क्या शिक्षा का लोकतंत्र से कोई संबंध नहीं

Last Updated 07 Feb 2016 01:18:15 AM IST

पता नहीं किस गोरखपंथी ने या किन दो गोरखपंथियों ने यह अफवाह फैला रखी है कि हर आदमी अपना-भला-बुरा; सबसे अच्छी तरह समझता है और इस मामले में वह चाहे तो परामर्श ले.


राजकिशोर

पर कोई हस्तक्षेप कर उस पर शैक्षिक डिग्री जैसी सीमा नहीं लाद सकता. दूसरी अफवाह यह है कि जब किसी उम्मीदवार या मतदाता पर एक न्यूनतम शिक्षा की परिसीमा लाद दी जाती है, तो यह उनके लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमला है. बीच-बीच में कई बात मांग उठाए जाने के बावजूद अभी तक सांसदों और विधायकों के लिए इस तरह का कोई प्रावधान नहीं किया है. स्वयं निर्वाचन आयोग ने भी कई बार मतदाताओं और निर्वाचित प्रतिनिधियों की शिक्षा का सवाल उठाया है, पर उसकी इस बात को किसी ने कोई महत्त्व नहीं दिया.

पिछले कई वर्षो में कई राज्य सरकार ने त्रि-स्तरीय पंचायत निकायों की सदस्यता और मतदाता के रूप में सहभागिता के लिए उम्र, लिंग, जाति आदि के आधार पर विभिन्न स्तर की शैक्षणिक योग्यता निर्धारित नहीं की है. इन राज्यों में मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, बिहार आदि का स्थान सब से ऊपर है. केरल और पश्चिम बंगाल देश के सबसे प्रगतिशील राज्यों में माने जाते हैं. पश्चिम बंगाल में तो नहीं, केरल में साक्षरता का प्रतिशत सब से ऊंचा था. यह 1980 के दशक की बात है. मार्क्‍सवादी सत्ता पश्चिम बंगाल में सबसे अधिक समय तक रही, पर उसने आम जनता के बीच प्रगतिशील चेतना और आम चेतना फैलाने की कोई सुनियोजिक समयबद्ध कार्यक्रम नहीं चलाया. इसलिए इन राज्यों ने मध्य प्रदेश, हरियाणा आदि से कुछ सीखने की कोशिश नहीं की थी; तब बहुतों की तरह अब शायद उन्हें भी लग रहा होगा. हर रजिस्टर्ड मतदाता को वोट पाने तथा वोट देने का अधिकार है और इस मूल संवैधानिक अधिकार के साथ किसी प्रकार का समझौता नहीं किया जा सकता.

यह अधिकार ही बालिग मताधिकार का कानून कहा जा जाता है. यानी जो बच्चा नहीं है, बालिग है, उसे यह अधिकार स्वाभाविक रूप से प्राप्त था, वह राज-काज में स्वतंत्रतापूर्वक भाग ले सकता था, लेकिन परिभाषाओं की सिफत यह यही है कि वे समय-समय पर बनाई जाती रही हैं, लेकिन समय-समय पर परिभाषा भी बदलती रही थी. पहले सिर्फ  वही व्यक्ति बालिग समझा जाता था, जिसके पास अपने और अपने निर्वाह-भरण भर के लिए संपत्ति हो और जिस पर राज्य का या किसी का वित्तीय ऋण न हो. वोट देने और पाने की मान्यता पाने के लिए कॉलेज या शिक्षा भी अनिवार्य थी. हमारे घर के आसपास के इलाके में नगर निगम के लिए जब पहले बात चुनाव हुआ, तब अपने घर से मुझे ही यह मतपत्र मिला. ब्रिटेन और अमेरिका में नाबालिग कहलाने की निम्नतम उम्र भी ज्यादा थी.

शुरू में 35 वर्ष और बाद में तीस वषर्. उन दिनों स्त्रियों की उम्र जितनी हो जाए, वे जीवन भर बच्ची ही बनी रहती थीं. यहां तक वे अपनी संपत्ति भी अपने नाम नहीं रख सकती थीं. बड़ी कानून की निगाह में उनकी स्थिति बालिग नहीं हो पाती थीं. कानून की निगाह में वे शात नाबालिग थीं. वे अपने निजी जीवन से संबंधित निर्णय भी अपने मन से नहीं ले सकती थीं, लेकिन लोकतंत्र किसी एक बिंदु तक सीमित नहीं रह सकता; वह सीमा इतनी नीची और लचीली बना देने का तुक है?

जब किसी कर्मचारी का बेटा या बेटी अपने अफसर के साथ बैठ सकता है या बैठ सकती और एक ही तरह की प्रतिद्वंद्वी परीक्षा में बैठ सकता है, तब दोनों के बीच जाति का पूर्वाग्रह कहां रह गया? इसी तरह, तब किसी पूंजीवादी का बेटा एक गरीब या दलित परिवार के साथ एक ही बेंच पर बैठता और उन्हीं अध्यापकों से पढ़ता है, तब लोकतंत्र के भीतर मौजूद सामंत की जड़े कहां समा रही होती हैं? बेशक यूरोप और अमेरिका में कई सौ वर्षो के लोकतांत्रिक अनुभवों के बावजूद वहां के सामाजिक और आर्थिक विषमता गए नहीं हैं, पर इससे कौन इनकार कर सकता है कि वे कमजोर हुए हैं? भारत की स्थिति अलग नहीं है.

यूरोप में साम्यवाद की उम्र हजार वर्ष पुरानी नहीं है, पर भारत में जाति प्रथा और दलित शोषण की परंपरा कितने पीछे तक फैली हुई है, यह जाना नहीं जा सकता. इस आधार पर कहा जा सकता है कि हिंदू जाति प्रथा में पैदा होता है और जाति प्रथा के भीतर ही मरता है, पर यह परंपरा अब टूट रही है. शहरों में भी, कस्बों में भी तथा गांवों में भी. ऊंची जातियों में भी, नीची जातियों में भी.

भारत जैसे परंपराग्रस्त समाज बहुत आसानी से अपनी हार स्वीकार नहीं कर सकते. वे अंतिम क्षण तक परंपरा के साथ चिपके भी रहे थे, क्योंकि तब शिक्षा की लगभग सार्वजनिक, मुफ्त और आधुनिक व्यवस्था नहीं थी. हमारी शिक्षा प्रणाली दुनिया की सर्वश्रेष्ठ पण्रालियों में नहीं है, फिर भी यह आंख खोलती ही है. खुली हुई आंखों से देखने का ही मतलब रूढ़ि, परंपरा और निर्बुद्धि का शिकार होने से बचना और अपने समय, इतिहास तथा दुनिया को वैज्ञानिक नजर से ग्रहण करना. जो शिक्षा सन 1950-60 की अवधि में मतदाता की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप जान पड़ती थी, आज वह वरदान है. इसका विरोध करने वालों को लोकतंत्र-प्रेमी कहने के लिए मैं बाध्य नहीं हूं.



Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment