जलवायु समझौते की ओर दुनिया

Last Updated 30 Nov 2015 06:07:59 AM IST

जलवायु परिवर्तन में नियंत्रण के लिए पेरिस में बारह दिनी जलवायु सम्मेलन शुरू हो गया है. संयुक्त राष्ट्र के 195 सदस्य देश इसमें भागीदारी कर रहे हैं.




जलवायु समझौते की ओर दुनिया (फाइल फोटो)

इस बैठक में कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने पर वैश्विक सहमति बनने की उम्मीद इसलिए है क्योंकि अमेरिका, चीन और भारत जैसे औद्योगिक देशों ने कार्बन उत्सर्जन कम करने पर रजामंदी पहले ही जता दी है. साथ ही माल्टा के प्रधानमंत्री जोसेफ मस्कट ने पर्यावरण परियोजनाओं के समर्थन के लिए एक अरब डॉलर की राशि राष्ट्रमंडल द्वारा शुरू की गई हरित वित्त संस्था को देने की घोषणा की है. तैयार हो रही इस पृष्ठभूमि से लगता है पेरिस का जलवायु सम्मेलन दुनिया के लिए फलदायी सिद्ध होने जा रहा है.

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जलवायु में हो रहे परिवर्तन को नियंत्रित करने की दृष्टि से ‘अमेरिका ग्रीन हाऊस गैस के उत्सर्जन में एक तिहाई कमी लाने की घोषणा पहले ही कर दी है. चीन और भारत ने भी लगभग इतनी ही मात्रा में इन गैसों को कम करने का वादा किया है. ऐसा इसलिए जरूरी है, क्योंकि धरती के भविष्य को इस खतरे से बढ़ी दूसरी कोई चुनौती नहीं है. इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए ये देश कोयला आधारित बिजली का उत्पादन कम करेंगे. अमेरिका में कोयले से कुल खपत की 37 फीसद बिजली पैदा की जाती है. पर्यावरण हित से जुड़े इन लक्ष्यों की पूर्ति 2030 तक की जाएगी.

पिछले साल पेरू के शहर लीमा में 196 देश वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए राष्ट्रीय संकल्प के साथ, आम सहमति के मसौदे पर राजी हुए थे. इस सहमति को पेरिस में शुरू हुए अंतरराष्ट्रीय जलवायु सम्मेलन की सफलता में अहम कड़ी माना जा रहा है. दुनिया के तीन प्रमुख देशों ने ग्रीन हाऊस गैस में उत्सर्जन कटौती की जो घोषणा की है, उससे यह अनुमान लगाना सहज है कि पेरिस सम्मेलन में सार्थक परिणाम निकलने वाले हैं. यदि इन घोषणा पर अमल हो जाता है तो अकेले अमेरिका में 32 प्रतिशत जहरीली गैसों का उत्सर्जन 2030 तक कम हो जाएगा. अमेरिका के 600 कोयला बिजली घरों से ये गैसें दिन-रात निकलकर वायुमंडल को दूषित कर रही हैं.

अमेरिका की सड़कों पर इस समय 25 करोड़ 30 लाख कारें दौड़ रही हैं. यदि इनमें से 16 करोड़ 60 लाख कारें हटा ली जाती हैं तो कार्बन डाईऑक्साइड का उत्पादन 87 करोड़ टन कम हो जाएगा. पेरू में वैश्विक जलवायु परिवर्तन अनुबंध की दिशा में इस पहल को अन्य देशों के लिए भी एक अभिप्रेरणा के रूप में लेना चाहिए; क्योंकि भारत एवं चीन समेत अन्य विकासशील देशों की सलाह मानते हुए मसौदे में एक अतिरिक्त पैरा जोड़ा गया था. इस पैरे में उल्लेख है कि जलवायु परिवर्तन से जुड़े कॉर्बन उत्सर्जन कटौती के प्रावधानों को आर्थिक बोझ उठाने की क्षमता के आधार पर देशों का वर्गीकरण किया जाएगा,जो हानि और क्षतिपूर्ति के सिद्धांत पर आधारित होगा. अनेक छोटे द्विपक्षीय देशों ने भी इस सिद्धांत को लागू करने के अनुरोध पर जोर दिया था. लिहाजा, अब धन देने की क्षमता के आधार पर देश कॉर्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण के उपाय करेंगे.

माल्टा के प्रधानमंत्री जोसेफ मस्कट ने 53 देशों वाले राष्ट्रमंडल का नेतृत्व करते हुए ही 1 अरब डॉलर देने की घोषणा की है. पेरू से पहले के मसौदे के परिप्रेक्ष्य में भारत और चीन की चिंता यह थी कि इससे धनी देशों की बनिस्बत उनके जैसी अर्थव्यवस्थाओं पर ज्यादा बोझ आएगा. यह आशंका बाद में ब्रिटेन के अखबार ‘द गार्जियन’ के एक खुलासे से सही भी साबित हो गई थी. मसौदे में विकासशील देशों को हिदायत दी गई थी कि वे वर्ष 2050 तक प्रति व्यक्ति 1.44 टन कॉर्बन से अधिक उत्सर्जन नहीं करने के लिए सहमत हों, जबकि विकसित देशों के लिए यह सीमा महज 2.67 टन तय की गई थी.

नए प्रारूप में तय किया गया है कि जो देश जितना कॉर्बन उत्सर्जन करेगा, उसी अनुपात में उसे नियंत्रण के उपाय करने होंगे. ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन के मामले में फिलहाल चीन अव्वल है. अमेरिका दूसरे और भारत तीसरे पायदान पर है. अब इस नए प्रारूप को ‘जलवायु कार्रवाई का लीमा आह्वान’ नाम दिया गया है. पर्यावरण सुधार के इतिहास में इसे एक ऐतिहासिक समझौते के रूप में देखा जा रहा है, क्योंकि इस समझौते से 2050 तक कॉर्बन उत्सर्जन में 20 प्रतिशत तक की कमी लाने की उम्मीद जगी है. यह पहला अवसर था, जब उत्सर्जन के मामले में अमेरिका को पीछे छोड़ चुके चीन, भारत, ब्राजील और उभरती हुई अन्य अर्थव्यवस्थाएं अपने कॉर्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए तैयार हुई थीं.



सहमति के अनुसार संयुक्त राष्ट्रसंघ के सदस्य देश अपने कॉर्बन उत्सर्जन कटौती के लक्ष्य को पेरिस सम्मेलन में पेश करेंगे. यह सहमति इसलिए बन पाई थी, क्योंकि एक तो संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत टॉड स्टर्न ने उन मुद्दों को पहले समझा, जिन मुद्दों पर विकसित देश समझौता न करने के लिए बाधा बन रहे थे. इनमें प्रमुख रूप से एक बाधा तो यह थी कि विकसित राष्ट्र, विकासशील राष्ट्रों को हरित प्रौद्योगिकी की स्थापना संबंधी तकनीक और आर्थिक मदद दें.

दूसरे, विकसित देश सभी देशों पर एक ही सशर्त आचार संहिता थोपना चाहते थे, जबकि विकासशील देश इस शर्त के विरोध में थे. दरअसल विकासशील देशों का तर्क था कि विकसित देश अपना औद्योगिक-प्रौद्योगिक प्रभुत्व व आर्थिक समृद्धि बनाए रखने के लिए बहुत अधिक ऊर्जा का प्रयोग कर रहे हैं. इसके अलावा ये देश व्यक्तिगत उपभोग के लिए भी ऊर्जा का बेतहाशा दुरुपयोग करते हैं. इसलिए खर्च के अनुपात में ऊर्जा कटौती की पहल भी इन्हीं देशों को करनी चाहिए. विकासशील देशों की यह चिंता वाजिब थी, क्योंकि वे यदि किसी प्रावधान के चलते ऊर्जा के प्रयोग पर अंकुश लगा देंगे तो उनकी समृद्ध होती अर्थव्यवस्था की बुनियाद ही दरक जाएगी. भारत और चीन के लिए यह चिंता महत्त्वपूर्ण थी, क्योंकि ये दोनों, उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं वाले देश हैं. अब पेरिस में समझौते का स्पष्ट और बाध्यकारी प्रारूप सामने आएगा.

पेरू मसौदे में इस सवाल का कोई उत्तर नहीं है कि जलवायु परिवर्तन पर नियंत्रण के लिए वित्तीय स्रोत कैसे हासिल होंगे और धनराशि संकलन की प्रक्रिया क्या होगी? हालांकि अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी ने पेरू में जो बयान दिया था, उससे यह अनुमान लगा था कि अमेरिका जलवायु परिवर्तन के आसन्न संकट को देखते हुए नरम रुख अपनाने को तैयार हो सकता है. केरी ने तभी कह दिया था कि ‘गर्म होती धरती को बचाने के लिए जलवायु परिवर्तन पर समझौते के लिए अब ज्यादा विकल्पों की तलाश एक भूल होगी, लिहाजा इसे तत्काल लागू करना जरूरी है.’ दरअसल, वैज्ञानिकों का मानना है कि 2100 तक धरती के तापमान में वृद्धि को नहीं रोका गया तो हालात खराब हो जाएंगे. कृषि वैज्ञानिक डॉ. स्वामीनाथन ने कहा कि यदि तापमान में 1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो जाती है तो गेहूं का उत्पादन 70 लाख टन घट सकता है. लिहाजा वैज्ञानिकों की मंशा है कि औद्योगिक क्रांति के समय से तापमान में जो वृद्धि हुई है, उसे 2 डिग्री तक घटाया जाए. अब असली परिणाम इस सम्मेलन में दिखाई देंगे.

 

 

प्रमोद भार्गव
लेखक


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