धर्मांतरण पर बहस से मत भागिए
हमारा देश धर्म-निरपेक्ष है, पर वह धर्म-विरोधी नहीं है. संविधान में वर्णित स्वतंत्रताओं में धार्मिक स्वतंत्रता भी शामिल है.
धर्मांतरण पर बहस से मत भागिए |
इस स्वतंत्रता में धर्मांतरण भी शामिल है या नहीं, इसे लेकर कई तरह की धारणाएं हैं. देश के पांच राज्यों में कमोबेश धर्मांतरण पर पाबंदियां हैं. इनके अलावा राजस्थान में इस आशय का कानून बनाया गया है, जो राष्ट्रपति की स्वीकृति का इंतजार कर रहा है. अरुणाचल ने भी इस आशय का कानून बनाया, जो किसी कारण से लागू नहीं हुआ. तमिलनाडु सरकार ने सन् 2002 में इस आशय का कानून बनाया, जिसे बाद में राजनीतिक विरोध के कारण वापस ले लिया गया. ये ज्यादातर कानून धार्मिंक स्वतंत्रता के कानून हैं, पर इनका मूल विषय है धर्मांतरण पर रोक. धर्मांतरण क्या वैसे ही है जैसे राजनीतिक विचार बदलना? मसलन आज हम कांग्रेसी है और कल भाजपाई? पश्चिमी देश धर्मांतरण की इजाजत देते हैं, पर अधिकांश मुस्लिम देश नहीं देते.
इस विषय पर बात शुरू होने से 67 साल पुरानी बहस फिर जिंदा हो गई है. इस मामले को अधर में छोड़ने के बजाय तार्किक परिणति तक पहुंचाना चाहिए. इस बहस के कम से कम तीन अलग-अलग पहलू हैं. पहला धर्म या धार्मिंकता से जुड़ा है. दूसरा राजनीतिक और तीसरा संविधानिक या कानूनी है. इस बहस में धर्मनिरपेक्षता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और दूसरी अन्य स्वतंत्रताओं को शामिल कर लिया गया है. मसलन धार्मिंक प्रचार की स्वतंत्रता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में आती है या नहीं. विश्वस्मय की बात है कि 21वीं सदी में, जब धर्मो की व्यक्ति के जीवन में भूमिका कम होनी चाहिए, धार्मिंक विस्तार हमारी चिंता का विषय है. इस बहस में वे वामपंथी भी शामिल हैं जो धर्म को अनावश्यक मानते हैं.
मोटे तौर पर यह सब मानते हैं कि दबाव में, लोभ-लालच देकर या धमकी देकर धर्मांतरण कराना अनुचित है. गुजरात और मध्य प्रदेश के कानूनों में धर्मांतरण के लिए सरकारी अनुमति लेना भी आवश्यक है. इसका मतलब यह हुआ कि व्यक्ति यदि अकेले में किसी वक्त तय करे कि मैं इस धर्म के बजाय दूसरे धर्म के रास्ते पर चलूंगा, तब वह अवैध होगा, बल्कि उसके कारण उसे सजा भी दी जा सकती है. एक सवाल यह भी है कि क्या देश के तमाम आदिवासी हिंदू हैं या उनका कोई धर्म नहीं है? और यह भी कि क्या शिक्षा, चिकित्सा, परिवहन वगैरह की मदद देकर उनका धर्म परिवर्तन कराना उचित है? क्या वे इतने समझदार होते हैं कि धार्मिंक स्वतंत्रता का मतलब समझते हों? धर्म परिवर्तन कराने के लिए इतने साधन कहां से आते हैं और क्यों आते हैं?
मतावलंबियों की संख्या के हिसाब से ईसाईयत और इस्लाम के बाद दुनिया में हिंदू धर्म तीसरे नंबर पर है. ईसाई धर्मावलंबी सबसे बड़ी संख्या में है, पर सबसे तेजी से बढ़ता धर्म इस्लाम है. जन्मदर, धर्मांतरण या दूसरे अन्य कारणों से वैश्विक स्तर पर इस्लाम को मानने वालों की संख्या बढ़ी है. सन् 1910 में दुनिया की आबादी में ईसाई 34.8, मुसलमान 12.6 और हिंदू 12.7 फीसद थे. यह प्रतिशत अब क्रमश: 32.8, 22.5 और 13.8 है. दुनिया के बड़े धनवान देशों के सकल उत्पाद की एक प्रतिशत से थोड़ी कम राशि ‘फेथ बेस्ड’ सहायता के रूप में जाती है. लगभग इसी प्रकार की सहायता धनवान अरब देशों से भी आती है.
फरवरी 1981 में जब तमिलनाडु के मीनाक्षीपुरम में सैकड़ों दलितों का धर्मांतरण हुआ, तब ‘पेट्रो डॉलर’ का प्रसंग भी उठा था. एक माने में भारत में हिंदूवादी राजनीति के उभार के पीछे मीनाक्षीपुरम का धर्मांतरण भी था. मीनाक्षीपुरम के धर्मांतरण ने हिंदू समाज के जातीय अंतर्विरोधों को भी जाहिर किया था. संयोग से इस धर्मांतरण ने उस इलाके में ज्यादा कड़वाहट पैदा नहीं की, पर देश के दूसरे इलाकों में इसे लेकर काफी समय तक कटुता रही. तमिलनाडु में इस धर्मांतरण के बाद हिंदू मुन्नानी संगठन बना, जो आज तक कायम है. तमिलनाडु की द्रविड़ राजनीति में अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) का प्रभुत्व है. दलितों का टकराव प्राय: उनके साथ ही है.
धर्मांतरण केवल व्यक्ति के अंत:करण की स्वतंत्रता तक सीमित नहीं है. इसके गहरे राजनीतिक फलितार्थ हैं. राजनीतिक दल बहती गंगा में हाथ धोने का काम करते हैं, उनकी दिलचस्पी सामाजिक सामंजस्य बनाने से ज्यादा वोट पाने में है, जो हमारी परंपरागत अवधारणा नहीं है, बल्कि पश्चिमी लोकतंत्र से हमने ली है. तमिलनाडु में ही नहीं देश के दूसरे इलाकों में भी धर्मांतरण ज्यादातर दलितों और आदिवासियों का होता है, जिसकी वजह है उनकी सामाजिक दुर्दशा. जैसे नक्सलवाद सामाजिक और आर्थिक भेदभाव की परिणति है, तकरीबन उसी तरह धर्मांतरण इस दुर्दशा का समाधान लेकर आया है, पर परिणाम उसका भी बहुत अच्छा नहीं है. धर्मातरित दलित रहते दलित ही हैं. बहरहाल, जैसे नक्सलवाद एक राजनीतिक विचार है, तकरीबन उसी तरह धर्मांतरण एक राजनीतिक अवधारणा के रूप में सामने आया है.
हमारे संविधान के अनुच्छेद 25(1) के अनुसार ‘लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए, सभी व्यक्तियों को अंत:करण की स्वतंत्रता का और धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक होगा.’ इसमें ‘प्रचार’ शब्द को लेकर संविधान सभा में काफी बहस हुई. इसे हटाने का प्रस्ताव किया गया, पर अंतत: यह शब्द कायम रहा. प्रश्न है कि प्रचार का अधिकार क्या धर्मांतरण की स्वतंत्रता है?
धर्मांतरण यदि लोभ-लालच, भय, दबाव वगैरह के कारण हुआ है तब वह अनुचित है. पर यदि कोई कहे कि केवल मेरे धर्मावलंबी ही स्वर्ग जाएंगे या फलां काम को करने से फलां नुकसान होगा, तब उसे क्या मानेंगे? अस्पताल खोलना क्या लोभ-लालच के दायरे में आएगा? गुजरात और मध्य प्रदेश के कानूनों के तहत धर्मांतरण के लिए राज्य की अनुमति लेना अनिवार्य है. क्या यह व्यक्ति के मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं है? सन् 1977 में सुप्रीम कोर्ट ने स्टैनिस्लास बनाम मध्य प्रदेश राज्य मामले में स्पष्ट किया था कि धर्मांतरण अपने आप में मौलिक अधिकार नहीं है और राज्य उसका नियमन कर सकता है.
अपने धर्म के प्रचार का मतलब है, अपनी आस्था को प्रकट करना या अपने धर्म के सिद्धांत को प्रकाशित/प्रचारित करना. किंतु इसमें दूसरे व्यक्ति को अपने धर्म में धर्मातरित करने का अधिकार शामिल नहीं है. हां, यदि कोई चाहे तो अपनी अंतरात्मा के अनुसार स्वेच्छा से कोई अन्य धर्म स्वीकार कर सकता है. यहां ‘स्वेच्छा’ बहुत महत्वपूर्ण शब्द है. सवाल है कि क्या देश की बड़ी आबादी इतनी शिक्षित और समझदार है कि स्वेच्छा से ऐसे फैसले कर सके? सवाल यूरोप से आए आधुनिकीकरण, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समानता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मसलों का है, जिसके लिए जनता के उच्चस्तरीय शिक्षण की जरूरत है.
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)
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