युग प्रवर्तक महाराजा अग्रसेन

Last Updated 13 Oct 2015 02:31:21 AM IST

अग्रवाल समाज के आदि पूर्वज महाराजा अग्रसेन जी की जयन्ती आश्विन मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के दिन मनायी जाती है.




युग प्रवर्तक महाराजा अग्रसेन

महाराजा अग्रसेन महान भविष्य दृष्टा एवं युगप्रवर्तक थे. उनके सिद्धान्तों और कार्यों ने एक ऐसी जाति का विकास किया जो राष्ट्र-निर्माण के लिए जरूरी सभी बातों को पूरा कर सके. यह बिल्कुल ऐसे ही है जैसे सिखों के प्रादुर्भाव के समय कहा गया-‘एक खालसा सवा लख पर भारी.’ इस एक सिद्धान्त ने जहां एक तरफ सिखों में अभूतपूर्व शौर्य भर दिया था, वहीं दूसरी तरफ दुष्ट आततायियों को अच्छा सबक सिखा दिया था.

महाराजा अग्रसेन ने कलियुग संवत् के 108वें वर्ष तक अग्रोहागण पर शासन किया था. 1976 में महाराजा अग्रसेन की 5100वीं जयंती पर भारत सरकार ने डाक टिकट जारी किया. इस वर्ष हम महाराजा अग्रसेन की 5139वीं जयन्ती मना रहे हैं. महाराजा अग्रसेन ने एक नये नगर और गणराज्य की स्थापना की थी, जिसका नाम था आग्रेयगण (अग्रोदक). यह स्थान हिसार के निकट है. इस राज्य को 18 गणों में विभक्त किया था.

18 यज्ञों का आयोजन किया था और यज्ञकर्ता ऋषि के नामों से 18 गोत्रों का प्र्वतन हुआ. 1923 में ‘अखिल भारतीय अग्रवाल महासभा’ के मुंबई अधिवेशन में सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित किया गया था कि आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को देश में अग्रसेन जयंती मनायी जाये. गुरु ब्रह्मानंद हिसार में रहते थे. उनका अग्रोहा एवं अग्रवालों के इतिहास के प्रति गहरा लगाव था. उन्होंने सम्वत 1964 यानी सन 1907 में अग्रोहा में अग्रसेन जयन्ती मनाने का सूत्रपात किया था.

पुरातत्ववेत्ता एवं वेद मर्मज्ञ डॉ वासुदेवशरण अग्रवाल, ने अपनी पुस्तक ‘पाणिनीकालीन भारतवर्ष’ में उस काल का गंभीर अध्ययन किया है. उन्होंने ‘अग्रेवण’ अग्र जनपद जिसकी राजधानी अग्रोदक (अग्रोहा) थी, का वर्णन किया है. पुरातत्व विभाग निदेशालय, हरियाणा ने 1978-1979 की रिपोर्ट में लिखा था कि यह स्थान महाभारत में वर्णित आग्रेयगण की राजधानी था. महाभारत युद्ध के बाद राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी थी. अपार जन और धनहानि हुई थी.

राज्यकोष खाली थे. कृषि व्यापार चौपट हो गया था. अनैतिकता का बोलबाला था. वास्तव में वह कलियुग का प्रारंभ था. ऐसी विकट परिस्थितियों में महाराजा अग्रसेन ने राष्ट्रनिर्माण के लिए जिस आवश्यक तत्व पर बल दिया, वह आधारित था ‘कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैयकर्म स्वभावजम्’ अर्थात कृषि, गौपालन और व्यापार की उन्नति करते हुए समाजसेवा, धर्मसेवा, राष्ट्रसेवा को अन्तिम लक्ष्य बनाया जाये. ये सभी कार्य वैश्यों के स्वाभाविक कर्म में निहित थे.

‘आत्रेय ब्राह्मण’ के एक अंश में वैश्यों का वर्णन ‘दूसरों को कर देने वाला’, ‘दूसरों पर आश्रित रहने वाला’ तथा ‘दमन किये जाने वाला’ के रूप में है. महाराजा अग्रसेन से उस स्थिति को बदला था. वे स्वयं राजा बने, शस्त्र धारण किया और दुष्टों का दमन कर समाज की रक्षा भी की. अपना महान उद्देश्य पाने और उन्हें कालजयी कुछ आधारभूत सिद्धान्तों को सभी अग्रवालों के लिए आवश्यक बनाया. यह सार्वकालिक उपयोगी सिद्धान्त आज भी उतने ही प्रासांगिक हैं.

अहिंसा का सिद्धान्त अनेक दृष्टि से लाभकारी है. इसमें हिंसा से उत्पन्न प्रति हिंसा की संभावना खत्म हो जाती है. समाज में सुख शान्ति का निर्माण होने पर कृषि, व्यापार की भी उन्नति होती है. आज भी अग्रवाल समुदाय सर्वाधिक अहिंसावादी है. गांधी के खून में अहिंसा का यही सिद्धान्त प्रवाहित हो रहा था जिसे उन्होंने राष्ट्र के समक्ष नवीन रूप में व्यावहारिकता के धरातल पर उतारा.

जीवन में सत्य से बड़ा कुछ नहीं. व्यापार में भी इसका अद्भुत व्यावहारिक पक्ष है. सत्य निष्ठा से व्यापार में भी विश्वसनीयता, प्रतिष्ठा एवं साख का निर्माण होता है. ‘कोई गैर नहीं, किसी से बैर नहीं’- जैसी मान्यता से सबको बड़ा फायदा हुआ. कृषि व्यापार में अपार सफलता मिली. कठिन से कठिन परिस्थितियों और क्रूर से क्रूर लोगों के बीच उनके बनकर और उनको अपना बनाकर अपने को सफल बनाया. पूर्वकाल में सुदूर देशों से आने वाले व्यापारी भी अग्रवाल व्यापारियों पर सर्वाधिक विश्वास करते थे और अपनी सम्पत्ति उनके पास धरोहर के रूप में रखते थे.

राजा-महाराजा और बड़े-बड़े अधिकारी युद्ध में जाते थे या विपत्ति में होते थे तो अपना परिवार और सम्पत्ति अग्रवालों को सौंप सुरक्षित व आस्त रहते थे. आधुनिक हिन्दी के जन्मदाता एवं अग्रवाल शिरोमणि भारतेन्दु हरिचन्द्र द्वारा अनुवादित ‘मुद्राराक्षस’ में एक वर्णन मिलता है. मगध के महानन्द वंश के पतन के समय उसके महान मंत्री ‘राक्षस’ ने अपना परिवार और सम्पत्ति ‘चन्दन दास जौहरी’ नामक महाजन के पास सुरक्षित छोड़ा था. चाणक्य को पता चला तो उसे बुलाया गया परन्तु ‘चन्दन दास’ ने झूठ बोल दिया. जब उसकी जान पर आ गयी तो उसने कहा ‘अहा! मैं धन्य हूं कि मित्र के हेतु मेरे प्राण जाते हैं, अपने हेतु तो सभी मरते हैं’.

महाराजा अग्रसेन ने ‘एक रुपया एक ईंट’ का सिद्धान्त चलाया. जो भी गरीब अग्रोहा में आता था, उसको उस शहर के लोग एक रुपया और एक ईंट देते थे जिससे वह तुरन्त लखपति बन कर व्यापार करता था और उसका अपना एक मकान हो जाता था. सादा जीवन बिताने का सबसे बड़ा फायदा होता है कि एक तरफ आदमी आडम्बर से बचता है तो दूसरी तरफ उसके प्रति नफरत के भाव का विस्तार भी नहीं होता. साधारण सा दिखने के कारण वह सुरक्षित भी रहता है. और पूरे समाज में घुला मिला सा रहता है.  श्रेष्ठ बनो अहंकारी नहीं, इस सिद्धान्त ने अग्रवालों को आचार-विचार से श्रेष्ठ बनने के लिए उत्साहित किया.

श्रेष्ठता के अभिमान का बड़ा दोष है, दूसरों को कम कर आंकना. इस प्रकार की उत्तेजना समाज को बहुत नुकसान पहुंचाती है. हिंसा को भी जन्म देती है. टेवर्नियर ने लिखा है- ‘इस समुदाय के लोग व्यवसाय में इतने दक्ष व चतुर होते हैं कि उनकी तुलना विश्व के श्रेष्ठतम व्यापारियों से की जा सकती है. वे अपने बच्चों को खेल-कूद में समय नष्ट करने के स्थान पर हिसाब (गणित) की शिक्षा देते हैं, जिसमें वे इतने चतुर होते हैं कि बिना कागज और संगणक के कठिन से कठिन प्रश्नों को क्षण में हल कर लेते हैं.’

छल-कपट युक्त जीवन में, हिंसा के तांडव के बीच त्रस्त मानवता को बचाने का एकमात्र उपाय है कि हम महाराजा अग्रसेन के बताये रास्ते पर चलें. अग्रवालों को भी चाहिए कि समाज के सभी वगोर्ं के बन्धुओं को हृदय से अपनायें और ‘एक रूपया और एक ईंट’ के सिद्धान्त से उन्हें स्थापित कर उनसे रोटी-बेटी का सम्बन्ध बनायें. इसी से ‘सबका मंगल’, ‘सबका कल्याण’ होगा, और यही महाराजा अग्रसेन जी को सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

उमेश चंद्र अग्रवाल
लेखक


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