प्रबंधन के अभाव में चुनौती बनती बाढ़

Last Updated 05 Aug 2015 02:27:31 AM IST

बाढ़ बेशक प्राकृतिक आपदा है और नदियों के किनारे बसी बड़ी आबादी को बाढ़ से बचाने के मानवीय प्रयास सीमित हस्तक्षेप ही कर सकते हैं लेकिन साल-दर-साल बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों का बढ़ते चले जाना गुड गवर्नेंस पर सवालिया निशान जरूर लगाता है.




प्रबंधन के अभाव में चुनौती बनती बाढ़

बाढ़ देश में स्थायी समस्या बनती जा रही है. बाढ़ प्रभावित इलाके बढ़ते चले जा रहे हैं. इस बार राजस्थान, उत्तरी गुजरात, ओडिशा, झारखंड और पश्चिम बंगाल में बाढ़ से तबाही मच रही है. एनडीआरफ, बीएसफ और तमाम बचाव दलों की कोशिशों के बावजूद मरने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है. इन सबके बीच पोल खुलती है तो सिर्फ  गुड गवर्नेंस की.  हालांकि  संभव नहीं कि प्राकृतिक आपदाओं से एक साथ सभी को प्रभावित होने से बचा लिया जाए.

दरअसल पर्यावरण को क्षति पहुंचाने के कारकों में जिन मुद्दों पर चिंता जाहिर की जाती है, उनमें नदियां भी शामिल हैं और आज हमारे देश में नदियां जिस तरह उफान पर होती हैं और अपनी सीमा लांघ कर बहती हैं, वह एक लम्बी प्रक्रिया का परिणाम है. नदियों का छोटा होता बेसिन, नदारद होते तटबंध और प्रवाह क्षेत्र में मानवीय अतिक्रमण बाढ़ के रूप में बड़ी समस्या बनकर उभरते हैं. लेकिन बाढ़ एक ऐसी स्थिति है जो समस्या भी है और संभावना भी. संभावना इस रूप में कि नदियों के प्रवाह क्षेत्र में वृद्धि होती है और नदियां अपने प्राकृतिक रूप में जो तलछट बाढ़ के साथ लाती हैं, और वह जिन समतल खेतों-मैदानों में ठहर जाता है, वे कृषि के लिहाज से बेहद उपजाऊ होते हैं.

नदियों के प्राकृतिक रूप में परिवर्तन करने के प्रयास से ही बाढ़ जैसी समस्याएं सामने आती हैं. पिछले वर्ष जब कश्मीर में झेलम उफान पर थी तो श्रीनगर सहित कई इलाके बाढ़ से प्रभावित हुए लेकिन जो स्थान प्राचीन शहरी नियोजन के आधार पर बसे थे, वहां इतना प्रभाव नहीं देखा गया. प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में नदी जोड़ परियोजना का उपयोगी खाका खींचा गया था. दुष्कर जान पड़ने वाली यह परियोजना देश में बाढ़ जैसे हालातों से निजात दिलाने में काफी अर्थपूर्ण साबित होती लेकिन उस पर अब तक अमल नहीं हो सका है.

आज जिस स्तर पर देश के भिन्न स्थानों जैसे गुजरात, राजस्थान, ओडिशा व पश्चिम बंगाल में वष्रा, चक्रवात और बाढ़ तबाही मचा रही है, वह निश्चित तौर पर देश की आपदा प्रबंधन नीति पर प्रश्न खड़े करती है. ऐसा इसलिए भी क्योंकि बाढ़ जैसी स्थितियों से निपटने के लिए सरकार के पास पर्याप्त समय होता है. अमूमन मौसम विभाग समय रहते कम या भारी वर्षा के संकेत दे देता है परंतु हर बार भारी बारिश और नदियों की प्रवृत्ति के बावजूद संकट संभावित स्थानों को चिह्नित करने और वहां से लोगों को पुनस्र्थापित करने के बेहतर प्रबंधन नहीं हो सकते. इस समय अहमदाबाद में साबरमती उफान पर है, धरोई बांध से पानी छोड़े जाने से उत्तरी गुजरात में स्थितियां बेकाबू होती नजर आ रही हैं. 

सिर्फ  गुजरात में बाढ़ और बारिश से मरने वालों की संख्या 53 के करीब हो गयी है. यहां का बनासकांठा जिला सर्वाधिक बाढ़ प्रभावित है. लगभग यही स्थिति राजस्थान में है. ओडिशा, पश्चिम बंगाल, मणिपुर को जोड़कर पूरे देश में बारिश और बाढ़ से मरने वालों की संख्या 80 से ऊपर बतायी जाती है. गृह मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि पश्चिम बंगाल में करीब 48 लोगों की मौत हुई है जबकि राजस्थान में 28. ओडिशा में भी बाढ़ ने कहर बरपाया हुआ है. ओडिशा में बाढ़ से 2 लाख 40 हजार से ज्यादा लोग प्रभावित हुए हैं. वहां के जाजपुर, भद्रक, बालासोर, क्योझर और मयूरभंज में सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ा है. ओडिशा में वैतरणी और सुवर्णरेखा नदी बाढ़ के चलते उफान पर हैं.

सरकार के ये आंकड़े बताने के लिए काफी हैं कि आपदा नियंत्रण के लिए सरकार कितनी सचेत है. खासकर तब जब आपदा को नियंत्रित करने के लिए पर्याप्त समय हो. हालांकि देश में आपदा और नियंत्रण में आंशिक सफलता या अधिक विफलता की जिम्मेदारी पिछली सरकारों को भी बराबर लेनी चाहिए. बीते कुछ सालों में देश में 80 लाख से ज्यादा आबादी बाढ़ से प्रभावित हुई है. बाढ़ बड़े स्तर पर आबादी क्षेत्र को प्रभावित करती है. दरअसल राज्य सरकारें अपने स्वार्थों के चलते नदी क्षेत्र में बढ़ते इस्टेब्लिशमेंट को नियंत्रित करने में रुचि नहीं दिखाती हैं. बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा को रोका नहीं जा सकता है, सिर्फ  इतना किया जा सकता है कि किस तरह निकासी को बेहतर बनाया जाए ताकि बाढ़ का पानी अधिक समय तक ठहर न सके और बाढ़ संभावित क्षेत्र में मानव बस्ती तबाह न हो.

बाढ़ की विभीषिका खत्म हो जाने के बाद भी सरकारों का नियोजन उदासीन होता है. इससे बड़ी उपजाऊ भूमि निर्मिंत होने के बाद भी किसानों को कृषि के नियोजन में कौशल विकास का कोई प्रबंध नहीं होता. नदियों में आई बाढ़ स्थानीय क्षेत्र के जल स्तर में भी वृद्धि कर देती है जो सकारात्मक स्थिति है लेकिन उस पानी के प्रबंधन की माकूल व्यवस्था न होने से वह वरदान की जगह अभिशाप बन जाता है. कुल मिलाकर देश में बाढ़  संभावना नहीं बल्कि समस्या के रूप में उभरती है और इसके पीछे सरकारी नियोजन की कमी ही प्रमुख कारण होता है.  सरकार के मुताबिक देश में बाढ़ की समस्या साल दर साल बढ़ रही है. 1952 में देश बाढ़ से प्रभावित क्षेत्र 25 मिलियन हेक्टेयर था जबकि 2012 में यह बढ़कर लगभग 50 मिलियन हेक्टेयर हो गया.

सवाल है कि बाढ़ग्रस्त क्षेत्र तो बढ़ रहा है लेकिन बाढ़ नियंत्रण के उपाय और नदी के कारण बढ़ते उपजाऊ क्षेत्र में निवेश उस तेजी से नहीं बढ़ा. देश में नदियों के नाम पर सिर्फ  गंगा के ऊपर ही चर्चा होती है और सबसे भारी-भरकम बजट भी इसी के नाम पर दिया जाता है लेकिन देश की अन्य नदियों और उनकी संभावना व चुनौतियों को अक्सर नजरअंदाज किया जाता है. यही कारण है कि आज देश में नदियां तबाही मचा रही हैं और सरकार असमर्थ है. दरअसल नियंत्रण और बचाव का प्रयास एक दिन में संभव नहीं. देश में चर्चा सिर्फ  बाढ़ के बाद हुई तबाही के दौरान ही होती है जबकि पूरे साल अगर इससे निबटने के उपायों पर चर्चा के साथ योजनाएं बनें तो काफी कुछ हासिल हो सकता है. बाढ़ सिर्फ चुनौती के रूप में नहीं ली जानी चाहिए. चुनौती तो यह सरकारी कुप्रबंधन से होती है. सरकारें बाढ़ से निपटने के लिए चुनिंदा विशेषज्ञों से राय ले समस्या से निपटना चाहती हैं जबकि बाढ़ संभावित क्षेत्र की जनता से भी संवाद होना चाहिए. प्रयास हो कि कृषि प्रधान भारत में बाढ़ चुनौती के बजाए संभावना का सबब बने. यदि समय रहते उससे निबटने के उपाय तलाश लिये जाएं तो पानी उतर जाने के बाद उपजाऊ क्षेत्र का अधिकाधिक इस्तेमाल हो सकता है.

पार्थ उपाध्याय
लेखक


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