अवरोध से पार पाए

Last Updated 29 Nov 2015 01:13:04 AM IST

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पदभार संभालने के अठारह महीने के बाद एक वास्तविकता को जान लिया है कि जिसमें एकदम से कोई बदलाव नहीं आने वाला.




प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी

उनके बाकी बचे साढ़े तीन साल के कार्यकाल के दौरान भी संभवत: हालात में बदलाव न आए या बदलाव के संकेत भी न मिलें. लेकिन बिहार चुनाव में विपक्ष की एकजुटता के पश्चात तो, भले ही उन्हें दूसरा कार्यकाल मिले या नहीं, बदलाव का यह मुद्दा फिलहाल बेमानी ही हो गया है. यह वास्तविकता है कि मौजूदा संसद में असहज कार्यवाही को तरतीबी में कैसे लाया जाए. राजग को लोक सभा में स्पष्ट बहुमत हासिल है. लेकिन राज्य सभा में सरकार के पास पर्याप्त संख्या बल नहीं है. जिस प्रकार देश में कानून बनाने का तौर-तरीका है, उसके चलते ऐसे में कोई नया कानून बनाया जाना असंभव ही है.

लोक सभा से पारित किसी भी विधेयक को राज्य सभा रोक सकती है. सरकार इस स्थिति को टालने के लिए कुछ नहीं कर सकती. भूमि अधिग्रहण बिल के मामले में हमने यह स्थिति देखी है. सरकार को पीछे हटना पड़ना. लोक सभा में मात्र 45 सदस्यों के बल, जो सदन की कुल संख्या का दसवां भाग है, पर कांग्रेस इतनी मजबूत दिखाई देती है, जितनी कि वह असल में है नहीं. कांग्रेस का इस प्रकार से आक्रामक रवैया अख्तियार करने के पीछे सोची-समझी रणनीति है. यह रणनीति इस विचार से प्रेरित है कि कानून बनाने की प्रक्रिया और महत्त्वपूर्ण आर्थिक सुधारों का क्रियान्वयन बाधित किए जा सके तो मोदी सरकार को उन नीतियों को क्रियान्वित करने से रोका जा सकेगा जो भाजपा के ‘अच्छे दिन’ के वादे को पूरा करने में सहायक हैं. 

इन हालात के मद्देनजर जीएसटी बिल को लेकर संसद में बने अवरोध को हटाने में प्रधानमंत्री मोदी के व्यक्तिगत प्रयासों को समझा जा सकता है. गौरतलब है कि लोक सभा में यह बिल पारित होने के बावजूद कांग्रेस ने इसे राज्य सभा में पारित नहीं होने दिया. अब मोदी ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से इस बिल को लेकर चाय पर चर्चा की है. सरकार ने यह संकेत भी दिया है कि बिल को लेकर सुझाए गए किसी भी प्रकार के संशोधन पर गौर करने को तैयार है. अगर सरकार ने यह रुख पहले ही अख्तियार कर लिया होता तो जीएसटी कभी का पारित हो गया होता.

महत्त्वपूर्ण यह भी कि पिछले सत्रों खासकर पूरी तरह से जाया हुए मानसून सत्र में सदन में खराब प्रबंधन (निश्चित ही भाजपा को प्रमोद महाजन की कमी खल रही होगी) के चलते न केवल कांग्रेस को अहसास कराने का मौका मिला कि भले ही वह सत्ता में नहीं है, लेकिन अभी भी प्रभाव रखती है. न केवल इतना, बल्कि सोनिया गांधी को बिखरे विपक्ष को लामबंद करने का भी मौका मिल गया. मार्क्‍सवादियों को ममता बनर्जी की टीएमसी भले एक आंख नहीं सुहाती हो, लेकिन सोनिया इन्हें इस मुद्दे पर साथ ले आने में सफल रहीं. विपक्ष के लिए स्थितियां इतनी साजगार हो गई कि वह बिहार चुनाव के लिए महागठबंधन करने में सफल हुआ. नीतीश कुमार अपने कट्टर विरोधी लालू प्रसाद यादव के साथ गठजोड़ करने को प्रेरित हुए
फूट डालो और राज करो का हुनर बहुत पहले ही कांग्रेस ने सीख लिया था. यूपीए एक के शासनकाल के दौरान देखा गया कि किस प्रकार कांग्रेस खासकर सोनिया गांधी ने विपक्ष को एकजुट नहीं रहने दिया. हमारे कहने का मतलब यह नहीं है कि भाजपा भी वही सब कुछ करे जो कांग्रेस ने किया. न ही हम यह कहना चाहते हैं कि राजनीतिक विरोधियों को सरकारी एजेंसियों का भय दिखाकर साथ बनाए रखा जाए. अगर भाजपा भी यही सब करने पर उतर आए तो अपनी विशिष्टता को खो बैठेगी जो उसे कांग्रेस से अलग दर्शाती है.

लेकिन दो बातों पर जरूरी गौर करना होगा. पहली, मौजूदा हालात भाजपा को जुड़वा लक्ष्यों की ओर तत्पर होना चाहिए. उन पार्टियों के साथ गठजोड़ करना चाहिए जो कांग्रेस से विमुख रहती आई हैं, और भाजपा की तीखी आलोचना भी नहीं करतीं. बीजद, एआईएडीएमके, टीआरएस और बसपा से भाजपा उम्मीद बांध सकती है. भाजपा की 2014 में शानदार जीत की आभा तो ऐसी थी कि ममता बनर्जी तक के तेवर भाजपा सरकार के प्रति नरम दिखे. भाजपा थोड़ा प्रयास करती है तो जदयू को भी साथ ले सकती थी. राजनीति में कोई स्थायी शत्रु या मित्र नहीं होता. अगर ऐसा अब भी कर सके तो उस आहट को बेवजह साबित कर सकती है. 2019 में बन सकने वाले किसी भी महागठबंधन को लेकर सुनाई पड़ने लगी है. दूसरी, भले ही गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए मोदी ने केंद्र-राज्य संबंधों को दुरुस्त करने की बात जोर-शोर से उठाई थी, लेकिन अब उनकी केंद्र में आरूढ़ सरकार इस मसले पर बेरुखी दिखाती लगी है. मुख्यमंत्री रहते में ‘टीम इंडिया’ की बात मोदी ने कही थी. अगर इस विचार को मूर्त करने पर संजीदगी दिखाई तो निश्चित ही भाजपा के लिए स्थितियां सहज हो सकेंगी. सब कुछ नीति आयोग पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए.

कांग्रेस ने दशकों तलक जैसी कार्यसंस्कृति बनाई है और अब विपक्ष में जिस प्रकार के सहयोगियों को साथ लिया है, उनने मोदी दीवार की कमजोरी को भांप लिया है. मोदी ने सबका साथ, सबका विकास का नारा देकर समाज के सभी तबकों को साथ लेने में सफलता पाई तो ‘घर वापसी’, बीफ पर बैन, गोवध जैसे मद्दों आर सेंसर बोर्ड और एफटीआईआई जैसे सरकारी इदारों के कार्यकलाप ने उनकी सरकार को सांसत में ला दिया. दादरी में अल्पसंख्यक समुदाय के एक व्यक्ति को पीट कर मार डालने की घटना पर भाजपा सरकार  कड़ा रुख नहीं दिखा पाई तो कम से कम मोदी को पुरजोर तरीके से इसके खिलाफ प्रतिक्रिया जतानी चाहिए थी. बेशक, मीडिया ने इस प्रकार की घटनाओं को सनसनीखेज तरीके से पेश किया, लेकिन मोदी को क्या मीडिया के इस अंदाज को बदलने की उम्मीद करनी चाहिए. कांग्रेस उनकी सरकार के सामने अवरोध खड़े करने पर आमादा है. नरेन्द्र मोदी और भाजपा ही पर मुनस्सिर करता है कि वे उसके मंसूबे को सफल न होने दें.

कंचन गुप्ता
लेखक


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