विश्लेषण : असंतोष के प्रति बढ़ी बेरुखी

Last Updated 01 Jun 2016 05:57:30 AM IST

यह पहली बार नहीं है कि देश में गैर-नेहरू खानदान का कोई सदस्य प्रधानमंत्री बना है.




असंतोष के प्रति बढ़ी बेरुखी

यह भी पहली बार नहीं है कि गैर-कांग्रेस की पहली बार सरकार बनी है. पहली बार हुआ है, तो यह हुआ है कि भाजपा को पहली बार लोक सभा चुनाव में स्पष्ट बहुमत मिला और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री के रूप में काबिज हो गए. पहली बार हुआ कि प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में पेश मोदी के पास चुनाव प्रचार के लिए सबसे उन्नत साधन थे. सबसे महंगा चुनाव हुआ. पहली बार हुआ कि मोदी ने बड़ी उम्र के लोगों को दरकिनार कर दिया. जिसे चाहा मंत्रिमंडल में शामिल किया. पार्टी के संगठनात्मक ढांचे को पुनर्गठित करवाया और गैर-संगठनात्मक पृष्ठभूमि के अमित शाह को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनवाया.

एक लिहाज से संसदीय लोकतंत्र के सर्वाधिक ताकत वाले प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी को देखा जा सकता है, जो दुनिया के सबसे ताकतवर नेतृत्व अमेरिकी राष्ट्रपति को नाम से संबोधित करता है, और अमेरीकी राष्ट्रपति जिसे अपना दोस्त बताता है. देश के गैर-भाजपाई मतदाताओं ने बड़े उत्साह से नरेन्द्र मोदी का स्वागत इसीलिए किया क्योंकि वह अपनी हर चुनावी सभा में एक ऐसा वादा करते थे, और मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सोनिया गांधी की सरकार पर ऐसी प्रतिक्रिया व्यक्त करते थे कि लोगों के अंदर की बात छीन ली हो और अब अच्छे दिन आने ही वाले हैं. लोगों ने प्रधानमंत्री की मन की बात सुनने के लिए रेडियो में कानों को  लगा लिया.

केंद्र में पिछले दो वर्षो में वास्तव में सरकार के रूप में मोदी ही रहे हैं. उन्होंने जब सत्ता संभाली तो उनके खिलाफ एक स्थायी आलोचना का पक्ष बना हुआ था, जो गुजरात में मुस्लिम विरोधी हिंसा के कारण शुरू हुआ था. यानी सांप्रदायिकता के लिए मोदी के नेतृत्व की आलोचना और आशंका और इस आधार पर असंतोष और असुरक्षा का पक्ष समाज में रहा है, और वह दो वर्षो में दूर होने के बजाय दर्जनों घटनाओं के आलोक में और गहराया. लेकिन मोदी का दूसरा पक्ष जो गुजरात के बहाने सर्वाधिक प्रचारित हुआ था कि उन्होंने पन्द्रह वर्षो के दौरान गुजरात को इतनी अच्छी स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया कि हर गुजराती खुशहाल है. हर गली और गांव गुलजार है.

यानी मोदी के नेतृत्व को लेकर एक नई धारणा विकसित करने की कोशिश की गई कि नेतृत्व भले ही सांप्रदायिकता के आरोप से घिरा हो लेकिन मानव विकास के जो पैमाने निर्धारित किए गए हैं, उनके लिए उस नेतृत्व ने बेहतर प्रशासनिक फैसले किए हैं. मोदी ने भी अपने चुनावी वायदों में गुजरात में अच्छे दिन लाने के सुर अलापे और बहुमत देने वाले लोगों ने उसे सुनकर आत्मसात कर लिया. लेकिन कहा जाता है कि संसदीय राजनीति में कोई भी नेतृत्व जल्दी-जल्दी जितनी बड़ी उम्मीदें खड़ी कर देता है, तो उसके खिलाफ असंतोष उतना ही तेजी से बढ़ता है.

संसदीय राजनीति में हाल के वर्षो में एक खास बात यह हुई है कि नई पार्टी या नए नेतृत्व को स्थापित होने में ज्यादा वक्त नहीं लगता है. प्रबंधन की क्षमता ने इसके शॉर्टकट तैयार कर दिए हैं. लेकिन इसका साइड इफेक्ट ये भी है कि उतनी ही गति से वह नेतृत्व और पार्टी शेयर बाजार की तरह लुढ़क जाती है. प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में असुरक्षा के बाद आर्थिक-सामाजिक स्तर पर असंतोष का तेजी से विस्तार हुआ है. उपलब्धि के बूते नरेन्द्र मोदी सरकार का समर्थन बेहद कम हुआ है. यदि नरेन्द्र मोदी सरकार कांग्रेस की सरकार की आलोचना को सक्रिय नहीं रखे तो उपलब्धि का स्तर और नीचे दिखने लगता है. सरकार ने अपने बचाव का एक बेहतरीन तरीका यह निकाल लिया है कि जब भी किसी मसले को लेकर वह कटघरे में खड़ी की जाए तो वह कांग्रेस के शासन के दौरान उस मसले की तस्वीर से अपनी तुलना कर दे. यानी कांग्रेस के राज में भाजपा के राज से ज्यादा दंगे हुए.

मोदी की सरकार के खिलाफ एक तो पिछले तमाम चुनावों में भाजपा की पराजय, वोट से ही नहीं बल्कि भाव से भी, को भी असंतोष का एक आधार हो सकता है. लेकिन यहां दो क्षेत्रों पर हमारा विशेष जोर है. वह सबसे ज्यादा आबादी वाले युवाओं के भीतर असंतोष के रूप में देखा जा सकता है. शिक्षा का पूरा ढांचा बुरी तरह ढहता दिखाई देता है. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि सरकार शिक्षा की जिम्मेदारी से भाग रही है,  और उसे निजी पूंजी के हवाले कर रही है, जहां पैसे वालों को ही पढ़ने का अधिकार सुरक्षित होता है. शिक्षा का ढांचा लोकतंत्र के लिए विकसित हुआ था, लेकिन उसे अब केवल और केवल निजी पूंजी की सेवा के लिए खड़ा करने की कोशिश की जा रही है. देश का कोई भी ऐसा शिक्षा का सरकारी संस्थान नहीं है, जिसके आंगन में संतुष्टि की सांस ली जा सके.

दूसरा सबसे बड़ा क्षेत्र दवा-दारू का है. शिक्षा के साथ स्वास्थ्य को निजीकरण की प्रक्रिया को तेज करने के क्षेत्र के रूप में चुना गया है. यह माना जाता है कि लोगों की आय का सबसे बड़ा हिस्सा इन्हीं दो क्षेत्रों में निकल जाता है, और इस हद तक कि खाने और पीने जैसी बुनियादी जरूरतें भी आम लोग पूरी नहीं कर पाते हैं. सार के रूप में कहा जाए तो समाज को लोकतंत्र से ही स्थानांतरित करने की प्रक्रिया चल रही है. लोकतंत्र में जन असंतोष को भांपना और उसे लेकर चिंतित होना इसीलिए अब जरूरी नहीं लगता है क्योंकि चुनाव को प्रबंधन के हुनर से जीतने का अति विश्वास सत्ता को हो गया है.

अनिल चमड़िया
लेखक


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