी सरकार ने प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश के नियमों में एक साथ इतने बड़े बदलाव किए हैं.
लेकिन जो लोग मोदी सरकार के दो सालों की गतिविधियों पर नजर रख रहे थे, उनके लिए इसमें आश्चर्य का कोई तत्व नहीं है. आश्चर्य का तत्व तो तब होता जब मोदी सरकार ऐसा नहीं करती. आप लाल किला से मेक इन इंडिया की शुरु आत करते हुए अपील करते हैं कि दुनिया के पूंजी निवेशक आएं और भारत में निवेश करें. आप दुनिया भर में घूमकर हर जगह कारोबारियों के साथ बैठकें करते हैं, और भारत को पूंजी निवेश के सबसे बेहतर ब्रांड के रूप में पेश करते हैं. जब तक आप उनके अनुकूल नियम ही नहीं बनाएंगे तो वो आएंगे कैसे? यह सवाल मोदी सरकार को मथ रहा था. हालांकि पिछले दो वर्षो में विदेशी पूंजी निवेश में करीब 43 प्रतिशत वृद्धि हुई है, लेकिन मोदी सरकार जिस तरह मेक इन इंडिया को गति देना चाहती है, उसके हिसाब से तो यह कुछ भी नहीं है.
वास्तव में दुनियाभर के निवेशकों की सोच तथा वर्तमान आर्थिक ढांचे में भारत की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए मोदी सरकार ने 100 प्रतिशत पूंजी निवेश का फैसला किया. पिछले दो साल में मोदी सरकार ने रक्षा, निर्माण या रियलिटी सेक्टर, इंश्योरेंस, पेंशन, ब्रॉडकॉस्टिंग सेक्टर, चाय, कॉफी, रबर, एकल ब्रांड खुदरा, विनिर्माण क्षेत्र सेक्टर, सैटेलाइट स्टैबलाइज एंड ऑपरेशन समेत कई क्षेत्रों में विदेशी निवेश या उसमें वृद्धि के लिए कदम उठाए हैं. यह कदम उनका विस्तार ही तो है. हालांकि सरकार इसे आर्थिक प्रगति की दृष्टि से महत्वपूर्ण कदम बता रही है. उसके अनुसार एक साथ भारत का आर्थिक विकास होगा, रोजगार बढ़ेगा, व्यवसाय की स्वस्थ प्रतिस्पर्धा होगी..आदि आदि.
विरोधियों की मोर्चाबंदी
किंतु विरोधी इसके खिलाफ मोर्चाबंदी में लग गए हैं. संघ परिवार से जुड़े स्वदेशी जागरण मंच ने भी विरोध कर दिया है. जिन कम्युनिस्ट पार्टयिों ने जीएसटी पर सरकार को समर्थन देने का ऐलान किया था, उनने भी विरोध में आवाज उठाई है. कांग्रेस, जो स्वयं ऐसा करना चाहती थी, ने भी विरोध किया है. जाहिर है, इसका राजनीतिक विरोध होगा. इसका असर संसद के आगामी सत्र पर पड़ सकता है. यह स्वाभाविक है. रक्षा एवं संचार क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश को लेकर हमारे देश में लंबे समय से दो राय रही हैं, और आगे भी रहेंगी. इसे संवेदनशील क्षेत्र कह कर विदेशी निवेश से दूर रखने का तर्क देने वालों की कमी नहीं रही है. किंतु मोदी सरकार तत्काल इससे पीछे हटेगी, लगता नहीं.
यहां एक-एक क्षेत्र पर विस्तार से वर्णन संभव नहीं. फिर भी समझने के लिए थोड़ी चर्चा आवश्यक है. सबसे विवादास्पद रक्षा क्षेत्र है. रक्षा क्षेत्र में मोदी सरकार ने 49 प्रतिशत विदेशी निवेश की अनुमति पहले से दी थी, लेकिन कोई रक्षा कंपनी भारतीय स्वामित्व में अपनी तकनीक और क्षमता का हस्तांतरण करना नहीं चाहती थी. इसलिए निवेश नहीं आ रहा था, और भारत दुनिया के रक्षा बाजार का सबसे बड़ा खरीदार बना हुआ है. अब 100 प्रतिशत निवेश की अनुमति तथा तकनीक स्थानांतरण की शर्त हटाने के बाद इनके निवेश का रास्ता खुल गया है. विदेशी कंपनियां यहां रक्षा उद्योग लगा सकेंगी तथा हमारे देश में उत्पादित सामान हम खरीद सकेंगे. साथ ही, हमारे देश से शस्त्र निर्यात भी हो सकेगा.
रक्षा क्षेत्र में विदेशी निवेश का विरोध करने वाले भूल रहे हैं कि हमारे यहां निजी कंपनियां रक्षा सामग्रियां बना ही कहां रही थीं कि उन पर उल्टा असर होगा. इसके विपरीत अब एअरबस टाटा के रक्षा बलों के लिए परिवहन विमान, महिन्द्रा के साथ हेलिकॉप्टर और लार्सन एंड टूब्रो के साथ रडार निर्माण का कारखाना लगने का रास्ता खुल गया है. सच यह है कि रक्षा उद्योग विदेशी कंपनियों के आने से ही बढ़ सकता है. हमारे देश की कंपनियां भी उनके साथ काम करके अनुभव लेने के बाद अपना उत्पादन कर सकती हैं.
दूसरा विवादास्पद क्षेत्र है, एकल ब्रांड खुदरा कारोबार. इसमें काम करने वाली कंपनियों से लघु उद्योगों से 30 प्रतिशत खरीद की शर्त तीन साल के लिए हटा दी गई है, और आगे यह पांच साल के लिए हट सकती है. माना जा रहा है कि एप्पल, वॉलमार्ट जैसी कंपनियां अपना स्टोर खोलने के साथ विनिर्माण और खुदरा कारोबार को बढ़ावा देंगी. यह भी तर्क है कि रोजगार वृद्धि के साथ प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और उत्पाद सस्ते होंगे. हालांकि उत्पाद सस्ते होने को लेकर संदेह की पूरी गुंजाइश है. ऐसी ही दवा क्षेत्र में पुरानी परियोजनाओं में 74 प्रतिशत तथा नई में सरकारी अनुमति से 100 प्रतिशत निवेश के निर्णय से पुरानी कंपनियों के लिए निवेश संभावना बढ़ने के साथ विदेशी उन्नत तकनीक एवं शोध आदि में प्रगति की उम्मीद की जा रही है.
नई प्रौद्योगिकी आने की संभावना
ऐसे ही भारत में बने खाद्य उत्पाद में ई-कॉमर्स सहित सारे व्यापार, पशु पालन, मधुमक्खी पालन एवं मत्स्य पालन में स्वत: 100 प्रतिशत विदेशी निवेश की अनुमति से इनके व्यापार में वृद्धि, रोजगार बढ़ने तथा नई प्रौद्योगिकी आने की संभावना व्यक्त की गई है. यही बात डीटीएच, मोबाइल टीवी, केबल नेटवर्क आदि में 49 प्रतिशत स्वत: तथा अनुमति से 100 प्रतिशत अनुमति के संदर्भ में कही जा रही है. नागरिक उड्डयन का क्षेत्र देखें तो ग्रीनफील्ड परियोजनाओं में स्वचालित मार्ग के तहत हवाई अड्डों पर 100 प्रतिशत तथा ब्राउनफील्ड परियोजनाओं में 74 प्रतिशत की अनुमति है. जब विदेशी विमानन कंपनियां देसी कंपनियों की सौ प्रतिशत तक हिस्सेदारी खरीद सकती हैं, तो उनको पूंजी निवेश में समस्या नहीं होगी. इससे छोटे शहरों को हवाई मार्ग से जोड़ने का मार्ग प्रशस्त होने की उम्मीद की गई है.
इस तरह विदेशी निवेश से उम्मीदें ही उम्मीदें हैं. इनमें से कुछ हो सकता है, और कुछ नहीं भी. वैश्विक मंदी के इस दौर में जब कंपनियों में निवेश को लेकर उत्साह नहीं है..वे नए निवेश करने से हिचक रहे हैं, उस समय मोदी सरकार ने यह फैसला करके उनके आत्मविश्वास को भी बढ़ाने का काम किया है. एक समय चीन विदेशी निवेशकों के लिए प्रमुख आकषर्क स्थल था. मोदी सरकार भारत को उस स्थान पर लाने की कोशिश कर रही है. परिणाम के लिए हमें प्रतीक्षा करनी होगी. वस्तुत: अंग्रेजी में जिसे फील गुट फैक्टर कहते हैं, निवेशकों के लिए वह वातावरण बनाने की कोशिश की गई है. इसके सहयोगी के तौर पर जीएसटी पारित कराने की कोशिश चल रही है. श्रम कानूनों में बदलाव हुआ है, और इन्हें करने की ओर सरकार बढ़ रही है.
लेकिन ऐसा नहीं है कि सब कुछ नियम रहित एवं घरेलू कंपनियों के लिए सुरक्षोपाय किए बगैर कर दिया गया है. जो सुरक्षोपाय लागू हैं, वे रहेंगे. कारण, घरेलू कंपनियों को बचाना जरूरी है. दूसरे, विदेशी निवेश के लिए जो बोर्ड है, वह कार्यरत है. उसकी अपनी भूमिका है. हम न भूलें कि अंतत: जो भी कंपनियां या स्टोर या कारखाने खुलेंगे वे राज्यों में. तो राज्यों की भूमिका इसमें अहम है. उन्हें तय करना होगा कि वो कितना और क्या चाहते हैं. जिसे व्यापार सुगमता यानी इज आफ बिजनेस डुईग कहते हैं, उसका दारोमदार राज्यों पर है. विकास के नारे ने सारे राज्यों पर दबाव बढ़ाया है. इसलिए उम्मीद है कि वो केंद्र की इस कोशिशों के साथ चलेंगे.
देश का वातावरण देखिए. माकपा ने सरकार के कदम का विरोध किया है, लेकिन केरल में उसकी सरकार के मुख्यमंत्री ने कुछ नहीं कहा है. जाहिर है, उनको पता है कि जिस विकास ढांचे में हम आ गए हैं, उसमें विदेशी पूंजी के लिए बड़ी कोशिश करनी ही होगी. यहां यह बात हमेशा ध्यान रखिए कि यह मोदी सरकार की सबसे बड़ी छलांग है. अगर इसमें सफलता नहीं मिली तो फिर मोदी के साथ तेजी से स्वदेशी संसाधनों और प्रौद्योगिकियों के आधार पर विकास की गाड़ी को चलाने के लिए ऐसे ही बड़े देसी फैसलों की ओर लौटना होगा. हालांकि उदारीकरण के 25 वर्षो में जितना परिवर्तन हो चुका है, उसमें यह आसान नहीं है, लेकिन इसके अलावा विकल्प ही क्या होगा. तो समय की प्रतीक्षा करिए और देखिए कि होता क्या है.
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