कटाक्ष : कर्ज लेकर घोड़ा खरीदो
कहते हैं जिन्हें देश की तरक्की नजर नहीं आती है, उन्हें अपनी आंखों का इलाज कराना चाहिए.
कटाक्ष : कर्ज लेकर घोड़ा खरीदो |
कुछ तो देखना भी नहीं चाहते, वर्ना सच्ची बात तो यह है कि न सिर्फ तरक्की आ रही है बल्कि घोड़े की दुलकी चाल से दौड़ती हुई आ रही है. अब कोई जानबुझकार नहीं देखना चाहे तो हम यही कहेंगे कि चाल-वाल भी क्या तरक्की साक्षात घोड़े की शक्ल में आ रही है. तभी तो माल्या साहब ने पुराने मुहावरे को अपग्रेड कर, उसमें कर्जा लेकर घी पीने की जगह, कर्जा लेकर घोड़ा खरीदने का प्रावधान कर दिया है. आखिरकार, कोई कब तक उस पिछड़े जमाने में ही अटका रह सकता है, जहां घी पीने को ही सबसे बड़ी ऐश माना जाता था!
कोलस्ट्रोल बढ़ने के डर को अगर भूल भी जाएं तब भी कोई बहुत जोर लगाएगा तब भी कितने का घी पी लेगा? ज्यादा से ज्यादा हजार-दो हजार का ही तो. हजार-दो हजार के खच्रे के लिए कर्ज लेना भी कोई कर्जा लेना है, लल्लू! कर्ज लेकर बंदा ज्यादा नहीं तो कम से कम 9 करोड़ रु. का घोड़ा तो खरीदे! यूं तो माल्या साहब ने कर्जा ले-लेकर ही हवाई जहाजों से लेकर, घरों तक और भी बहुत कुछ खरीदा था. राजनीति करने वाले घोड़े भी खरीदे थे. ये और बात है कि ऐन मौके पर वो काम न आएं, फिर भी जो बात कर्जा लेकर एअर सपोर्ट जैसा घोड़ा खरीदने में है और कुछ भी खरीदने में कहां है.
वैसे इतना तो मानना पड़ेगा कि तरक्की की कुछ न कुछ शुरुआत अंगरेजी राज के जमाने में ही हो गई थी. वरना चचा गालिब ने कर्जा लो और मय पिओ का सूत्र न दिया होता. कम से कम घी से तो पीछा छूटा, मय तक तो आए. घोड़ा इन सबके मुकाबले बहुत हेल्दी विकल्प है. और हां, तरक्की की हर सफलता कथा के पीछे, दूसरी कई विफलता कथाएं भी रहती हैं. जैसे किसानों की कर्जा लेकर, खेत में डुबाओ की विफलता कथा. किसान की विफलता कथा आत्महत्या की ओर ले जाती है, जबकि कर्ज लेकर घोड़ा खरीदने वाला बंदा मुश्किल देखकर लंदन निकल जाता है.
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