सिर्फ भाषा नहीं संस्कृति है संस्कृत

Last Updated 04 Oct 2015 12:23:15 AM IST

वेद प्राचीन शोध और बोध का काव्य हैं, और प्राचीन ज्ञान-विज्ञान का झरोखा. वेदों में दुनिया का प्राचीनतम विज्ञान और दर्शन है.




हृदयनारायण दीक्षित

वे पंथिक आस्था की पोथी नहीं हैं. ज्ञान और विज्ञान की पूर्वज सिद्धि ही वेद प्रसिद्धि का मूल है. दूसरे संस्कृत आयोग ने वैदिक कथनों की वैज्ञानिक सिद्धि के लिए विशेष प्रयोगशालाओं की मांग की है. आयोग कांग्रेसी नेतृत्व वाली दूसरी यूपीए सरकार ने गठित किया था. इसकी रिपोर्ट अब आई है. रिपोर्ट में संस्कृत शिक्षा को सभी विषयों की समझ के लिए अनिवार्य बनाने का प्रस्ताव है. यही आयोग वर्तमान सरकार ने बनाया होता तो संस्कृति-विरोधी भगवाकरण का विलाप करते. रिपोर्ट में प्राचीन भारतीय ज्ञान-विज्ञान को आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों से जांचने की संस्तुति है.

विश्व प्रपंच नियम आबद्ध हैं. विचारधाराओं के ज्ञात इतिहास में इस नियमबद्धता की चर्चा प्रथमत: ऋग्वेद में दिखाई ही पड़ती है. सृष्टि निर्माण के मूल द्रव्य की चर्चा ईसा पूर्व 600 बरस तक विश्व इतिहास में नहीं मिलती? यूनानी दर्शन को प्राचीन माना जाता है. यूनानी दार्शनिक थेल्स ने लगभग 600 वर्ष ईसा पूर्व जल को आदि द्रव्य माना था. परवर्ती दार्शनिकों ने वायु, अग्नि आदि को. हिराक्लिट्स का जोर अग्नि पर था. थेल्स के विचार ऋग्वेद में हैं, और हिराक्लिट्स के विचार कठोपनिषद् में. सामान्य मत-मजहब की तरह वैदिक विचारधारा किसी व्यक्तिगत ईश्वर को संसार का निर्माता नहीं बताती. ऋग्वेद के ऋषियों ने सृष्टि उगने के पहले देवों का अस्तित्व भी नहीं माना. ऋषि देवों के भी पहले के समय का अध्ययन कर रहे थे. उनका दृष्टिकोण वैज्ञानिक था.

विज्ञान में उपकरण नहीं दृष्टिकोण की ही सवरेपरि महत्ता है. ऋग्वेद के समय जनजीवन प्राकृतिक था. ऋषि नदियों के तट पर रहते हैं. लेकिन उनकी दृष्टि सूर्य पर भी है. वे प्रश्न करते हैं कि सूर्य बिना आधार ही आकाश में कैसे लटका हुआ है? पंथिक या मजहबी उत्तर होगा ईश्वर की कृपा से. लेकिन वैज्ञानिक दृष्टिकोण में इसका भौतिक उत्तर जरूरी है. ऋषि विश्व के अनंत विस्तार पर प्रश्न करते हैं, मैं इस भुवन का केंद्र जानना चाहता हूं-प्रच्छामि त्वां भुवनस्य नाभि:? वे इस संसार को समूचे अस्तित्व का एक चौथाई भाग ही बताते हैं, शेष भाग को अन्य लोक कहते हैं. उनके प्रयोग विरल रहे होंगे. सृष्टि शून्य से नहीं उगी. उग सकती भी नहीं. वे सृष्टि के पूर्व की आनंद-मगन चर्चा करते हैं-तब रात नहीं. दिन नहीं. मृत्यु नहीं. केवल ‘वह’ है. वैदिक ऋषियों का ‘वह’ बड़ा प्यारा है. ‘वह’ अपनी क्षमता के कारण वायुहीन स्थिति में भी सांस लेता है.

‘वह’ सर्वनाम है. व्यापक और अनंत को कोई भी नाम देना सीमित करना है. असीम को ससीम करें तो विज्ञान-विरोधी होंगे. उपनिषद् में भी ‘वह’ है. रस रूप. वह सर्वत्र है. सबको आच्छादित करता है. आवृत करता है. छंदस् और ऋतस् होता है. प्रतिपल पुनर्नवा. चिरंतन और सनातन. सतत् विकासमान. इसलिए इसका नाम ब्रह्म भी है. यह ब्रह्म सामने है. पीछे हैं. दाएं है, बाएं है. ऊपर और नीचे है. 

संस्कृत भारतीय प्राक्-विज्ञान की भाषा है. संस्कृत विरल है. संस्कृत प्रकृति की शक्तियों से भी संवाद की भाषा है. नदियों से संवाद ऋग्वेद का प्रतिष्ठित अंश है. संस्कृत बोध में पृथ्वी माता है. जल माताएं हैं. ऐसी अभिव्यक्ति संस्कृत में ही संभव है. संस्कृत ही भारतीय संस्कृति और प्राक् विज्ञान की अभिव्यक्ति है. योग भारत का प्राचीन विज्ञान है. संस्कृत में उगा. खिला, विश्वव्यापी हुआ. अभिनय कला पर भरत मुनि ने संस्कृत में नाट्य शास्त्र लिखा. दुनिया का प्राचीनतम अर्थशास्त्र संस्कृत में ही उगा पहली बार. आयुर्विज्ञान संस्कृत में प्रकट हुआ. ज्ञान-विज्ञान और कला-कौशल सहित राष्ट्रजीवन के सभी अनुशासन संस्कृत में ही प्रवाहमान हुए. संस्कृत एक संस्कृति भी है. इसी के कारण हम एक राष्ट्र हैं. ब्रह्मांड बड़ा है, अनंत और अंतहीन. संस्कृत में इसे कहने के लिए ‘विराट’ शब्द आया. भाषा मनुष्य की अभिव्यक्ति है. जगत् विराट है. संस्कृत विराट अभिव्यक्ति का भी उपकरण है. रिपोर्ट स्वागत योग्य है.



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