मनोविज्ञान और समाजशास्त्र के बीच

Last Updated 02 Feb 2015 05:12:03 AM IST

दिल्ली में यह जुमला बहुत चलता है-दिल्ली किसकी? जवाब में कहा जाता है कि जो जीता उसकी.


मनोविज्ञान और समाजशास्त्र के बीच (फाइल फोटो)

इस लिहाज से प्रधानमंत्री और भाजपा नेता नरेन्द्र मोदी का यह आह्वान आसानी से सही हो सकता है कि जो देश का मूड है, वही दिल्ली का मूड है और जो देश चाहता है, वही दिल्ली चाहती है. इतना ही नहीं, दिल्ली विधानसभा चुनाव के आखिरी चरण में मोदी ने इस चुनाव को अंतरराष्ट्रीय छवि और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के भारत दौरे से भी जोड़ दिया है. उनका कहना कि दिल्ली तय करेगी कि दुनिया हमें किस तरह से देखती है, चुनावी एजेंडा को अंतरराष्ट्रीय बनाने का ही प्रयास है. उन्होंने गणतंत्र दिवस पर ओबामा को मेहमान बनाए जाने की उपलब्धि को उछालते हुए यहां तक कह डाला कि ओबामा को लेकर अगर 26 जनवरी के कार्यक्रम में थोड़ी विफलता हो जाती तो हमारे विरोधियों ने हमारे बाल नोच लिए होते और तब कोई नहीं पूछता कि दिल्ली चुनाव में आप ओबामा को लेकर मोदी को गाली क्यों दे रहे हैं? चुनाव को अंतरराष्ट्रीय बनाने और मोदी केंद्रित रखने की रणनीति के तहत ही भाजपा ने अपना घोषणा पत्र जारी करने में बहुत देरी की. संभव है आखिरी चरण में जब घोषणा पत्र आए तो उसमें से दिल्ली के पूर्ण राज्य और दूसरे कई जरूरी मुद्दे गायब  हों.

हालांकि भाजपा में किरण बेदी को लेकर असंतोष और खींचतान है और इसीलिए भाजपा हाई कमान के आदेश और तमाम ताकत झोंकने के बावजूद पार्टी के चुनाव प्रचार में सब कुछ सामान्य नहीं चल रहा है. आखिर क्या वजह है कि मई में लोक सभा से लेकर तमाम महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और जम्मू-कश्मीर विधानसभाओं तक देश में एक के बाद एक चुनाव जीतने का भाजपा का दिग्विजयी रथ दिल्ली में आप के धरने के चलते ट्रैफिक जाम में फंसता नजर आ रहा है. आखिर क्या वजह है कि रामलीला मैदान में प्रधानमंत्री की उम्मीद के मुताबिक एक लाख की भीड़ नहीं जुटी और बाद में उसके राज्य अध्यक्ष को पीछे करके किरण बेदी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाना पड़ा? यह सही है कि भाजपा ने अन्ना आंदोलन और आप की महिला नेताओं को अपने साथ लाकर अरविंद केजरीवाल को तगड़ा झटका देने की कोशिश की है और दिल्ली के महिला वोटों के लिए अपनी महिला समर्थक छवि भी प्रस्तुत की है. लेकिन स्थानीय स्तर पर नेतृत्त्व देने का भाजपा का यह दांव शुरू में जितना मास्टर स्ट्रोक लग रहा था, बाद में उतना साबित नहीं हो रहा है.

एक तरफ राज्य भाजपा अध्यक्ष सतीश उपाध्याय हर सभा में अपनी कंपनी और दिल्ली में मीटर लगाने वाली कंपनियों के दस्तावेज पेश करते नजर आते हैं तो किरण बेदी बहस से भाग कर यह कहती हैं कि क्या केजरीवाल पुलिस इंस्पेक्टर हैं कि मैं उनकी बात मानूं? यहां आप पार्टी का वह आरोप भी चस्पा होता दिख रहा है कि किरण बेदी अगर मुख्यमंत्री हुई तो वे कठपुतली साबित होंगी. जवाब में किरण का यह दावा उतना परवान नहीं चढ़ रहा है कि मोदी ने उन्हें विकास की कमान सौंपी है.

हालांकि दिल्ली चुनाव में स्थानीय मुद्दे जैसे कि बिजली, पानी, वाईफाई, स्वराज और जनलोकपाल बिल व धरना-प्रदशर्न करने व न करने जैसे मुद्दे खूब उछाले जा रहे हैं और कांग्रेस ने तो इसे करने और धरने के बीच का चुनाव घोषित कर दिया है. भाजपा भी लगभग करने और धरने के बीच ही इस चुनाव को लड़ रही है. लेकिन वह जानती है कि दिल्ली में हुए जबरदस्त आंदोलन ने ही पूरे देश में कांग्रेस के खिलाफ माहौल बनाया और आप जैसी नवेली पार्टी की जल्दबाजियों और कमजोर संगठन के चलते उसकी जबरदस्त फसल मोदी ने काटी. यही वजह है कि भाजपा ने अन्ना आंदोलन के एक स्तंभ यानी किरण बेदी को अपने साथ लेकर यह दिखाने की भी कोशिश की है कि आंदोलन में उसकी भी पैठ थी.

इसके अलावा, भाजपा इस चुनाव को मोदी की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा से जोड़ कर और दिल्ली को विस्तरीय शहर बनाने का वादा कर एक मुनासिब सरकार बनाने का लालच देकर दिल्ली के मध्यवर्ग को लुभाना चाह रही है. इसमें केजरीवाल का 49 दिनों के भीतर इस्तीफा देकर भागना और राष्ट्रीय स्तर पर सरकार बनाने का सपना भाजपा को ताकत दे रहा है और केजरीवाल को कमजोर कर रहा है. लेकिन केजरीवाल ने इस बीच अपने सपने को क्षेत्रीय स्तर पर समेटने की रणनीति बनाई है और हरियाणा समेत कई विधानसभा चुनावों में भागीदारी न करके दिल्ली की जनता को आश्वस्त करना चाहा है कि वे दिल्ली से भाग कर नहीं, दिल्ली को जीतकर देश में फैलेंगे. उधर, कांग्रेस ने अपने को झाड़ने-पोंछने और विकासवादी नारों के माध्यम से दिल्ली को रफ्तार देने का वादा किया है. राहुल गांधी के कुछ रोड शो भी चमकदार हुए हैं. लेकिन कभी जनार्दन द्विवेदी, कभी जयंती नटराजन तो कभी शशि थरूर के माध्यम से पार्टी की राष्ट्रीय छवि को जो बार-बार झटका लग रहा है, उससे पार पाना कांग्रेस के लिए आसान साबित नहीं हो रहा है. रही विकास की बात तो उसका एजेंडा भाजपा हाइजैक कर चुकी है और अभी वह कांग्रेस के हाथ में आने से रहा. ऐसे में कांग्रेस उठने के बजाय और गिरे तो ताज्जुब नहीं होगा.

कुल मिलाकर विकासवाद और आंदोलनवाद के बीच लड़ा जाने वाला दिल्ली विधानसभा का यह चुनाव भाजपा और आप के बीच सिमट कर रह गया है. इसमें आप अप्रत्याशित तौर पर मोदी के भारी-भरकम व्यक्तित्व और केंद्र में अच्छे बहुमत से सत्ता में बैठी भाजपा को चुनौती देती हुई दिख रही है. अगर आप जीतती है तो उसके लिए यह जीत 2013 से भी बड़ी जीत होगी. तब वह राष्ट्रीय स्तर पर एक वैकल्पिक राजनीति के आकषर्ण का केंद्र बनेगी. लेकिन अगर वह भाजपा से दो-चार सीटें कम पाकर सरकार बनाने से वंचित रह जाती है तो भी उसके लिए दिल्ली के चुनाव परिणाम राजनीति के नए अवसर लेकर आएंगे. अन्ना आंदोलन से आप पार्टी में बदली यह ऊर्जा भाजपा और कांग्रेस के असर में आंदोलन से परहेज करने के बजाय फिर आंदोलन की तरफ जा सकती है. सवाल दिल्ली के ही विकास का नहीं है; देश के विकास और उसके जनोन्मुखी मॉडल का है. क्या वह किसानों की जमीनें मनमाने ढंग से छीन कर, मजदूरों की छंटनी कर और सरकारी कर्मचारियों की संख्या कम कर और उनके रिटायरमेंट की उम्र घटाकर और मध्यवर्ग को अमेरिका के सपने दिखाकर ही हो सकता है या उसके लिए सामाजिक न्याय और सुरक्षा की भी दरकार है.

भाजपा ने किरण बेदी को नेता बनाकर स्त्री सुरक्षा और सबलीकरण का संदेश दिया है और सोमनाथ भारती प्रकरण में आप पर स्त्री विरोधी होने का आरोप भी चस्पा किया है. दूसरी तरफ, आप लगातार युवाओं की आजादी के बहाने लव जेहाद और अल्पसंख्यकों की आजादी के साथ घर वापसी जैसे मुद्दे उठा रही है. कांग्रेस के हटने के साथ भ्रष्टाचार का मुद्दा जरूर पीछे छूटा है लेकिन वह देर-सबेर पूंजीपतियों का पक्ष लिए जाने और तमाम सौदों के स्वरूप के माध्यम से सामने आएगा. देखना है कि दिल्ली जैसा छोटा-सा प्रदेश देश की राजनीति को कोई नई दिशा देने का सामथ्र्य रखता है या वह अपने विकास की खातिर केंद्रीय सत्ता के साथ सहज रिश्ता बनाकर आराम से मलाई खाने में लग जाएगा. दिल्ली विधानसभा का चुनाव इसी मनोविज्ञान और समाजशास्त्र के बीच हो रहा है. जनता की दुविधा और निर्णय क्षमता ही हमारे लोकतंत्र की ताकत और कमजोरी है.

अरुण त्रिपाठी
लेखक


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