चला गया रोते बच्चे को हंसाने वाला
प्रख्यात शायर निदा फाजली कुछ उन साहित्यकारों में हैं, जिन्होंने जीवन के विस्तार को वास्तव में छोटा करके देख लिया है.
चला गया रोते बच्चे को हंसाने वाला |
या फिर कहा जाय देखा ही नहीं, पढ़ने और सुनने वालों को भी दिखा दिया तो ज्यादा सही होगा. आम लोगों में निदा साहब भले ही शायर के तौर पर जाने जाते रहे हों, लेकिन सिर्फ शायर कहना उन्हें सीमित करना है. उन्होंने जिस तरह के दोहे लिखे, वह आधुनिक दौर में देखने को नहीं मिलते. इधर, तीन-चार दशक में देखें तो; दोहे बहुत से कवियों शायरों ने लिखे, लेकिन किसी के दोहे में वो ताकत नहीं दिखी, जिन्हें कहा जा सके ‘सतसइया के दोहरे ज्यों नाविक के तीर, देखन में छोटे लगे घाव करे गंभीर.’
निदा के दोहों की तल्खी और संजीदगी की वजह से ही उनके प्रशंसक उन्हें आधुनिक दौर का कबीर कहते हैं. विद्रोह की कुछ वैसी तल्खी रही भी है निदा साहब में. तभी तो वे कह पाए-‘बच्चा बोला देख के मस्जिद आलीशान, अल्ला तेरे एक को इतना बड़ा मकान.’ या फिर ‘सारे दिन भगवान के क्या मंगल-क्या पीर जिस दिन सोए देर तक भूखा रहे फकीर.’ यही नहीं, उन्हें मस्जिद जाने से जरूरी लगता है, किसी बच्चे को खुश कर देना ‘घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें, किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए.’ मस्जिद पर इस तरह से लिखने को लेकर उनका विरोध भी हुआ. कट्टरपंथियों ने तरह-तरह से उनको कोसा.
फिर भी अगर संजीदगी से समझने की कोशिश की जाय तो निदा ने मस्जिद का नाम भर लिया था. प्रतीक भर बनाया था. ये बातें तो लाखों-करोड़ों की संपत्ति वाले हिंदू मठों और मंदिरों पर भी लागू होती हैं. उनकी तरक्कीपसंद सोच थी. वे कहते थे ‘मस्जिद को हम बनाते हैं, बच्चों को तो अल्लाह बनाते हैं.’ निदा खुद बताया करते थे कि पाकिस्तान में कट्टरपंथियों की एक जमात ने उन्हें ‘अल्ला तेरे एक को’ और ‘घर से मस्जिद है बहुत दूर’ वाले शेर सुनाने पर घेर लिया था. कट्टरपंथियों को अपनी इसी दलील से उन्होंने शांत किया था, लेकिन ऐसा भी नहीं कि वह मजहब की सिर्फ निंदा ही करते थे. वे तो चाहते थे ‘चिड़िया की चहकार में गूंजे राधा-मोहन, अली-अली’.
‘इनसाइट’ नाम से उनकी रचनाओं के एक संग्रह को जगजीत सिंह ने आवाज दी थी. ‘इनसाइट’ दरअसल भारत की मिली-जुली तहजीब पर केंद्रित है. दरअसल, निदा को बचपन से ही गंगा-जमुनी तहजीब से ही मुहब्बत थी. तभी तो मां-बाप और परिवार के दूसरे लोग जब विभाजन के बाद के दंगों से ऊब कर पाकिस्तान जाने लगे, तो भी निदा भारत में रहे. उन्होंने इस मुल्क के लिए सब कुछ छोड़ दिया.
दिल्ली में 1938 में जन्मे निदा फाजली का पूरा नाम मुक्तदा हुसैन रखा गया था. बाद में उन्होंने अपने मूल स्थान कश्मीर के फाजिला के नाम को फाजली के तौर पर अपने नाम से जोड़ लिया और पूरी दुनिया उन्हें निदा फाजली के नाम से ही जानती है. ग्वालियर से पढ़ाई पूरी करने के बाद निदा रोजगार की तलाश में मुंबई आ गए और वहां उन्होंने तमाम पत्र-पत्रिकाओं में लिखा. एक समय उनकी भेंट कमाल अमरोही से हुई और उन्हें फिल्म ‘रजिया सुल्तान’ के लिए दो गाने लिखने का मौका मिल गया. रजिया के गीतों की भाषा और निदा की पूरी शायरी की भाषा में कोई तालमेल नहीं है, लेकिन जैसा अमरोही चाहते थे, वैसी ही भाषा में शानदार गीत तैयार हो गया. फिर फिल्म ‘आहिस्ता-आहिस्ता’ के लिए उन्हें गीत लिखने का मौका मिला. इसके गीत भी बहुत लोकप्रिय हुए. इधर,‘होश वालों को खबर क्या’ भी खूब मशहूर हो चुका था.
निदा ने उसी दरम्यान कुछ स्थापित लेखकों के बारे में ऐसे राज आम कर दिए थे, जिनकी वजह से इन लेखकों ने इन्हें दरकिनार करने की कोशिश की. फिर भी निदा की अपने दौर के प्रति सतर्कता और चिंता ने उन्हें इस कदर आधुनिक रखा कि उनकी रचनाओं की ताजगी हर सुनने वाले को महसूस होती थी. भाषा के स्तर पर उन्होंने रजिया सुल्तान के गीतों से दिखा दिया था कि वे भी उर्दू के तमाम आलिम कहे जाने वालों से भी ज्यादा गंभीर और भारी-भरकम शब्दों का इस्तेमाल कर गीत-गजल लिख सकते हैं. बावजूद इसके उन्होंने अपनी रचनाओं की भाषा बेहद सहज उर्दू या फिर कहा जाय हिंदुस्तानी ही रखी. उन्होंने सूरदास को सुन कर लिखने की प्रेरणा ली थी, उसे ता-उम्र कायम रखा.‘..हर आदमी होते हैं दस-बीस आदमी, जिसको भी देखना कई बार देखना..’ के बारे में वे खुद वे कहा करते थे- ‘उर्दू में दस-बीस की उपमा देने की रिवायत नहीं रही है. फिर भी मुझे सूर का ‘ऊधो मन न भये दस-बीस,’ इतना अच्छा लगा कि इसे शामिल कर लिया.’
जो सबसे अहम रहा कि अपनी पूरी रचना यात्रा में निदा देश की मिली-जुली तहजीब के प्रति खासे चिंतित दिखे. जब कभी देश में माहौल बिगाड़ने की कोशिश होती थी तो उनकी आवाज बुलंद हो जाती थी. कलबुर्गी की हत्या और दादरी के अखलाक की हत्या के बाद एक खास मुलाकात में उन्होंने ‘समय उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड’ न्यूज चैनल को अपनी एक रचना दी थी. जो संभवत: अब तक कहीं नहीं आई है. अपनी तरह से बोलने वाला/अपनी तरह से सोचने वाला/अपनी तरह से अपने घर के/दरवाजों को खोलने वाला/अपनी तरह से लिखने वाला/टीवी पर अपने चेहरे सा दिखने वाला/पाकिस्तान के मुस्लिम जैसा/हिंदुस्तान का हिंदू भी अब/अपने देश के हत्यारों के घेरे में है/हुक्म है उनका हम हैं जैसे सब हो वैसे/ हर आजादी पहरे में है/एक ही जैसा हर भोजन हो/एक ही जैसा हर आंगन हो/एक ही जैसा हर चिंतन हो/हुक्म है मुट्ठी भर लोगों का/वो हैं जैसे सब हो वैसे.
लोकप्रियता की बात की जाय तो फिल्म ‘आहिस्ता-आहिस्ता’ के लिए ‘कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता..’ या फिर ‘दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है..’जैसी तमाम ऐसी रचनाएं उनके नाम हैं, जो जुबान पर चस्पा हैं. रिश्तों और खासतौर से मां पर जब कभी भी शायरी की बात होगी निदा साहब हर बार याद किए जाएंगे-‘बेसन सोंधी रोटी पर, खट्टी चटनी जैसी मां..’ जिन कुछ शायरों ने गजल में मां का शिद्दत से जिक्र किया, उनमें निदा को सबसे अगली कतार में देखा जाता है.
उन्होंने कहा ‘मैं रोया परदेश में भीगा मां का प्यार, दुख ने दुख से बात की बिन चिट्ठी बिन तार.’ निदा आसपास चल रही घटनाओं के प्रति इस कदर सतर्क रहते थे कि जब मलाला अपने मुल्क में संघर्ष कर रही थी, तब उनकी कलम उसकी तारीफ में चल पड़ी. ‘मलाला, मलाला/आंखें तेरी चांद और सूरज/हिम्मत तेरी हिमाला../ तेरे रस्ते का हमराही नीली छतरी वाला, मलाला, मलाला.’ ऐसे बड़े रचनाकार को बहुत से इनाम और सम्मान मिले थे, लेकिन सरकार ने जब 2013 में पद्मश्री दिया तो निदा साहब के प्रशंसकों को यह मलाल जरूर था कि इसे उन्हें पहले मिलना चाहिए था. दुखद यह है कि साहित्य जगह अभी इंतजार हुसैन जैसे कद्दावर रचनाकार के शोक से उबर भी न पाया था कि निदा साहब के निधन से उस धारा का एक और रचनाकार हमें छोड़ गया.
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