नरेंद्र मोदी और उनके अघोषित शत्रु
यह विचित्र स्थिति है. क्या संघ परिवार नरेंद्र मोदी से अपने समर्थन की कीमत वसूल कर रहा है?
नरेंद्र मोदी और उनके अघोषित शत्रु |
या मोदी खुद को सेकुलर दिखाते हुए अपना लक्ष्य संघ परिवार के अन्य सदस्यों की मार्फत पूरा कर रहे हैं? क्या संघ एक बार फिर अपने अंतरद्वंद्वों से परेशान है? या, वह यह समझ रहा है कि यह मोदी राज नहीं, संघ राज है और अब अपने मंसूबे पूरे किए जा सकते हैं? या, मोदी को बताया जा रहा है कि आप संघ के मूल कार्यक्रम का समर्थन नहीं कर सकते और तदनुसार कानून नहीं बदल लकते, तो आप भारत के लिए अच्छे होंगे, पर हमारे किसी काम के नहीं हैं.
जब मोदी प्रधानमंत्री पद के लिए लोकसभा का चुनाव लड़ रहे थे, उन्होंने ऐसे मुद्दों का कोई जिक्र नहीं किया था जो भाजपा को जान से भी ज्यादा प्रिय हैं. हर कोई यह जानता है कि ये मुद्दे क्या हैं. लेकिन क्या तीन लोकसभा चुनाव पहले सत्ता की लालसा में भाजपा ने अपने सभी विवादित मुद्दों को स्थगित नहीं कर दिया था? जब नरसिंह राव के फ्लॉप शासन के बाद भाजपा को लगा कि वह केंद्र में सत्ता हासिल कर सकती है, तब उसे यह भी लगा कि वह भाजपा बनी रह कर सत्ता हासिल नहीं कर सकती. अगर वह ऐसा न करती, तो राजग नाम का गठबंधन बन ही नहीं सकता था और भाजपा को अकेले सत्ता मिलने की कोई संभावना नहीं थी.
भाजपा अध्यक्ष होने के नाते लालकृष्ण आडवाणी ने एक जुआ और खेला. वे चाहते तो खुद को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बना सकते थे. आखिर वही उन दिनों भाजपा का अखिल भारतीय चेहरा थे, अटल बिहारी वाजपेयी नहीं. लेकिन आडवाणी ने वाजपेयी के महत्व और उपयोगिता को समझा और घोषित किया कि राजग की सरकार बनी, तो वाजपेयी ही प्रधानमंत्री बनेंगे. और ऐसा ही हुआ भी. वाजपेयी की छवि मध्यमार्गी, उदार और कट्टर सांप्रदायिकता से मुक्त नेता की थी. इसलिए राजग के अन्य दलों को उन्हें नेता के रूप में स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं हुई.
भाजपा के लिए यह बेहतर होता कि जिन शर्तों पर राजग बना था, उनका पालन करती रहती. तब वह उदार और लोकतांत्रिक पार्टी होने का दावा कर सकती थी और कांग्रेस का व्यावहारिक विकल्प बन सकती थी. मेरा खयाल है कि अकेले नरेंद्र मोदी ने इस बात को समझा और इस पर अमल भी किया. गुजरात में उनका शासन जैसा भी रहा हो, केंद्र में वे विवादरहित सरकार बनाना चाहते थे. इसलिए उन्होंने विकास को ही अपना मुख्य नहीं, एकमात्र मुद्दा बनाया. देश भर में विकास बनाम अन्य का वातावरण बन गया था. इसका भी असर हुआ और मोदी की आकषर्क भाषण शैली का भी. मोदी भाजपा के सूर्य साबित हुए और उनकी पार्टी की सुबह हुई.
कहने की जरूरत नहीं कि यह विजय भाजपा की नहीं, नरेंद्र मोदी की थी. मेरा खयाल है, संघ परिवार ने निश्चय ही उनका पूरा साथ दिया था, लेकिन अगर वे भाजपा के उम्मीदवार नहीं होते और अकेले, अपने दम पर चुनाव लड़ रहे होते, तब भी उन्हें बहुमत मिलना निश्चित था. संघ परिवार ने भी इस बात को समझा और इसीलिए आप पाएंगे कि मोदी पर संघ परिवार का जोर नहीं चल रहा है. मोदी अपने ढंग से सरकार चला रहे हैं, अपनी पसंद का पार्टी अध्यक्ष बना रहे हैं और स्वच्छता, नशाखोरी आदि के लिए काम करते हुए दिखाई पड़ रहे हैं.
संघ युवा पीढ़ी को ज्यादा से ज्यादा संख्या में जोड़ना चाहता है, लेकिन उसका रास्ता शिवाजी और महाराणा प्रताप का है, जबकि मोदी विकास, स्वच्छता आदि का नायक बन कर उन्हें आकर्षित करना चाहते हैं. लेकिन शिवाजी और महाराणा प्रताप का नाम लेने से और हिंदू-मुसलमान विभाजन करने से संघ कुछ ही युवकों को आकर्षित कर सकता है, जबकि विकास के नाम पर पूरे युवा समुदाय को अपने साथ किया जा सकता है. राजनीति में संदेह करने की गुंजाइश हमेशा रहती है, फिर भी मैं यह मान कर चलना चाहता हूं कि प्रधानमंत्री मोदी वह नहीं हैं जो मुख्यमंत्री मोदी थे. यह उनकी निंदा या तारीफ नहीं, उन्हें समझने की एक मनोवैज्ञानिक कोशिश है.
लेकिन भाजपा और संघ ने नरेंद्र मोदी का समर्थन इसलिए नहीं किया था कि वे स्वच्छता अभियान चलाएं या युवकों को नशाखोरी से मुक्त होने की अपील करें. जो कट्टर संघी या भाजपायी हैं, वे मोदी राज के छद्म में राम राज चाहते हैं और इसके लिए अयोध्या में जल्द से जल्द राम मंदिर बनाना जरूरी समझते हैं. वे मुसलमानों को हिंदू बनाना चाहते हैं ताकि उनकी संख्या कम हो और हिंदुओं की संख्या बढ़े. वे बाइबल और कुरान की तरह किसी भी पुस्तक को हिंदू धर्म का एकमात्र ग्रंथ घोषित नहीं कर सकते, इसलिए गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करवाना चाहते हैं. वे चाहते हैं कि देश भर में संस्कृत की पढ़ाई को अनिवार्य बना दिया जाए. अर्थात वे हर ऐसा काम करना चाहते हैं जिससे उनकी परिभाषा का हिंदू मजबूत हो, भले ही इस प्रक्रिया में भारतीय संविधान की अवज्ञा होती रहे. वे महात्मा गांधी की नहीं, नाथूराम गोडसे की उपासना करना चाहते हैं. वे एक ओर यह प्रतिपादित करते हैं कि भारत तो हिंदू राष्ट्र है ही, दूसरी ओर इसे अपने मन का हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं.
लेकिन क्या नरेंद्र मोदी भाजपा के सपनों का राम राज्य स्थापित करने आए हैं? यह भेद तो बाद में ही खुलेगा. अभी तो यही मान कर चलना उचित है कि वे अपने मन का भारत बनाना चाहते हैं और इसके लिए हो सकता है कि उन्हें संघ परिवार से झगड़ना भी पड़े. ऐसा हुआ तो वह दृश्य सचमुच मजेदार होगा.
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