राष्ट्रीय संदर्भ में नतीजे
पांच राज्यों के चुनाव मूलत: क्षेत्रीय परिप्रेक्ष्य में हुए और इनके परिणामों के मूल क्षेत्रीय मायने भी महत्त्वपूर्ण हैं.
राष्ट्रीय संदर्भ में नतीजे |
पांचों राज्यों को मिला दें तो 60 प्रतिशत से ज्यादा स्थान क्षेत्रीय दलों ने ही पाया है. कम्युनिस्ट पार्टयिां हालांकि तकनीकी रूप से राष्ट्रीय पार्टी मानी जातीं हैं किंतु वे कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित हैं. अगर उनकी सीटों को मिला दें तो यह 70 प्रतिशत हो जाता है.
इस आधार पर कह सकते हैं कि यह क्षेत्रीय दलों के वर्चस्व वाला चुनाव परिणाम साबित हुआ है. 2011 में भी ऐसा ही था. लेकिन हमें अंकगणित में क्षेत्रीय राजनीति का वर्चस्व भले दिखे, भारत की वर्तमान राजनीति में हर क्षेत्रीय चुनाव की राष्ट्रीय प्रतिध्वनि होनी निश्चित है. वैसे भी अगर इन चुनाव परिणामों के बाद 43.10 प्रतिशत पर भाजपा एवं राजग का शासन है तथा कांग्रेस एवं यूपीए का कुल 14.58 प्रतिशत पर और उसमें भी कांग्रेस का केवल 7 प्रतिशत पर तो इसका राष्ट्रीय अर्थ है ही.
इस आधार पर इसके राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य को समझने की कोशिश की जाए-
पहला,क्या होंगी इसकी राष्ट्रीय प्रतिध्वनि? दूसरा, राष्ट्रीय राजनीति पर इसका असर कितना सकारात्मक और नकारात्मक होगा? तीसरा, भाजपा की राजनीति पर इसका कितना असर होगा? चौथा, कांग्रेस की राजनीति इससे कितनी प्रभावित होगी? पांचवां, गैर भाजपा एकत्रीकरण की मुहिम की राष्ट्रीय राजनीति की संभावना पर इसका कितना असर होगा. छठा, नरेन्द्र मोदी सरकार के लिए इस चुनाव के अर्थ क्या हैं..? ऐसे कुछ और प्रश्न भी उठ रहे हैं पर हम इन्हीं में तात्कालिक एवं संभावित परिणामों को समेटते हैं.
चुनाव परिणाम आने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा, ‘यह जनता द्वारा सरकार की विकास नीति को दिया गया समर्थन है. लोग भाजपा की विकास की विचारधारा को समझ रहे हैं. इन सभी राज्यों में भाजपा को मिला समर्थन आम लोगों के उत्थान के लिए और ज्यादा काम करने की उर्जा प्रदान करेगा.’ इसका अर्थ हुआ कि सरकार जिस दिशा में काम कर रही है, उसी दिशा में तेजी से आगे बढ़ने की कोशिश करेगी. विरोधियों को जवाब देगी.
पराजय बोध से बाहर निकली
हालांकि सच तो यही है कि भाजपा को केवल असम में ही अपेक्षित सफलता मिली है. शेष राज्यों में उसका प्रदर्शन किसी तरह संतोषजनक नहीं है. किंतु पूर्वोत्तर के सबसे बड़े राज्यों में प्रवेश और चुनाव के माध्यम से क्षेत्र के एक राज्य में सरकार बनाने का मनोवैज्ञानिक असर होना लाजिमी है. बिहार पराजय से पैदा हुई निराशा और भविष्य को लेकर आशंकाओं के अवसाद से यकीनन पार्टी बाहर निकली है. वर्तमान भाजपा नेतृत्व में एक खास गुण है. अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों का उत्साह बनाए रखने के लिए वह छोटी सफलता को भी व्यापक पैमाने पर उत्सव की तरह मनाती है. इसका असर भी होता है. आप देख लीजिए ऐसा लग रहा है जैसे पूरा चुनाव ही भाजपा की विजय का चुनाव था. भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा भी कि कांग्रेस मुक्त भारत की दिशा में हम एक कदम आगे बढ़े हैं.
साफ है कि भाजपा अब नए आत्मविास और उत्साह के साथ कांग्रेस एवं अपने कट्टर विरोधी दलों का सामना करेगी. वह ज्यादा उम्मीद से 2017 में होने वाले पांच राज्यों के चुनाव में कूदेगी. उसकी तैयारी वह अभी से आरंभ कर रही है. वैसे इस चुनाव का यह कटु सच है कि कांग्रेस का प्रदर्शन काफी कमजोर रहा है. इसका मनोवैज्ञानिक असर पार्टी पर पड़ा है. कांग्रेस में हताशा इतनी गहरी है कि वह पश्चिम बंगाल में अपने पुराने आंकड़े से दो सीटें ज्यादा पाने तथा पुड्डुचेरी की हल्की सफलता को भी ठीक से पेश नहीं कर पा रही है.
यहां से कई प्रश्न कांग्रेस के संदर्भ में उठे हैं. मसलन, कांग्रेस जिस ढ़ंग से संसद में मोदी सरकार के खिलाफ लगातार आक्रामक और विधायी कार्यों में बाधक दल की भंगिमा अपनाए हुए है, उसमें परिवर्तन करेगी या पराजय की निराशा में वह और ज्यादा आक्रामक अपने को प्रदर्शित करेगी? संसद में मोदी सरकार के खिलाफ आक्रामकता से समर्थन पाने की उसकी रणनीति सफल नहीं हुई यह साफ है. हो सकता है कांग्रेस इसमें कुछ परिवर्तन करे. अगर नहीं भी करती तो इस परिणाम के बाद इतना तो होगा कि दूसरे कई विपक्षी दलों का समर्थन उसे नहीं मिलेगा.
परिणाम मोदी के लिए अनुकूल
यह स्वीकार करना होगा कि भले भाजपा को आशातीत सफलता इस चुनाव में नहीं मिली, लेकिन पूरा परिणाम नरेन्द्र मोदी सरकार के लिए अनुकूल है. तमिलनाडु में जयललिता मोदी सरकार के विरुद्ध अभी तक गई नहीं है. मोदी से उनके अच्छे संबंध हैं और संसद की भूमिका में भी यह दिखाई देता है. कल्पना करिए यदि द्रमुक और कांग्रेस जीतते तो मोदी सरकार के लिए कितनी बड़ी समस्या पैदा होती. असम में भाजपा की अपनी ही सरकार हो गई.
पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी राजनीतिक स्तर पर तो भाजपा से दूरी बनाए रखती हैं, लेकिन विधायी कार्यों में संसद में तृणमूल सहयोग भी करती है. उसका विरोध कांग्रेस की तरह नहीं है. जीएसटी विधेयक में यह समर्थन दिख सकता है. केरल में चाहे कांग्रेस हो या वाममोर्चा दोनों भाजपा के लिए प्रतिकूल ही होते और वहां तीसरा विकल्प था नहीं. वाममोर्चा विशेषकर माकपा की ताकत का मूल केन्द्र पश्चिम बंगाल था. राष्ट्रीय राजनीति में उसकी भूमिका का मुख्य आधार वही था, केरल और त्रिपुरा नहीं. पश्चिम बंगाल में ध्वस्त हो जाने के बाद न उनका तेवर पहले की तरह रह सकता न वे केन्द्रीय राजनीति की किसी महत्त्वपूर्ण भूमिका में हो सकते हैं.
भाजपा विरोधी राजनीति के एक प्रमुख घटक का मटियामेट होना, केवल तात्कालिक नहीं, भविष्य के लिए भी भाजपा विरोधी राजनीति के मोर्चेबंदी के चरित्र में आए बहुत बड़े परिवर्तन का आधार है. ममता ने वैसे ही साफ कर दिया है कि नीतीश कुमार जिस भाजपा विरोधी एकजुटता की बात कर रहे हैं उसमें वो साथ दे सकती हैं लेकिन उसमें वामपंथी पार्टयिां नहीं होनी चाहिए. तो माकपा के ध्वंस और विपक्ष की इस फूट से सबसे ज्यादा प्रफुल्लित भाजपा ही होगी. नीतीश कुमार ने चुनाव परिणाम के बाद भाजपा विरोधी दल एकजुट के आह्वान पर कोशिशें तेज होंगी पर इसमें कितन दल आएंगे, इसमें संदेह है. चुनाव परिणामों से जहां एक ओर भाजपा में नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की स्थिति मजबूत होगी वहीं कांग्रेस में राहुल गांधी के नेतृत्व पर सवाल उठेंगे.
राहुल गांधी पर खुलकर राष्ट्रीय स्तर पर कोई नेता भले न बोले लेकिन यह बात साफ हो रहा है कि नेहरू- इंदिरा परिवार अब कांग्रेस के लिए वोट दिलवाने की गारंटी नहीं रहा. इस सच का असर क्या होगा अभी कहना जरा मुश्किल है, लेकिन होगा अवश्य. हो सकता है कुछ जगह हमें विद्रोह भी देखने को मिले. पार्टी में कुछ जगह टूट भी हो. कांग्रेस में एक वर्ग राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाने की तैयारी कर रहा है तो कुछ चाहते हैं कि सोनिया गांधी ही अभी अध्यक्ष रहें. पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा से गठबंधन राहुल की रणनीति थी. इसमें वे असफल साबित हुए हैं. तो क्या उनके अध्यक्ष बनने के रास्ते की दूरी कुछ बढ़ जाएगी? इस प्रश्न के उत्तर के लिए हम आप थोड़ी प्रतीक्षा करें.
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